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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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क्या हिन्दी अख़बार भी कूड़ा परोस रहे हैं?

ख़बर की धार ऐसी कर दी जाती है कि सरकार बहादुर या कलेक्टर तक नाराज़ न हों

रवीश कुमार/ मेरे ब्लॉग की क्षमता दस बीस हज़ार लोगों तक पहुंचने से ज़्यादा की नहीं होगी फिर भी मैं हिन्दी के करोड़ों पाठकों से यह सवाल करना चाहता हूं कि क्या आपको पता है कि हिन्दी चैनलों की तरह हिन्दी के अख़बार आपको कूड़ा परोस रहे हैं। पिछले दस सालों में चैनलों की खूब आलोचना हुई है। इसका असर ये हुआ है कि चैनल और भी कूड़ा परोसने लगे हैं। रिपोर्टर ग़ायब कर दिये गए हैं। उनकी जगह स्ट्रिंगर लाए गए, अब उन्हें भी ग़ायब कर दिया गया है। लेकिन हिन्दी के अख़बार सख़्त समीक्षा से बच जाते हैं। आज भी इन अख़बारों के पास ज़िले तक में पांच दस पूर्णकालिक संवाददाता तो मिल जायेंगे। तमाम संस्करणों में इनके सैंकड़ों पत्रकार हैं। फिर भी ख़बर की धार ऐसी कर दी जाती है कि सरकार बहादुर या कलेक्टर तक नाराज़ न हों। ख़बर हिन्दी अख़बारों में होती है मगर सरकार के दावों की जांच करने वाली ख़बरें नहीं होती हैं। होती भी हैं तो अपवाद स्वरूप। हिन्दी के पत्रकारों को बांध दिया गया है और वे भी ये गाना खुशी खुशी गा रहे हैं। कि पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी…मीरा नाची थी…और हम नाचे बिन घुंघरू के।

11 जनवरी का इंडियन एक्सप्रेस देखिये। पहले पन्ने पर ख़बर है कि दिसंबर महीने में ऑटोमोबिल की बिक्री में जितनी गिरावट देखी गई है, उतनी सोलह साल में नहीं देखी गई। इंडियन आटोमोबिल मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन ने ये आंकड़े जारी किये हैं। दुपहिया वाहनों की बिक्री 22 प्रतिशत कम हुई है। दिसंबर 2015 की बिक्री की तुलना में। 1997 के बाद किसी एक महीने में यह अधिकतम गिरावट है। 75 फीसदी बाज़ार स्कूटर और मोटरसाइकिल का है। आपने पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर में ही देखा होगा कि सूक्ष्म, लघु उद्योग में 35 प्रतिशत रोज़गार कम हुआ है। उत्पादन में गिरावट आई है।

कहीं 35 फीसदी रोज़गार कम होने का असर दुपहिया वाहनों की बिक्री पर तो नहीं पड़ा। या नोटबंदी के कारण सारा पैसा बैंक में बंद हो गया इस वजह से। क्या स्कूटर मोटरसाइकिल के ख़रीदार भी काला धन रखने वाले हैं? एक्सप्रेस लिखता है कि दिसंबर 2015 की तुलना में दिसंबर 2016 के दौरान वाहनों के उत्पादन में 21.8 प्रतिशत की कटौती की गई है। दुपहिया वाहनों के उत्पादन में 25.2 प्रतिशत की कटौती की गई है। अब आप सोचिये कि इसका रोज़गार पर क्या असर पड़ा होगा। नौकरियां कितनी गई होंगी। इसी तरह रियालिटी सेक्टर भी पूरी तरह धंस गया है। जहां रोज़ाना अस्थायी रोज़गार पैदा होते हैं। क्या सरकार के किसी बयान या दावे में इन आंकड़ों या इसके असर की कोई चिन्ता है। उम्मीद है ये ख़बर हिन्दी अख़बारों और चैनलों पर प्रमुखता से चल रही होगी।

एक्सप्रेस में एक और ख़बर है। इस ख़बर के आधार पर आप हिन्दी अख़बारों के वर्षों से मंत्रालय और पार्टी मुख्यालय की बीट पर बुढ़ा रहे पत्रकारों की धार का अंदाज़ा कर सकते हैं। उनके पास भी ये ख़बर होगी मगर लिखने का साहस नहीं जुटा सके होंगे। 31 सितंबर 2016 को एक्सप्रेस ने एक ख़बर छापी कि जनधन खातों में बैंक दूसरी तरीके से हेराफेरी कर रहे हैं। शून्य जमा खातों से सरकार की बदनामी हो रही है क्योंकि वो एक तरह से ग़रीबी का भी मानक बन जाता है। इसलिए बैंकों ने अपने कर्मचारियों से कहा कि एक एक रुपया डाले। क्या ये काला धन बनाने की प्रक्रिया नहीं है। सिर्फ धन ही नहीं, आंकड़े भी काले होते हैं। तब बैंकों और सरकार ने इस ख़बर से किनारा कर लिया था। किसी चैनल या अखबार ने इसका फोलो अप नहीं किया क्योंकि सरकार के दावे की जांच करने का जोखिम है।

इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार श्यामलाल यादव ने कई महीने बाद इस स्टोरी का फोलो अप किया है। आर टी आई से सूचना हासिल कर लिखा है कि बैंक आफ बड़ौदा और बैंक आफ इंडिया ने माना है कि उनके ब्रांच स्टाफ ने अपनी जेब से एक एक रुपया डाल कर शून्य जमा वाले जनधन खातों को समृद्ध किया है। कई और बैंकों में इसी तरीके की बात मानी है। एक ब्रांच में दस बीस कर्मचारी होते हैं लेकिन खातों की संख्या सैंकड़ों और हज़ारों में हो सकती है। इसलिए इसके लिए ब्रांच के पास अन्य मदों के लिए उपलब्ध पैसों से भी शून्य जमा जनधन खातों को भरा गया। इससे क्या हुआ? सितंबर 2014 में 76 फीसदी जनधन खातों में कोई पैसा नहीं था। ऐसे खातों का प्रतिशत अगस्त 2015 तक घटकर 46 फीसदी रह गया। अगस्त 2016 में 24.35 फीसदी पर आ गया।

सरकार इन्हीं आंकड़ों को लेकर खेल करती है। सरकार अक्सर जनधन खातों में जमा राशि को कामयाबी की तरह बताती है। आम पाठक के पास इन दावों की जांच का कोई आधार नहीं होता। अब आप इसे दूसरी तरीके से देखिये। कैसे सूचना और आंकड़ों के खेल से लोकतंत्र की हत्या हो रही है। लाखों बैंक कर्मचारियों को मजबूर किया गया। उन्होंने उफ्फ तक नहीं किया और अपनी जेब से पैसे जमा किये। उनका पैसा जमा हुआ और पब्लिक तक यह सूचना पहुंची कि ग़रीब लोगों ने जमा किया और यह सरकार की बड़ी कामयाबी है। श्यामलाल यादव की यह ख़बर पढ़ते हुए आप यह भी सीखेंगे कि पत्रकारिता कैसे की जाती है। क्या इस तरह की श्रमसाध्य पत्रकारिता आपको हिन्दी के उन अख़बारों में देखने को मिल रही है। इसलिए नहीं मिलती क्योंकि उनका संपादक पब्लिक की निगाह की जांच से बचा रहता है। सौ फीसदी चांस है कि यह ख़बर किसी हिन्दी के पत्रकार के पास भी हो।

एक्सप्रेस ने ही 10 जनवरी को एक और खबर छापी। इस खबर को पढ़ने के बाद मैंने हिन्दी के दस पाठकों से पूछा कि क्या आपको पता है कि सरकार ने रिज़र्व बैंक से कहा था कि वो नोटबंदी करना चाहती है। किसी को पता नहीं था। सबने कहा कि मेरे अख़बार में तो ऐसा कुछ नहीं आया है। इसीलिए मैं कई बार कह रहा हूं कि अंग्रेज़ी अख़बारों या thewire.in , epw.org जैसी वेबसाइट पर जो समीक्षाएं छप रही हैं उन्हें जानबूझ कर देसी भाषा के पाठकों तक पहुंचने नहीं दिया जा रहा है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह सब संसदीय समिति को अपने लिखित जवाब में कहा है। इसलिए मान लेना चाहिए कि इनकी विश्वसनीयता किसी भी मंत्री के दावे से ज़्यादा है।

10 जनवरी की एक्सप्रेस की पहली ख़बर कहती है कि 7 नवंबर को सरकार ने रिज़र्व बैंक को नोटबंदी की सलाह दी और विचार करने के लिए कहा। आठ नवंबर की सुबह रिज़र्व बैंक ने अपनी सहमति दे दी। इतने बड़े मसले पर 24 घंटे के भीतर रिज़र्व बैंक ने विचार कर सहमति भी दे दी। प्रधानमंत्री कहते हैं कि राजनीतिक दलों के चंदों के बारे में चर्चा होनी चाहिए। ग़ज़ब। जाली नोटों के बारे में तो समझ सकते हैं लेकिन आतंकवाद और नक्सलवाद में काले धन या इन नोटों का इस्तमाल हो रहा है, इसकी जानकारी और विशेषज्ञता भारतीय रिज़र्व बैंक को भी होती है, यह मुझे नहीं मालूम था। हो सकता है भारतीय रिज़र्व बैंक अपनी स्वायत्तता गिरवी रखने के बाद अब गृह मंत्रालय के अधीन भी काम करने लगा हो। आतंकवाद और नक्सवाल में 500 और 1000 रुपये के नोटों का हाथ है, इस नतीजे पर रिजर्व बैंक चौबीस घंटे के भीतर किनकी मदद से पहुंच गया। इस संस्था की साख चौपट होती जा रही है।

