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प्रतिरोध का सिनेमा : दूसरे दिन की शुरुआत ‘कक्कूस’ से

 ‘कक्कूस’, सफाईकर्मियों की जानलेवा-भेदभावपूर्ण कार्यस्थितियों की हकीकत ने दर्शकों को मर्माहत किया। भारतीय समाज के अमानवीय सच से रूबरू हुए दर्शक सरकार और पुलिस का दमन झेलते हुए दिव्या भारती ने बनाई है ‘कक्कूस’

पटना / ब्यूरो रिपोर्ट / 9वां प्रतिरोध का सिनेमा : पटना फिल्मोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत दिव्या भारती की चर्चित फिल्म ‘कक्कूस’ से हुई । ‘कक्कूस’ का मतलब टायलेट’ होता है। स्वच्छता अभियान के महिमामंडन में सरकार द्वारा करोड़ों रुपये बहाए जा रहे हैं, उसके विपरीत सफाईकर्मी, जो प्रायः दलित समुदाय के होते हैं, उन्हें किन जानलेवा, अपमानजनक और भेदभावपूर्ण कार्यस्थितियों में काम करना पड़ता है, इस फिल्म ने उसे दर्शाया। देश में मैला ढोने की प्रथा गैरकानूनी हो चुकी है लेकिन आज भी हजारों-लाखों मजदूर मेनहोल में उतरते और हमारी विष्ठा और अन्य जहरीले स्रावों को अपने हाथ से साफ करते हैं। यह सिर्फ शर्मिंदगी का बायस ही नहीं है, उनके जीवन के लिए खतरनाक भी है। सफाई कर्मचारियों की यूनियन की मानें तो 1300 से ज्यादा मजदूर इन मौत के कुओं में अपनी जान गंवा चुके हैं।

फिल्म दिखाती है कि न उनकी सुरक्षा का इंतजाम है, न ही उचित और समय पर वेतन मिलता है। सुरक्षा के अभाव में सफाईकर्मियों की मौत हो जाती है, वाजिब मुआवजे के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इस फिल्म ने दर्शकों को यह सोचने के बाध्य किया कि अपने आसपास मौजूद ऐसी अमानवीय परिस्थितियों से वे क्यों बेखबर रहते हैं। फिल्म के एक गीत में सवाल उभरता है कि जानवर भी दूसरे जानवरों का मल साफ नहीं करते, फिर मनुष्यों के बीच यह प्रचलन क्यों है? दर्शकों के भीतर यह स्वाभाविक सवाल भी पैदा हुआ कि इस फिल्म से सरकार-प्रशासन की नींद क्यों उड़ गई, क्यों इसके प्रदर्शन को रोकने के लिए उनकी ओर से हरसंभव कोशिश की गई। इस फिल्म ने हमारी सरकारों, प्रशासन और समाज की संवेदनहीनता पर गहरे प्रहार किए।

फिल्म का परिचय प्रो. भारती एस. कुमार ने दिया। फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने इस फिल्म के निर्माण के बारे में निर्देशक दिव्या भारती से कई सवाल किए। दिव्या ने बताया जो फिल्म विदेशों में दिखाई जा रही है उस पर तमिलनाडु में अनआफिसियल प्रतिबंध है। मैला ढोने वालों और सफाईकर्मियों की जिंदगी पर फिल्म बनाने के कारण  जाति-धर्म के आधार पर शत्रुता फैलाने का आरोप भी फिल्मकार पर लगाया गया। दिव्या भारती  ने कहा कि  प्रतिरोध ही रास्ता है, उसी रास्ते पर चल रही हूं।  

‘कक्कूस’ की फिल्म निर्देशक दिव्या भारती ने कहा कि स्कूल के दिनों से ही उनका सांस्कृतिक गतिविधियों और छात्र-आंदोलनों से जुड़ाव था । उन्होंने बताया कि अक्टूबर 2015 में दो सफाई कर्मचारियों की मौत के बाद उन्होंने उनकी समस्या पर फिल्म बनाने का फैसला किया। उन्होंने बताया कि मैला साफ करने वालों के साथ तमिलनाडु में भेदभाव होता है। एक व्यक्ति मरा तो शवगृह के फ्रीजर से उसकी लाश को बाहर करके बरामदे में फेंक दिया गया था। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि महिला सशक्तीकरण की क्या स्थिति है, यह ‘कक्कूस’ को देखकर भी समझा जा सकता है। 90 प्रतिशत सफाई कर्मचारी महिलाएं हैं। वही इस फिल्म में लगातार अपने अधिकार के लिए लड़ती हैं। उन्होंने कहा कि खुद सरकार के आंकड़ें इसका पोल खोल देते हैं कि महिलाओं की स्थिति पूरे देश में बेहतर नहीं है। 

