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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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भारतीय भाषाओं के बीच अंतर-संवाद में रुकावट का कारण अंग्रेजी

भारतीय जन संचार संस्‍थान में  ‘भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद’ विषय पर वेबिनार

नई दिल्‍ली/ ’’भाषा का संबंध इतिहास, संस्‍कृति और परम्‍पराओं से है। भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की परम्‍परा पुरानी है और ऐसा सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा है, यह उस दौर में भी हो रहा था, जब वर्तमान समय में प्रचलित भाषाएं अपने बेहद मूल रूप में थीं। श्रीमद् भगवत गीता में समाहित श्रीकृष्‍ण का संदेश दुनिया के कोने-कोने में केवल अनेक भाषाओं में हुए उसके अनुवाद की बदौलत ही पहुंचा। उन दिनों अंतर-संवाद की भाषा संस्‍कृत थी, तो अब यह जिम्‍मेदारी हिंदी की है।‘’ यह विचार वरिष्‍ठ पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय,भोपाल के पूर्व कुलपति श्री अच्‍युतानंद मिश्र ने भारतीय जन संचार संस्‍थान (आईआईएमसी) में 14 सितम्बर को हिंदी पखवाड़े के शुभारंभ के अवसर पर ‘भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद’ विषय पर आयोजित वेबिनार में व्‍यक्‍त किए।

भारतीय भाषाओं के बीच अंतर-संवाद में रुकावट का कारण अंग्रेजी : श्री अच्‍युतानंद मिश्र

श्री मिश्र ने कहा कि भारतीय भाषाओं के बीच अंतर-संवाद में रुकावट अंग्रेजी के कारण आई और इसकी वजह हम भारतीय ही थे, जिन्‍होंने हिंदी या अन्‍य भारतीय भाषाओं के स्‍थान पर अंग्रेजी को अंतर-संवाद का माध्‍यम बना लिया। उन्‍होंने कहा कि हिंदी के विद्वानों, पत्रकारों और संस्‍थाओं को इस दिशा में कार्य करना चाहिए था लेकिन उन्‍होंने यह जिम्‍मेदारी नहीं निभाई। उन्‍होंने कहा कि जब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ अभियान शुरु किया, तो उसका आशय ‘हिंदी लाओ’ कतई नहीं था, लेकिन दुर्भाग्‍यवश ऐसा प्रचारित किया गया। इससे राज्‍यों के मन में भ्रांति फैली। इसका निराकरण हिंदी के विद्वानों, पत्रकारों और संस्‍थाओं  को करना चाहिए था। श्री मिश्र ने कहा कि अन्‍य भारतीय भाषाओं के हिंदी के करीब आने का कारण मनोरंजन, पर्यटन और प्रकाशन क्षेत्र है। हिंदी की लोकप्रियता का श्रेय हिंदी के बुद्धिजीवियों को नहीं अपितु इन क्षेत्रों को दिया जाना चाहिए।

उन्‍होंने कहा कि वर्तमान सरकार द्वारा घोषित राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति को देखते हुए उससे कुछ अपेक्षाएं हैं। इसमें मातृभाषा में शिक्षा और भारतीय भाषाओं के प्रोत्‍साहन की बात हो रही है, अनुवाद की बात हो रही है ऐसे में हिंदी से जुड़ी संस्‍थाएं यदि पहल करें तो हिंदी परस्‍पर आदान-प्रदान का व्‍यापक माध्‍यम बन सकती है।

जहां भाषा खत्‍म होती है, वहां संस्‍कृति भी दम तोड़ देती है : सुश्री अद्वैता काला  

मुख्‍य वक्‍ता एवं पटकथा लेखक एवं स्‍तम्‍भकार सुश्री अद्वैता काला ने अपने संबोधन में कहा कि जहां भाषा खत्‍म होती है, वहां संस्‍कृति भी उसके साथ दम तोड़ देती है। हमें सभी भाषाओं को महत्‍व देना चाहिए, उन्‍हें समझना चाहिए और उनका सम्‍पर्क का माध्‍यम हिंदी है, इसे स्‍वीकार करना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि वैसे भाषा बहुत निजी मामला है। इसके माध्‍यम से हम केवल दुनिया से ही नहीं बल्कि स्‍वयं से भी संवाद करते हैं।