एक्सप्रेस की रिपोर्ट कहती है कि 7 अक्तबूर 2014 को भारतीय रिज़र्व बैंक ने पांच हज़ार और दस हज़ार के नोट जारी करने का सुझाव दिया था। मई 18 2016 में सरकार ने सुझाव दिया कि 2000 के नोट छापे गए। अब यहां देखिये। 2014 के सुझाव पर 2016 में जवाब आता है। मौद्रिक नीतियों और फैसलों के मामले में रिज़र्व बैंक से ज़्यादा सरकार सोचने का काम करने लगी है। जब भारतीय रिज़र्व बैंक अक्तूबर में पांच हज़ार और दस हज़ार के नोट जारी करने का सुझाव दे रहा था तब उसने गृहमंत्रालय और खुफिया विभाग से पूछ लिया था कि कहीं पांच सौ और हज़ार के नोट से आतंकवाद और नक्सलवाद तो नहीं फैल रहा है। दस हज़ार के नोट से कहीं आतंकवाद दस गुना तो नहीं बढ़ जाएगा। सरकार ने रिज़र्व बैंक को क्या जवाब दिया होगा। यही कि भाई दस गुना बड़ा नोट छापोगे तो आतंकवाद दस गुना बढ़ जाएगा। एक्सप्रेस ने कुछ दिन पहले ही ख़बर छाप दी थी कि संसदीय समिति ने रिज़र्व बैंक से जवाब मांगा है। इसके बाद भी हिन्दी चैनलों और अख़बारों ने कोई सक्रियता नहीं दिखाई। क्योंकि कोई भी अब ऐसी ख़बरों का पीछा नहीं करना चाहता जिसके कारण सरकार की पोल खुले।

एक दो ख़बरों के आधार पर हिन्दी के अख़बारों का मूल्याकंन करने पर भी सवाल हो सकता है लेकिन आप परिपाटी देखिये तो पता चलेगा। इसीलिए फिर से कहता हूं कि दो लाख चार लाख रुपये देकर घटिया प्राइवेट संस्थानों और उनके घटिया शिक्षकों से पत्रकारिता के छात्रों और छात्राओं का जीवन बर्बाद किया जा रहा है। इस उम्र में तेज़ दौड़ने वाले घोड़े को खच्चर बनाया जा रहा है। बेहतर है आप अपनी जवानी में ही संभल जाएं। जबकि बैंकों में हिन्दी के पत्रकारों के ज़्यादा बेहतर संबंध होते हैं। वो अंग्रेज़ी के पत्रकारों से ज़्यादा सक्षम हैं लेकिन हिन्दी के अखबारों में पत्रकारिता बंद है। इनके अनाम और अनजान संपादकों की हरकतों पर आपकी कम नज़र होती है। ये लोग ज़्यादा बेहतर तरीके से सेटिंग कर लेते हैं और आम पाठक को पता तक नहीं चलता। क्या ये अच्छा नहीं होगा कि संपादक मंडली का नाम पिछले पन्ने के सबसे नीचे की जगह पहले पन्ने पर फोटो के साथ छपे और अब मृत प्राय हिन्दी चैनलों को छोड़ कर इन अख़बारों का भी विश्लेषण करें। मेरी राय में किसी भी राजनीतिक बीट पर दो साल से ज्यादा कोई पत्रकार नहीं होना चाहिए। तमाम रिपोर्टरों में पोलिटिकल बीट के रिपोर्टर का पदनाम बड़ा होता है, सैलरी ज़्यादा होती है। जबकि अखबार या चैनल को नज़र नहीं आ रहा है कि इनकी ज़रूरत रही नहीं। इन्हें वहां से हटा कर कहीं और लगा देना चाहिए। क्योंकि राजनीतिक दल तो अपनी ख़बर ख़ुद ही ट्वीट कर देते हैं। जब वे बीस साल वाले अनुभवी पत्रकार से ख़बरें प्लांट करवा सकते हैं तो दो साल से भी करा लें। ज़रूरी है कि राजनीतिक बीट को लेकर बहस हो और नई प्रणाली बने। आमीन।

नोट- अब आप यह मत कहियेगा कि इस पर लिखा तो उस पर क्यों नहीं लिखा। भाई साहब, आपको लगता है कि मैंने किसी पर नहीं लिखा तो आप लिख दीजिए। जय हिन्द।

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग क़स्बा से साभार )

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सम्पादक

डॉ. लीना