दिव्या ने बताया कि ‘कक्कूस’ बेल्जियम, कनाडा, आस्ट्रेलिया, कैलिफार्निया, श्रीलंका आदि में 50 जगहों पर दिखाई जा चुकी है, लेकिन मदुरै और तमिलनाडु में उसे दिखाने पर अनआफिसियल प्रतिबंध है। स्थानीय पुलिस इस फिल्म को दिखाने पर प्रोजेक्टर जब्त कर लेती है। दिव्या ने बताया कि उन पर आरोप लगाया गया है कि वे इस फिल्म के जरिए धर्म और जाति के आधार पर शत्रुता पैदा कर रही हैं। शांति भंग कर रही हैं। राज्य के खिलाफ विद्रोह भड़का रही हैं। उन पर साइबर आतंकवादी होने का भी आरोप लगाया गया है।

तमिलनाडु हाईकोर्ट ने वकालत करने का उनका लाइसेंस रद्द कर दिया है, सिर्फ इस कारण कि उन्होंने स्वच्छता के काम से जुड़े लोगों के वास्तविक समस्याओं पर एक ऐसी फिल्म बनाई है, जो व्यवस्था का पर्दाफाश करती है। उन्होंने कहा कि मैला ढोने वालों या सफाई करने वालों के लिए कानून है, पर उसका इस्तेमाल नहीं होता। उन्होंने कहा कि उनके सामने प्रतिरोध ही एक रास्ता है, वह उसी रास्ते पर चल रही हैं। उन्होंने बताया कि डाक्यूमेंटरी के क्षेत्र में आनंद पटवर्धन उनके प्रेरणास्रोत हैं। दिव्या के अनुसार उनकी अगली फिल्म उन दलितों पर केंद्रित होगी, जिनकी बस्तियों को बिना नोटिस दिए उजाड़ दिया जाता है। 

सतह से उठता आदमी: प्रख्यात कवि मुक्तिबोध को जानने-समझने का सूत्र

दूसरी फिल्म, कला फिल्मों के चर्चित निर्देशक मणि कौल की ‘सतह से उठता आदमी’ फिल्म हिंदी के प्रख्यात कवि मुक्तिबोध पर केंद्रित थी। इसका परिचय देते हुए गजलकार डा. विनय कुमार ने कहा कि यह अद्भुत फिल्म है, जो मुक्तिबोध की रचनाओं के जरिए उनके विचार और व्यक्तित्व को जानने-समझने का मौका देती है। मुक्तिबोध रचना प्रक्रिया के और यात्रा के कवि है। इस फिल्म में मुक्तिबोध की अंधेरे में, पंक्षी और दीमक आदि कुछ चर्चित कविताओं, लेख और कहानी का उपयोग किया गया है। हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी धारा के इस बेहद महत्वपूर्ण साहित्यकार की वैचारिकी, उनके आत्मसंघर्ष, उनकी आलोचना-दृष्टि और उनके सपनों को जानने-समझने का सूत्र इस फिल्म के जरिए मिला।    

एक शहर की यादें: एक प्रयोगधर्मी प्रयास

पटना फिल्मोत्सव की कोशिश रहती है कि इसमें स्थानीय युवा फिल्मकारों की भी फिल्में दिखाई जाएं। इसी के तहतह आज ‘एक शहर की यादें’ नाम की छोटी-सी फिल्म दिखाई गई। यह फिल्म अभिव्यक्ति के आधुनिक तकनीक और विधाओं में पारंगत कुछ युवा कवियों और लेखकों की निरंतर प्रयोगधर्मी कोशिशों का परिणाम है। ‘एक शहर की यादें’ के बारे में इसके नौजवान निर्देशक उत्कर्ष का कहना है कि मोशन पोयम्स सिनेमा की एक नयी विधा है जो कामनप्लेस द्वारा इजाद की गयी है। लगभग आधे घंटे की इस फिल्म में पुराने शहर की गहन स्मृतियों और उसके छूटने से पनपे अवसाद को महसूस किया जा सकता है। हमारे वत्र्तमान में ऐसा क्यों है, जो हमारे नौजवानों को अतीत की यादों और उससे पैदा अवसाद की दुनिया में ले जा रहा है, इसके बारे में यह फिल्म सोचने को विवश करती है।  

