साहित्यिक संस्था "विन्यास साहित्य मंच" के तत्वावधान में ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी-6 संपन्न, मीडियमोरचा पत्रिका की संपादक डॉ लीना सहित दर्जन भर से अधिक पत्रकारों ने की शिरकत
पटना/दिल्ली/कोलकाता/वाराणसी/सतना। हमारे देश के कई पत्रकार अपनी लेखनी से सिर्फ खबरों का लेखन और संपादन ही नहीं करते, बल्कि साहित्य की सेवा भी करते हैं। ऐसे पत्रकार कवियों को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का अवसर देने के लिए विन्यास साहित्य मंच ने शनिवार 13 जून 2020 को ऑनलाइन काव्य गोष्ठी-6 का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में देश के हिंदी भाषी राज्यों से 14 पत्रकार कवियों ने शिरकत की। करीब ढाई घंटे तक चले इस कार्यक्रम की अध्यक्षता पटना से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' के संपादक एवं कवि डॉ शिवनारायण ने की। इस कार्यक्रम में वाराणसी से प्रवीण पांडे, अरविंद मिश्रा, कलकत्ता से डॉ अभिज्ञात, एकलव्य केसरी, मध्यप्रदेश के सतना से दीपक गौतम, नॉएडा से अम्बरीष पांडेय, पटना से डॉ पल्लवी विश्वास, डॉ लीना, आशुतोष अनत, डॉ प्रणय प्रियंवद, मोइन गिरिडीहवी ने शिरकत की। कार्यक्रम का संचालन दिल्ली से चैतन्य चंदन ने और धन्यवाद ज्ञापन विन्यास साहित्य मंच के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि घनश्याम ने की। कार्यक्रम के दौरान श्रोता के तौर पर भी कई लोग उपस्थित रहे।
कार्यक्रम की शुरुआत में सन्मार्ग पटना के समाचार संपादक आशुतोष अनत ने पत्रकारों के दर्द को अपनी कविता में पिरोते हुए सुनाया:
मैं पत्रकार हूं
अंधेरी रात में
टिमटिमाते तारों को देखता
सप्तऋषि का
मरियल -सा सातवां तारा,
हंसता ध्रुवतारा
रपटीली राहों पर मद्धिम-सी रोशनी का
तलबगार हूं।
मैं पत्रकार हूं...
जी मीडिया नोएडा में बतौर वरिष्ठ पत्रकार कार्यरत अम्बरीष पांडे ने इश्क़ के गणित को कुछ इस प्रकार समझाया:
मैं गणित में शून्य हूँ,
अपने जीवन का शून्य भरने के लिए,
मैंने "तुम" को चुना है,
जैसे शून्य के आगे कोई अंक लिख दो,
तो उसका मान बढ़ जाता है न,
तुम वही अंक हो, जो मेरे आगे हो...
मेरा भी मान बढ़ गया है "तुम" से...
सतना से स्वतंत्र पत्रकार दीपक गौतम ने दंगों के ही ज़िंदा रहने की बात उन्ही की जुबानी सुनाई:
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
मैं लाल लहू से रंगा हूँ
नफरत ही लिबास है मेरा
असल में, मैं तो नंगा हूँ।
बढ़ती हिंसा के इस दौर में
मैं सबसे भला और चंगा हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
पटना से कलनेत्री और पत्रकार डॉ पल्लवी विश्वास ने शांति और अशांति की राजनीति को कविता में पिरोते हुए समझाया:
विश्व शांति समझौतों पर हस्ताक्षर करते करते
हमने यह ज़रूर समझ लिया कि शांति की 'बात' करते हुए ही संसार को चलाना है ।
सो शांति की 'तलाश' और 'स्थापना' करने के लिए अशांति की खेती भी करवाते रहना होगी―
थोड़े पर्दों में ही क्यों न हो।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि और नई धारा पत्रिका के संपादक डॉ शिवनारायण ने कहा:
ऊपर ऊपर क्या पढ़ लोगे
जीवन यह अखबार नहीं है
जो खुशियों पर ताला जड़ दे
ऐसी भी सरकार नहीं है
मीडियमोरचा पत्रिका की संपादक डॉ लीना ने कोरोना काल में लोगों की लाचारगी को काव्य सूत्र में पिरोते हुए कहा:
कभी अपनों को देना कान्धा
कभी "उनकी" देह को आग देना
तो करना पति का श्राद्ध
कभी अकेले- अकेले!
