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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मातृभाषा से मुंह मोड़ती दुनिया

आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष

निर्भय कर्ण / मातृभाषा व्यक्ति की संस्कृति व अभिव्यक्ति का साधन होता है। यह सभी की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। यह इंसान को हाव, भाव और अपने आप को दूसरों के सामने रखने का हथियार प्रदान करती है और इसे सीखने के लिए किसी कक्षा की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि यह स्वतः अपने परिजनों द्वारा उपहार स्वरूप मिलती है। लेकिन अपनी आवश्यकतानुसार मातृभाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं को अपनाना गलत है। इससे भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। बोली जाने वाली लगभग 6000 भाषाओं में कम से कम 43 प्रतिशत भाषाएं खतरे में  है। ऐसे हालात में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा  दिवस (21 फरवरी) को मनाने का महत्व और भी बढ़ जाता है। मातृभाषा  हमारी मैथिली हो या फिर भोजपुरी या हिंदी, उस पर शान जताते हुए इसे बढ़ावा देने के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए।

विश्व में ऐसी कई भाषाएं और बोलियां है जिनका संरक्षण आवश्यक है। इसलिए यूनेस्को ने नवंबर 1999 में दुनिया की उन भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए सन् 2000 से प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का निश्चय किया था जो कहीं न कहीं संकट में है। लेकिन इस दिवस को मनाने के पीछे असली वजह बांग्लादेश का 1952 का मातृभाषा  आंदोलन है। दरअसल 1947 में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा  घोषित कर दिया था और अन्य भाषाओं को पूर्वी पाकिस्तान में अमान्य। लेकिन बंगालियों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इस क्षेत्र में बांग्ला बोलने वालों की आबादी ज्यादा थी। प्रतिरोधस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर आंदोलन तेज हो गया। 21 फरवरी, 1952 को ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल का आह्वान किया। इसे रोकने के लिए सरकार ने कफ्र्यू लगा दिया लेकिन आंदोलन और भी उग्र हो गया। इसके बाद पुलिस ने छात्रों और प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी जिसमें कई छात्रों की मौत हो गई। इनमें से चार छा़त्रों (अब्दुस सलाम, रफीकुद्दीन अहमद, अब्दुल बरकत और अब्दुल जब्बर) का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है। यही वजह है कि बांग्लादेश अपनी मातृभाषा  की याद में  21 फरवरी को स्मृति दिवस के रूप में भी मनाता है। बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने उर्दू का विरोध करते हुए बांग्ला के पक्ष में आंदोलन कर यह साबित कर दिया कि भाषा का धर्म से रिश्ता  अनिवार्य नहीं होता। हम दुनियावालों को बांग्लादेश में मौजूद भाषा के प्रति उत्साह, उत्सवधर्मिता, जागरूकता एवं आम जनता की भागीदारी से सीखना चाहिए। वहां अपनी मातृभाषा को लेकर जिस प्रकार समर्पण है, वो काबिलेतारीफ है।

भाषाओं पर खतरा मंडराना एक चिंतनीय विषय  है। ऐसे में  भाषा  प्रेमी का आंकड़े देखकर सहमना स्वाभाविक है। वैसे तो भाषाओं की वास्तविक संख्या के बारे में लोग एकमत नहीं है। फिर भी माना जाता है कि विश्व में लगभग 3000 से 8000 भाषाएं तक है। 6000 भाषाओं में से 52 प्रतिशत भाषाएं 10,000 से कम लोग बोलते हैं और 28 प्रतिशत भाषाएं 1000 से भी कम लोग। इनमें से 83 प्रतिशत भाषाएं एक देश  तक ही सीमित है। यूनेस्को ने भाषाओं  के अस्तित्व का पैमाना तय किया हुआ है। इसके अनुसार, 100 लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा  असुरक्षित है। वहीं वड़ोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे के मुताबिक, पिछले 50 साल में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई है। इस सर्वे से यह बात भी निकल कर आयी कि पिछले 50 साल में हिंदीभाषी 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 33 करोड़ से बढ़कर 49 करोड़ हो गई। देखा जाए तो, भारत में प्रत्येक 100 किलोमीटर की दूरी पर बोलियों में अंतर देखने को मिलता है। हमारे संविधान निर्माताओं की इच्छा थी कि स्वतंत्रता के बाद भारत का शासन अपनी भाषाओं में चले, ताकि आम जनता शासन से जुड़ी रही और समाज में एक सामंजस्य स्थापित हो और सबकी प्रगति हो सके लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

