
मुंबई। फिल्म के पत्रकार फ़िल्मी सितारों से सवाल करते हैं और वे उनका जबाव देते हैं. लेकिन मुबई प्रेस क्लब में 'फिल्म पत्रकारिता या पीआर पत्रकारिता' पर परिचर्चा के दौरान मामला उलटा था. फ़िल्मी दुनिया की खबर पहुँचाने वाले पत्रकार वक्ता के रूप में थे. उनसे सवाल पूछे जा रहे थे और बीच में कोई पीआरओ नहीं था. गरमागरम बहस हुई और कुछ स्वीकारोक्तियां भी. फिल्म पत्रकारों ने अपना पक्ष भी रखा और बॉलीवुड, पीआर और फिल्म पत्रकारिता के बीच के संबंध और मजबूरियों पर बेबाकी से बातचीत भी की.
दैनिक
जागरण के मुंबई ब्यूरो प्रमुख और वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने
पहले वक्ता के रूप में परिचर्चा की शुरुआत करते हुए फिल्म पत्रकारिता के
लिए पीआर पत्रकारिता जैसे शब्द पर ऐतराज जताते हुए कहा कि इस
विषय पर पहली बार चर्चा हो रही है और फिल्म पत्रकारिता के लिए पीआर
पत्रकारिता जैसे शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन सोशल मीडिया के ज़माने
में फ़िल्मी सितारों को किसी पीआर की जरूरत नहीं. वे अपनी बात ट्विट्टर -
फेसबुक के माध्यम से कह देते हैं. इस लिहाज से फिल्म पत्रकारों की भूमिका
सिमट रही है और उन्हें किसी पीआरओ की जरूरत नहीं. स्टार्स अलग - अलग माध्यम
से पाठकों - दर्शकों से सीधे बातचीत कर रहे हैं. सोशल नेटवर्किंग साईट के
अलावा अख़बारों के संपादक बनकर और न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम में पहुंचकर
वे अपनी बात टार्गेट सिनेप्रेमियों तक पहुंचा रहे हैं. पीआर जर्नलिज्म का
जहाँ तक सवाल है तो यह कोई नयी बात नहीं. कई साल से पीआर जर्नलिज्म चल रहा
है. वैसे यह पीआर जर्नलिज्म तो पॉलिटिकल
जर्नलिज्म में भी चल रहा है. लेकिन उसपर इस तरह से सवाल नहीं खड़े किए
जाते. लेकिन आमिर खां पत्रकारों को बुलाकर इंटरव्यू देते हैं तो उसे पीआर
करार दिया जाता है.

लेकिन
बॉलीवुड हंगामा के पत्रकार 'फरीदून' ने फिल्म पत्रकारों पर पीआर
पत्रकारिता करने के आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा कि यदि ऐसा होता है तो
आरोप लगाने वालों को उसका प्रूफ भी देना चाहिए. फिल्म
पत्रकारिता में आजकल क्रिटिक को पसंद नहीं किया जाता. कई बार धमकी भी
मिलती है कि आप ज्यादा क्रिटीसाइज करेंगे तो आपको बुलाएँगे ही नहीं. फिल्म
पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्ति आती है ,उसे छापा भी जाता है और उसमें कोई
बुराई भी नहीं. लेकिन उस
में पत्रकार का अपना ओपिनियन भी होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता तो उसे पीआर पत्रकारिता कह सकते हैं.
एनडीटीवी इंडिया के 'इकबाल परवेज' ने कुछ हटकर बोलते हुए कहा कि सलमान
खान तीन घंटे देर से प्रेस कॉन्फ्रेंस में आते हैं. पत्रकार नाराज़ होते
हैं तो सलमान कहते हैं कि किसने कहा कि मेरा इंतजार कीजिये और उसके बाद भी
पत्रकार उनका इंटरव्यू लेते हैं. ऐसे में पत्रकार और निरीह होते हैं और
पीआर की भूमिका बढ़ जाती है. फ़िल्मी
सितारे देर से आयेंगे और पत्रकार उनका इंतज़ार करेंगे. फ़िल्मी पत्रकारों की
यही नियति है. प्रतिरोध नहीं करने का खामियाजा तो उठाना ही पड़ेगा. पीआर को
हावी होना ही है.
टीवी9 के इंटरटेनमेंट हेड पंकज शुक्ला ने सोशल नेटवर्किंग साईट के माध्यम से अपनी बात रखते हुए कहा कि फिल्म
पत्रकारिता और पीआर में बहुत बारीक अंतर है. तमाम फिल्म पत्रकार नौकरी
करते हुए भी पेड पीआरओ का काम करते रहे हैं, वहीं तमाम फिल्म पत्रकार ऐसे
भी रहे हैं जिन्होंने ऐसा मौका सामने आने पर पहले पत्रकारिता छोड़ी फिर
पीआरओ बने. कुछ फिल्म पत्रकार ऐसे भी हैं जिनका बतौर पेड पीआर एकमात्र काम
अपने परिचित फिल्मकारों के आसपास चाटुकारों की फौज जमा करना है. मेरा
तो मानना है कि फिल्म समीक्षाएं जब से फिल्म की मार्केटिंग का हिस्सा बनी
हैं, इनकी सामयिकता करीब करीब खत्म हो गई है. अगर किसी समीक्षक को इस बात
पर गर्व होता है कि शनिवार या रविवार के फिल्म विज्ञापन में उसके दिए
स्टार्स का ज़िक्र हुआ तो ये सोचने वाली बात है कि क्या सिर्फ इस विज्ञापन
में अपना नाम देखने के लिए स्टार्स तो नहीं दिए जा रहे.
मिला-जुलाकर
चर्चा जीवंत रही. एक अनछुए विषय पर चर्चा हुई और फिल्म के पत्रकार खुल कर
बोले. यह परिचर्चा मीडिया खबर.कॉम द्वारा प्रेस क्लब ऑफ़ मुंबई में आयोजित
किया गया था.
मुंबई से संगीता ठाकुर की रिपोर्ट
