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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रवक्ता डॉट काम के चार साल पर कुछ यों मिले वेब संपादक

नई दिल्ली । आखिरी बार कब इस तरह से दो चार नेटीजन मित्रों से मुलाकात हुई थी, याद नहीं है. इस बार संजीव सिन्हा का फोन आया कि प्रवक्ता के चार साल पूरे हो रहे हैं इस मौके पर हम लोग कांस्टीट्यूशन क्लब में मिलना चाहते हैं. आप आइये. फिर एसएमएस भी आया. फिर फिर फोन भी आया. संजीव सिन्हा भाजपा के कमल संदेश में काम करते हैं और प्रवक्ता डॉट काम चलाते हैं. उसी प्रवक्ता डॉट काम के चार साल पूरे हो चले हैं इसलिए मंगलवार को चार छह लोगों को उन्होंने मिलने के लिए बुलावा भेज दिया था.

गोया चार पांच साल पहले खूब ब्लागर मीट हुआ करती थी. जिसका जो ब्लाग वही उसकी पहचान. कभी मैथिली जी के दफ्तर में तो कभी सीएसडीएस के हाल में. कभी इस पंथ के पथिक तो कभी उस पंथ के पथिक. भले ही कोई गैर ब्लागर उन ब्लागर मीट की बहस के मुद्दों पर मुस्कुराकर आगे बढ़ जाए लेकिन मीट में यही विषय बामुलाहिजा होशियार कर देनेवाले होते थे. जैसे, कमेन्ट में मॉडरेशन होना चाहिए या नहीं होना. मोहल्ला वाले अविनाश दास अक्सर लोगों को उदास करते रहते थे. इसलिए ऐसी मीटिंगों में कमेन्ट मॉडरेशन तक पर ऐसी तीखी झड़प हो जाती थी जैसी परमाणु समझौते पर सहमति के वक्त संसद में हुई थी.

लेकिन कोई आधा दशक भी न बीता कि ब्लाग ही फुर्र हो गये. जब ब्लाग ही दोयम दर्जे के रिकार्ड बन गये तो ब्लागर मीट का सिलसिला भी थम गया. अब तो फेसबुक है. एक दूसरे के आमने सामने बैठकर जान लेते हैं. किसी से मेल मुलाकात करके जानने समझने की न जरूरत बची है और न फुर्सत. लेकिन उस ब्लाग युग में जो लोग डोमेनवाले हो गये थे उनकी एक अलग जमात खड़ी हो गई. वे साइट संचालक हो गये. वे फेसबुकिया समाज की तरह सिर्फ निजता के परिवेश में सक्रिय रहकर टाइमपास नहीं कर सकते थे. जो डोमेनवाले दरवेश पैदा हुए वे सिर्फ फेसबुक पर फेस दिखाकर संतुष्ट नहीं हो सकते थे.

इंटरनेट के विस्तार ने सीधे तौर पर दो वर्ग पैदा कर दिये हैं. एक वह जिसका इस्तेमाल इंटरनेट कर रहा है और दूसरे वह जो इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह फेसबुकिया समाज इंटरनेट के द्वारा इस्तेमाल किया जानेवाला समाज है. जब 2008 में मैंने खुद फेसबुक एकाउण्ट क्रियेट किया था तब कम ही लोग थे जो ब्लागर छोड़कर फेसबुक की ओर आना चाहते थे. नेटीजन ब्लागरस में इतने मदमस्त थे कि फेसबुक कोई फेक टाइप का काम लगता था. लेकिन जब फेसबुक से गूगल भी डरने लगा तो हमारे हिन्दीसेवी नेजीजनों को लगा कि निश्चित रूप से इसमें कोई बात है नहीं है तो गूगल क्यों डरने लगता. तो देखिए, कमोबेश वे सारे ब्लागर भरभराकर फेसबुक पर गिर पड़े जो कभी ब्लाग वीर हुआ करते थे. लंबे लंबे आर्टिकल लिखकर बोर हो चुके ये ब्लागवीर अब छोटी छोटी उक्तियां कहकर लाइक बटोरने में व्यस्त हो गये. ब्लाग दौर के महान टिप्पणीकार समीर लाल की उड़नतश्तरी अब फेसबुक पर मंडराती है और लाइक लेने देने का कारोबार करती है.