भारत में सदियों पहले संस्कृत का वर्चस्व था जो सिमटते-सिमटते इतना सिमट गया कि वह अब लुप्त के कगार पर खड़ा हो चुका है। जबकि विदेशों में संस्कृत को महत्व मिलने लगा है। दुनियाभर के वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया में कंप्यूटर के लिए सबसे अच्छी भाषा ‘संस्कृत’ है। इस समय सबसे ज्यादा संस्कृत पर शोध जर्मनी और अमेरिका में चल रहा है। नासा ने ‘मिशन संस्कृत’ शुरू किया है और अमेरिका में बच्चों के पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल किया गया है।

मातृभाषाओं पर खतरों के कारणों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि पूंजीवाद एवं वैश्वीकरण के दबाव में भाषाएं अपने आप को घुटन महसूस कर रही है। आज भूमंडलीकरण के नाम पर दुनियाभर में मातृभाषाओं का कत्ल किया जा रहा है। कई छोटी-बड़ी भाषाएं बेमौत मर रही हैं। इस कृत्य में बाजार और तकनीक का भी बहुत बड़ा हाथ है। तकनीक और बाजार के लिए अंगे्रजी और बड़ी भाषाओं को एकमात्र विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है जिसके आगे अन्य भाषाएं अपने आप को बेबस महसूस करती है। दुनियाभर में इस वक्त चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। इसमें से अंग्रेजी का प्रभुत्व सर्वाधिक है जो वैश्विक भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई है। औपनिवेशि मानसिकता ने अंग्रेजी को विकास का पर्याय मान लिया है। लोग शहरों में आकर अपनी मातृभाषाओं को त्याग कर शहरी भाषा को अपनाकर गुजर-बसर करने लगते हैं। इस प्रकार शहरीकरण भी भाषाओं के नष्ट होने का कारण है। मातृभाषा कोई भी हो, हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व होना चाहिए।

भाषाओं और बोलियों की खस्ता हालत को ध्यान में रखते हुए इस पर खासा काम करने की जरूरत है। हमारे नीति-निर्माताओं, वक्ताओं और आम जनता को दुनिया की भाषाई विविधता की रक्षा के बारे में जागरूक होना होगा। सरकारें न तो भाषा को जन्म दे सकती है और न ही भाषा का पालन करा सकती हैं लेकिन सरकार की नीतियों से भाषाएं समय से पहले ही मर सकती है। इसलिए जरूरी है कि भाषाओं को जीवित रखने के लिए उचित योजना बनाकर उसे क्रियांवित किया जाए। मातृभाषा के संरक्षण और विकास के लिए जरूरी है कि सरकार बोलियों और छोटी भाषाओं में भी रोजगार के अवसर प्रदान करें। अगर हम सत्ता में जनता की भागीदारी के पक्षधर हैं तो हमें मातृभाषाओं को बचाना और उचित स्थान देना ही होगा। बड़े शहरों को भी बहुभाषी होकर उभरना होगा। शहरों में अन्य मातृभाषाओं को उचित सम्मान देने की आवश्यकता है। भाषाएं सीखना कोई बुरी चीज नहीं है। व्यक्ति जितनी भाषाएं सीखें, उतना ही अच्छा है लेकिन अपनी मातृभाषा से मुंह मोड़कर नहीं।

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सम्पादक

डॉ. लीना