ओह कोरोना
अब नहीं सीखना
कि
जीते जी बहुत रुलाया तुमने!
क़ौमी तंज़ीम अखबार के संपादक मोईन गिरिडीहवी ने औरतों की समझदारी को अपनी ग़ज़ल के माध्यम से बताया:
औरतें 'इशारों की बोलियां' समझती हैं
जैसे कृष्ण की बंसी गोपियां समझती हैं
रंग कम लगाते हैं मलते हैं बदन ज़्यादा
देवरों की नीयत को भाभियां समझती हैं
पटना से दैनिक भास्कर के पत्रकार डॉ प्रणय प्रियंवद ने
मिट्टी का मोह क्या करना शीर्षक कविता के माध्यम से मृत व्यक्ति के प्रति संवेदनहीनता को उद्धृत किया:
उनके इंतज़ार में कब से शव था रखा पड़ा
घर में विलाप था पसरा हुआ
पूरे सत्ताइस घंटे के बाद वे पहुंच पाये
पिता के शव को पैरों के तरफ से प्रणाम किया
मन ही मन बुदबुदाये।
फिर आंगन में खड़े सबसे बुजुर्ग से कहा
दादा आप तो समझदार थे…
शव का घर में इतने घंटों रहना शुभ नहीं
यह देह तो अब मिट्टी हुई
मिट्टी का मोह क्या…
वाराणसी से स्वतंत्र पत्रकार प्रवीण पांडे ने खुद से एक सवाल पूछते हुए कहा:
सत्य कहूँ तो जग को पीड़ा,
झूठ कहूँ तो मन रोता है ....
ऐसा आखिर क्यों होता है!
वाराणसी से ही हिंदुस्तान दैनिक के वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मिश्र 'शांत' ने अपनी ग़ज़ल से खूब वाहवाही लूटी।
एक हवा ने रुख रिश्तों का मोड़ दिया
देखो जड़ ने साथ तने का छोड़ दिया
तना तरफदारी करता है कांटों की
फूलों ने भी यह जुमला बेजोड़ दिया
कोलकाता से कार्यक्रम में शिरकत कर रहे सन्मार्ग अखबार के वरिष्ठ पत्रकार डॉ अभिज्ञात ने स्त्रियों की खुशी को अपनी कविता के माध्यम से इस प्रकार रेखांकित किया:
स्त्री जब खुश होती है तो नाचती है
तुमने कितनी स्त्रियों को नाचते देखा है
पुरुष जब खुश होता है तो वह ठहाके लगाता है
और ठहाके तो वह अपनी मूर्खताओं पर भी लगा लेती है
कोलकाता से ही इंडिया इनसाइड के पत्रकार एकलव्य केसरी ने मज़दूरों की विवशता को अपनी कविता के माध्यम से बयान किया:
सर पर धरकर बोरा बिस्तर
मजदूर सड़क पर आता है
न पैरों में जूते-चप्पल
फिर भी मीलों चल जाता है।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे दिल्ली के पत्रकार चैतन्य चंदन ने अपनी ग़ज़ल के माध्यम से लोगों की भूलने की आदत को रेखांकित किया:
इबादत में जो सर अपना झुकाना भूल जाते हैं
वो रिश्तों को अकीदत से निभाना भूल जाते हैं
सियासी खेल में बन जाते हैं मोहरे जो सत्ता के
वो फैलाते हैं बस नफ़रत, हँसाना भूल जाते हैं
कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विन्यास साहित्य मंच के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ कवि घनश्याम ने अपनी ग़ज़ल के माध्यम से अपनी व्यथा सुनाई:
अलग तुमसे नहीं मेरी कथा है
तुम्हारी ही व्यथा मेरी व्यथा है
ये गूंगे और बहरों का नगर है
किसी से कुछ यहां कहना वृथा है