पटना में ‘कविता के जनसरोकार’ पर विमर्श, आज जनसरोकार के लिए कवि के पास समय नहीं है
पटना/ ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से स्थानीय केदार भवन के मुख्य सभागार में ‘कविता के जनसरोकार’ विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया. मुख्य अतिथि कवि हरीन्द्र विधार्थी तथा अध्यक्षा डा रानी श्रीवास्तव, मुख्य वक्ता युवा कवि शहंशाह आलम थे तथा संचालन श्री राज किशोर राजन ने किया.
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डा रानी श्रीवास्तव ने कहा कि मानवीय मूल्यों, सामाजिक समस्याओ एवं विषमता जब कविता का स्वर हो तब वह कविता जनसरोकार की कविता बनती है.
युवा कवि शहंशाह आलम ने कहा कि प्रत्येक कविता का अपना जनसरोकार होता है. परन्तु आज के कई कवि जनसरोकार से बुरी तरह कट गये है इसके कारण कविता में एक विरोधाभास उत्पन हुआ है.
युवा कवि राजकिशोर राजन का विचार था कि कविता अकेले आदमी का भरोसा है और कविता पर भरोसा तभी होगा जब वह जनसरोकार की बात करेगी.
कवि एवं पत्रकार प्रमोद कुमार सिंह ने कहा कि आज बाजार से कविता ही सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही है.
मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए हरीन्द्र विद्यार्थी ने कहा कि जनता से कटी हुई कवितायें वैसी ही होती है जैसे पंख कटी चिड़िया. सच्ची कविता वही है जिसमें आम आदमी की पीड़ा अभिव्यक्त होती है।
कवि विभूति कुमार का कहना था कि कविता का जनसरोकार से सम्बन्ध निश्चित रूप से घटा है जिसके लिए अगर कवि अस्सी प्रतिशत जिम्मेदार है तो जनता बीस प्रतिशत। जो जनता से जुड़े गंभीर दुःख–दर्द, घुटन जैसे विषयों की अपेक्षा हल्की – फुल्की मनोरंजन व ग्लैमर से सजी धजी रचनाओं को ज्यादा पसन्द करती है.
कवि अरविन्द श्रीवास्तव ने विचार गोष्टी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कविता की उत्पति ही दर्द के कारण हुई है. ’जन’ के बगैर कविता की कल्पना नहीं की जा सकती. निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन जनता के कवि थे..
कवि एवं सम्पादक सुजीत कुमार वर्मा का मानना था कि कविता एवं जनसरोकार हर समय में प्रासंगिक रहा है इसीलिए कवि कविताएं रचता है.
दलित चेतना के कवि राकेश प्रियदर्शी का कथन था कि कविता कठिन भाषा की बजाय जनता की भाषा में होनी चाहिये. कवि अरविन्द पासवान का कहना था कि आज के कवियों को आत्ममंथन करने की जरूरत है.
कवि भगवत शरण झा ‘अनिमेष’ ने भी आज के विद्रूप समय जनसरोकार पर केंद्रित कविताओं के रचे जाने का आह्वाहन किया. धन्यवाद ज्ञापन श्री विभूति कुमार ने किया.