इन ब्लागवीरों द्वारा फेसबुक पलायन का जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अपनी हिन्दी पट्टी के लिए इसी संदर्भ में नेटक्रांति को देखा समझा जा सकता है. यानी शोहदों का एक निठल्ला वर्ग तब भी था और अब भी है. शोहदों का यह निठल्ला वर्ग अपनी पहुंच तो बढ़ाना चाहता है लेकिन अपने इस विस्तार के लिए अपनी ओर से कुछ देना नहीं चाहता है. अगर कोई ब्लागर मुफ्त का सबडोमेन देकर सर्वर पर जगह दे देता है तो हमारी हिन्दी पट्टी दिन रात अपना समय निवेश करके आधुनिकता के साथ तालमेल करने के लिए तैयार है. कीमत के रूप में हर चार रूपये के ऐवज में चार साल का समय आसानी से चुका सकते हैं. यह हमारी मानसिकता है जिसे हमसे कोई अलग नहीं कर सकता. ये जो फेसबुक जमात है इस जमात में ऐसे लोगों की भरमार है. वे इंटरनेट पर हैं लेकिन उनका होना उनके अपने लिए भी सिर्फ टाइमपास करने के अलावा कुछ नहीं है. ऐसे में मन में बार बार यह सवाल तो आता ही है कि क्या नेट क्रांति अमेरिका की जमीन से शुरू होकर अमेरिका के मैदान में ही खड़ी रह जाएगी?

ये जो डोमेनवाले लोग हैं वे इसमें आंशिक बदलाव लाते हैं. इंटरनेट की जो मौजूदा राजनीति उभरकर सामने आई है उसमें सूचनाओं का संग्रह और उस पर होनेवाले अधिकार की डाटा पालिटिक्स बहुत महत्वपूर्ण है. अगर दुनिया के एक अरब लोग फेसबुक पर मौजूद हैं तो दुनिया के उन एक अरब लोगों की नई दुनिया बनती है उस पर फेसबुक नेशन की ही नीयत काम करती है. हालांकि अभी स्पष्टतौर पर ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसे खतरे की घंटी मान लिया जाए लेकिन डॉटा पालिटिक्स के तहत अब वह लड़ॉई जल्द शुरू होगी जहां मेरा ग्राहक तेरा ग्राहक का झगड़ा किसी बीमा एजंट के झगड़े से ज्यादा भयावह होगा. अब ऐसे में हम डोमेनवाले यह तो नहीं कह सकते कि हम फेसबुक हो जाएंगे या फिर कोई देशी गूगल खड़ा कर देंगे. लेकिन ये डोमेनवाले उन शोहदों और निठल्लों से ज्यादा आगे जरूर खड़े नजर आते हैं जो दिन रात फेसबुक पर बैठे बैठे लाइक खोजते रहते हैं.

संजीव सिन्हा के निमंत्रण पर जो लोग इकट्ठा हुए थे वे यही डोमेनवाले लोग ही थे. अब इन डोमेनवालों की क्या हैसियत है यह किसी से छिपी नहीं है. एक राकेश डुमरा न जाने कितनी साइटें चलाते हैं. किस किस का सर्वर मेन्टेन करते हैं और बदले में हजार दो हजार का कारोबार कर लेते हैं. राकेश डुमरा की तुलना में भारत भूषण ज्यादा बुद्धिमान नजर आते हैं तो प्रवक्ता भी बनाते हैं और लीगल इंडिया भी चलाते हैं. जब हम इस डोमेवालों की संगति में पहुंचे तो भारत भूषण धारा प्रवाह तकनीकि और बाजार को समझा रहे थे. उनकी बातों में कोई निराशा नहीं थी. उनके शरीर पर भी निराशा के कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे. अच्छे खासे भरे पुरे लग रहे थे. यशवंत सिंह और अमलेन्दु की कहानी दो पटरियों पर दौड़नेवाली कहानी है. यशवंत सिंह ही एक ऐसे व्यक्ति नजर आते हैं जो डोमेनवालों के बीच तरक्कीवाले आदमी बने हैं. लेकिन तरक्की भी कैसी? जरा सा आगे बढ़े तो दरवाजा स्वर्ग में खुलने की बजाय डासना जेल का दरवाजा खुल गया. फिर भी लौटकर आने के बाद वे अतीत से बहुत ग्रस्त दिखाई नहीं देते और उनका भड़ास भी भड़भड़ाकर चलने ही लगा है. अमलेन्दु की कहानी तो अभी शुरू होनी है. इंजीनियरिंग करके पत्रकारिता करनेवाले अमलेन्दु उपाध्याय अभी तक कोई ऐसी तकनीकि इजाद नहीं कर पाये हैं कि वेब सेवा से रोजी रोटी चल जाए और उनका हस्तक्षेप कायम रहे. बाकी बचे जनोक्ति के जयराम विप्लव या प्रवक्ता के संपादक संजीव सिन्हा तो इनको भाजपा के साथ मिलजुकर आगे इसी तरह काम करते रहना है.