हिंदी की स्थिति की चर्चा करते हुए उन्‍होंने कहा कि फिल्‍मों की पटकथा और संवाद रोमन में लिखे जाते हैं, क्‍योंकि लोग हिंदी की लिपि नहीं पढ़ पाते, जबकि हिंदी मीडिया की पहुंच बहुत व्‍यापक है ।  सुश्री काला ने बताया कि उनकी खुद की हिंदी भी हिंदी में लेखन से जुड़ने के बाद ही बेहतर हुई और उन्‍हें लगता है कि शिक्षा प्रणाली यदि सही रही होती, ऐसा नहीं होता। उनका सुझाव है कि बच्‍चों को अंग्रेजी और हिंदी के साथ-साथ कोई न कोई क्षेत्रीय भाषा भी पढ़ाई जानी चाहिए।

भाषाओं में अंतर-संवाद कोई नई बात नहीं : श्री मुकेश शाह

गुजराती भाषा के ‘साप्‍ताहिक साधना’ के प्रबंध सम्‍पादक श्री मुकेश शाह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि शब्‍दों को हमने ब्रह्म माना है और भाषाओं में अंतर-संवाद कोई नई बात नहीं है। उन्‍होंने महात्‍मा गांधी का उदाहरण देते हुए कहा कि बापू ने अंग्रेजी में ‘हरिजन’ प्रकाशित किया, लेकिन उसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्‍होंने उसे गुजराती और हिंदी में भी स्‍थापित किया। उन्‍होंने गुजराती में 70 पुस्‍तकों की रचना करने वाले फादर वॉलेस और गुजरात में विद्यालय, महाविद्यालय और विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना करने वाले सयाजीराव गायकवाड़ के योगदान का भी उल्‍लेख किया। उन्‍होंने कहा कि उत्‍तर-दक्षिण भारत की भाषाओं में व्‍यापक अंतर होने के बावजूद उनमें अंतर-संवाद और अनुवाद होता आया है। उन्‍होंने कहा कि भाषाओं का राष्‍ट्रीय चरित्र के निर्माण में योगदान होता है।

परस्‍पर आदान-प्रदान से ही भाषाएं समृद्ध होती हैं : श्री स्‍नेहशीष सुर

कोलकाता प्रेस क्‍लब के अध्‍यक्ष श्री स्‍नेहशीष सुर ने इस अवसर पर कहा कि हिंदी दिवस के अवसर पर भारतीय भाषाओं के बीच अंतर-संवाद विषय पर विमर्श का आयोजन करके भारतीय जन संचार संस्‍थान ने दर्शाया कि हिंदी दिवस केवल हिंदी के लिए नहीं है। सभी भाषाओं के बीच संवाद, सम्‍पर्क, उनके कल्‍याण तथा विकास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के पास बहुत विशाल विरासत और व्‍यवसायिक कौशल है लेकिन यह कौशल अंतर्राष्‍ट्रीय मानकों के अनुरूप होना चाहिए। समस्‍त भाषाएं आगे बढ़े और उनकी पत्रकारिता आगे बढ़े यह प्रयास होना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि हिंदी भारतीय भाषाओं के बीच सम्‍पर्क का माध्‍यम है, इसमें कोई दो राय नहीं है। बीतते समय के साथ हिंदी के साथ अन्‍य भाषाओं के लोगों की भी सहजता बढ़ी है और परस्‍पर आदान-प्रदान से दोनों ही भाषाएं समृद्ध होती हैं।

भाषा ही मेल-मिलाप कराती है : श्री अमीर अली खा

हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक ‘डेली सियासत’ के सम्‍पादक श्री अमीर अली खान ने इस अवसर पर कहा कि पाकिस्‍तान ने जब उर्दू को अपनी राजभाषा बनाया, तो यहां हिंदी और उर्दू में अंतर आ गया । श्री खान ने कहा कि भारत एक छोटे यूरोप की तरह है, इसके एक ही दिशा में नहीं ले जा सकते। यहां विविध भाषाएं हैं और भाषा ही मेल-मिलाप कराती है। उन्‍होंने कहा कि हिंदी की किताबों को उर्दू में अनुवाद कराया जाना चाहिए, लेकिन अन्‍य भाषाओं की पुस्‍तकें भी हिंदी में अनुवाद होनी चाहिए। इससे अंतर-संवाद को बढ़ावा मिलेगा। उन्‍होंने कहा कि अंतर संवाद को बढ़ावा देने में योगदान प्रदान कर हम खुद को गौरवांवित समझेंगे। 