सोज: संघर्ष और संगीत का सहअस्तित्व

कभी भी एक फिल्म ने कला और संगीत के माध्यम से कश्मीर के संघर्ष का अध्ययन नहीं किया है। युवा फिल्मकार तुषार माधव और सार्वनिक कौर की यह डाक्यूमेंटरी फिल्म इस मामले में बड़ी ही दिलचस्प है कि इसने कश्मीर के संघर्ष और संगीत दोनों के संबंधों और सहअस्तित्व को पकड़ा। 

यह कश्मीर में जनता के आंदोलन को सांप्रदायिक नजरिये से देखने के बजाए वहां के लोककलाओं और संगीत की बेमिसाल परंपरा से गुजरते हुए देखती है। इस निगाह से कश्मीर को ऐतिहासिक रूप से समझने की कोशिश दर्शकों के लिए नई थी। कश्मीर में जनता के आंदोलन को सांप्रदायिक नजरिये से देखने का जो आम रवैया है, उसके विपरीत इसने कश्मीर की लोककलाओं और संगीत को बेमिसाल परंपरा से दर्शकों का साक्षात्कार कराया।  कश्मीर को कला और संगीत के माध्यम से देखने का यह रास्ता कश्मीर को ऐतिहासिक रूप से समझने का एक शानदार तरीका इस फिल्म ने दर्शकों को दिया। फिल्मकारों ने इस फिल्म को दिसंबर 2013 में बनाना शुरू किया था, जब उन्हें पता चला कि सीआरपीएफ द्वारा दो दशकों से वहां म्यूजिक बैंड्स का कन्सर्ट आयोजित किया जाता है, जिसमें हिपहाप से लेकर सूफी राक संगीत की प्रस्तुतियां होती हैं, जिनके उद्भव के बारे में जानने के लिए वे खुद ही उत्सुक थे। फिल्मकारों के लिए संगीत के साथ राजनीति की संलग्नता का यह एकदम प्रारंभिक बिंदु बन गया। फिल्म यह संदेश देती है कि ‘सभी संघर्षों का विरोध नहीं किया जा सकता।’ 

पटना फिल्मोत्सव में अभिनेता, निर्देशक और फिल्म निर्माता शशि कपूर को श्रद्धांजलि दी गई

प्रतिरोध का सिनेमा : पटना फिल्मोत्सव के दूसरे दिन आज मशहूर अभिनेता, निर्देशक और फिल्म निर्माता शशि कपूर के निधन की सूचना मिलते ही आयोजकों और दर्शकों के बीच शोक की लहर दौड़ गई। फिल्मोत्सव में एक मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। कल फिल्मोत्सव के आखिरी दिन साढ़े तीन बजे शशि कपूर की स्मृति में फिल्म ‘न्यू देहली टाइम्स’ दिखाई जाएगी, जिसमें उन्होंने अभिनय किया है। 

पटना फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके निधन को भारतीय सिनेमा के लिए अपूरणीय क्षति बताया गया है। शशि कपूर कन्यादान, प्यार का मौसम, जब जब फूल खिले, आ गले लग जा, शर्मीली, चोर मचाये शोर, कभी कभी, फकीरा, त्रिशूल, शान, सिलसिला, दीवार, काला पत्थर, जैसी लोकप्रिय हिंदी फिल्मों में तो अभिनय किया ही,  उन्होंने अर्पणा सेन निर्देशित 36 चैरंगी लेन, गोविंद निहलानी निर्देशित विजेता, गिरिश कर्नाड निर्देशित उत्सव, श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित कलयुग, खुद द्वारा निर्देशित जुनून जैसी गंभीर फिल्मों को प्रोड्यूस भी किया। वे एक लोकप्रिय रोमांटिक अभिनेता के साथ-साथ अपने समय और समाज के प्रति बेहद जिम्मेवार नागरिक थे। सांप्रदायिक सौहार्द और खाने-पीने, अपने ढंग से जीने की आजादी पर जो हमले देश में हो रहे थे, उसको लेकर वे बेहद चिंतित रहते थे। उन्होंने इसके विरुद्ध बयान भी दिए थे।  

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सम्पादक

डॉ. लीना