इसलिए इस तरह की पहली मीटिंग में अगर धन धंधे की बात हो तो कोई आश्चर्य नहीं. लेकिन इन वेबसाइटों को धन दे कौन? गूगलवाला तो कुछ देता नहीं है सिर्फ उल्लू बनाता है. भारत भूषण की मानें तो उल्लू बनानेवाला यह काम बाकी की आनलाइन एजंसियां भी बखूबी करती हैं. निजी विज्ञापनदाता इन डोमेनवालों को घास नहीं डालते. सरकारी विज्ञापन के लिए जो नियम कानून बनाये गये हैं उसे ये डोमेनवाले पूरा नहीं करते. जब सब ओर कुछ न कुछ कमी है तो फिर इनका पेट कैसे भरेगा? भारत में प्रतिभाओं की कमी हो, ऐसी बात नहीं है. लेकिन अपने यहां प्रतिभाएं पेट की आग में झुलसकर मर जाया करती है और श्रद्धांजलि सभा आयोजित करने में महारत रखनेवाला हमारा समाज ऐसे मृत आत्माओं के लिए शांति पाठ करने में तनिक भी देर नहीं लगाता है. फिर एक मुश्किल और है. अगर किसी के संपर्क में कहीं कोई विज्ञापन है तो वह खुद अपनी साइट बनाकर हड़प जाता है, डोमेनवाला तड़पकर रह जाता है. ऐसे मामलों में एक सीधा सा सिद्धांत काम करता है कि अगर मैं संपर्क से ही विज्ञापन दिलाउंगा तो आपको क्यों दिलाऊंगा? खुद नहीं खा जाऊंगा. ऐसे लोगों के पास भले ही दिखाने के लिए कुछ भी न हो लेकिन खाने के एक ऐसा पेट है जो कभी भरता नहीं है. और सचमुच वे खा भी रहे हैं.

तो फिर, इंटरनेट के सीने पर ये जो दो चार दर्जन न्यूज व्यूज वाली वेबसाइटें उभर आई हैं जिनका दर्जा न तो बड़ी साइट का है और न ही वे छोटी रह गई हैं, उनका गुजारा कैसे हो? संजीव सिन्हा के मन में एक प्रस्ताव था कि कोई वेब संगठन टाइप का कुछ होना चाहिए. और उन्होंने संगठन टाइप का कुछ बना भी लिया. सभी लोग उसमें शामिल होने के लिए सहमत भी हो गये. कुछ और लोग भविष्य में उसमें शामिल हो भी जाएंगे. लेकिन मूल सवाल जहां था वहीं खड़ा है कि सिर के सामने लटकी गाजर देखकर खरगोश कब तक दौड़ लगाता रहेगा, यह जानते हुए कि जिस डंडे से इस गाजर को बांधा गया है वह उसके सिर पर ही रखा है. इसलिए जितना वह दौड़ेगा गाजर समान रूप से उतना दूर ही बना रहेगा.

फिर भी, लंबे वक्त के बाद कुछ मीत मिले और एक मीट हुई. यह मीट क्योंकि ब्लागर मीट नहीं थी इसलिए यहां का मुद्दा भावनात्मक नहीं बल्कि व्यावहारिक था. अब हमने टिप्पणियों पर टिप्पणियां नहीं की बल्कि यह विचार किया कि दौड़ में बने रहने के लिए क्या किया जाए? हमारी ईर्श्या, द्वेष, विद्वेष यह सब तो बना रहेगा फिर भी आगे कुछ और मीट होगी और उम्मीद करनी चाहिए कि जो मीत मिले हैं न सिर्फ वे मीत बने रहेंगे, बल्कि इस मंडली में नित नये मीत भी जोड़ते चले जाएंगे. घोर अभाव और निरशा के बीच चनत्कार की चाहत में काठ का घोड़ा दौड़ानेवाले डोमेनवालों का आत्मबल बनाये रखने के लिए यही बहुत बड़ा सहारा होगा.( विस्फोट.काम से साभार )

http://visfot.com/index.php/samvad/7484-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B-%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A4-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%87-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%9F-%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88.html

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सम्पादक

डॉ. लीना