समस्‍त भाषाएं, राष्‍ट्रीय भाषाएं हैं : प्रो. संजय द्विवेदी

इस विमर्श के अध्‍यक्ष एवं भारतीय जन संचार संस्‍थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने अपने अध्‍यक्षीय भाषण में कहा कि  सरकार की ओर से घोषित नई राष्‍ट्रीय नीति में सभी भारतीय भाषाओं को महत्‍व दिया गया है। हिंदी अकेली राष्‍ट्र भाषा नहीं है, क्‍योंकि समस्‍त भाषाएं इसी राष्‍ट्र के लोगों के द्वारा बोली जाती हैं, लिहाजा वे सभी राष्‍ट्रीय भाषाएं ही हैं। हर जगह सम्‍पर्क का माध्‍यम अंग्रेजी बन जाने से नुकसान पहुंचा है, क्‍योंकि बहुत कम लोग हैं, जो अंग्रेजी बोलते हैं। प्रो. द्विवेदी ने ऐसे अनेक विद्वानों का उल्‍लेख किया जिन्‍होंने  हिंदी और भाषायी पत्रकारिता में अभूतपूर्व योगदान दिया है। नई राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति की विशेषताएं गिनाते हुए उन्‍होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में अंतर संवाद से वे एक दूसरे के गुण अपनाएंगी और अंतत: सर्वव्‍यापी, सर्वग्राह्य बनेंगी। इससे भाषायी विद्वेष की भावना का अंत होगा, परम्‍पराओं का समन्‍वय होगा और सभी को सामाजिक न्‍याय तथा आर्थिक न्‍याय प्राप्‍त होगा।

उन्‍होंने कहा कि भाषायी विविधता और बहुभाषी समाज आज की आवश्‍यकता है और समस्‍त भाषाओं के लोगों ने ही विश्‍व में अपनी उपलब्धियों के पदचिन्‍ह छोड़े हैं। उन्‍होंने कहा कि भारत सदैव वसुधैव कुटुम्‍बकम की बात करता आया है और सभी भाषाओं को साथ लेकर चलने के पीछे भी यही भावना है।

भारतीय भाषाओं के बीच संवाद को व्‍यापक रूप से प्रोत्‍साहन दिया जाना चाहिए : प्रो. आनंद प्रधान

भारतीय जन संचार संस्‍थान के भारतीय भाषायी पत्रकारिता विभाग के प्रो. आनंद प्रधान ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि भारतीय भाषाओं के बीच संवाद को व्‍यापक रूप से प्रोत्‍साहन दिया जाना चाहिए। हिंदी दिवस के अवसर पर इस विषय पर विमर्श का आयोजन इस दिशा में काफी महत्‍वपूर्ण है। उन्‍होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में बीच संवाद सैंकड़ों वर्षों से जारी है और इनका विकास भी साथ-साथ ही हुआ है। मसलन बांग्‍ला और मैथिली में इतनी समानता है कि उनमें अंतर करना मुश्किल है, इसी तरह अवधी और ब्रज भाष तथा हिंदी और उर्दू में भी ऐसा ही है। इस संबंध में उन्‍होंने एक शोध का हवाला दिया। प्रो. प्रधान ने बताया कि हिंदी और उर्दू दैनिकों की भाषा पर हुए एक शोध में देखा गया कि उनमें केवल 23 प्रतिशत शब्‍द ही अलग थे। उन्‍होंने कहा कि वैसे ही हिंदी पत्रकारिता के विकास में मराठी, बांग्‍ला और दक्षिण भारतीय भाषाओं के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती।

इस विमर्श में भारतीय जन संचार संस्‍थान मुख्‍यालय, क्षेत्रीय केंद्रों के संकाय सदस्‍य, कर्मचारी अधिकारी, भारतीय सूचना सेवा के प्रशिक्षु और पूर्व छात्र शामिल हुए।

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सम्पादक

डॉ. लीना