संदर्भ- ‘हंस’ का 28वां वार्षिक आयोजन
कैलाश दहिया / हर साल की तरह, इस बार भी 31 जुलाई 2013 को ‘हंस’ पत्रिका की ओर से सामंत के मुंशी प्रेमचंद के जन्म दिन पर वार्षिक आयोजन किया गया, 28वां। इस बार वक्ताओं के लिए विषय दिया गया था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’, और वक्ता बोलने थे- अशोक वाजपेयी, वरवर राव, अरुंधति राय और गोविंदाचार्य। इनमें वरवर राव और अरुंधति राय आए नहीं और एक और वक्ता जिसका नाम लिखा नहीं गया था- तस्लीमा नसरीन, उसे बताया गया, आने नहीं दिया गया। सदाबहार राजेन्द्र यादव को व्हील चेयर समेत मंच पर लाया गया, बेशक राजेन्द्र जी के जज्बे को सलाम। मंच संचालन अजय नावरिया का था। स्मृति में प्रभा खेतान को समर्पित और स्थान वही ऐवाने गालिब हाल।
पहला खुलासा
विषय था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’, जो पूरी तरह से दलित विषय है, और हाल यह कि वक्ताओं में से कोई दलित नहीं, इसलिए कार्यक्रम फ्लाप होना ही था। जसपाल भट्टी वाला ‘फ्लाप शो’ नहीं, सच्ची-मुच्ची का फ्लाप। जैसा बताया गया है, तस्लीमा को आने नहीं दिया गया, वरवर राव और अरुंधति आए नहीं। बचे चार-वाजपेयी, गोविंदाचार्य, राजेन्द्र यादव और नावरिया। अब ये क्या बोलते? चूंकि नावरिया ने जात बदल ली है, इसलिए ये केवल मनोरंजन ही करते रहे बस।
राजेन्द्र जी ने बताया, आज जगह-जगह लेखकों-पाठकों को ले कर पाबन्दी लगा दी जाती है, रचनाएं जब्त कर ली जाती हैं, इसलिए यह विषय रखा गया है। चूंकि विषय दलितों का था और पिछले साल 2012 का विषय भी ‘दीन की बेटियां’ दलित विषय ही था, पर दलित वक्ताओं से राजेन्द्र जी बच रहे हैं। ऐसे में कार्यक्रम का हश्र पहले से ही तय हो गया था। मेरे साथ बैठे वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन जी ने दर्द व्यक्त किया- ’हमारा तो सब कुछ ही जब्त कर रखा है।’
मंच-संचालन कर रहे अजय नावरिया ने बताया कि यह कार्यक्रम उन्हें बौद्धिक खुराक देता है। फ्लाप शो से ये अब कितनी खुराक लेंगे, यही जानें। इन्होंने सामंत के मुंशी को सादर नमन किया, जो अपनी कथा-कहानियों में दलित स्त्रियों को गैर दलितों से गर्भिणी कराते हैं। महान आजीवक (दलित) चिंतक डा. धर्मवीर ने इस विषय पर ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ किताब लिखी हुई है, जो इन्होंने अच्छे से पढ़ रखी है। इसी बात से तय हो गया है, इन्होंने जात सचमुच बदल ली है। अब ये खटीक से क्या बने हैं यही जानें। इन्हें एम.एफ. हुसैन, फायर, वाटर आदि पर लगे प्रतिबंध याद हैं, लेकिन पिछले 2500 सालों से ‘मनुस्मृति’ ने दलितों पर जो प्रतिबंध लगाए हुए हैं, याद नहीं-कैसे दलित हैं नावरिया? निम्नवर्गीय तबकों के नाम पर ये ना-मालूम किस को उद्धृत कर रहे थे। वैसे सच है, अशोक वाजपेयी के सामने ये दलित उत्पीड़न की बात कैसे करते, तब इन्हें ब्राह्मण को इस का जिम्मेवार बताना ही पड़ता, और ये तो ‘ब्राह्मण वंदना’ कर रहे थे।
अशोक वाजपेयी ने जुमलों और व्यंग्य में ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ का खुलासा किया, बताया, दोनों साथ बढ़ते हैं। इन्होंने कर्म को अभिव्यक्ति से जोड़ा। इन के इस कथन पर जानना यही है कि ‘कर्मकांड और जारकर्म’ किस परम्परा में अभिव्यक्ति होते हैं। वैसे ये औरों से कुछ ज्यादा जानते हैं, तभी तो इन्होंने कहा, ‘केवल कानून नहीं समाज, परिवार भी प्रतिबंध लगाता है।’ इन्होंने यह भी कहा कि राज्य प्रतिबंध ना भी करना चाहे तो समाज प्रतिबंध करता है। इतनी जानकारी रखने वाले वाजपेयी ने एक बार भी ‘मनुस्मृति’ का नाम नहीं लिया, जिस ने दलितों के खाने-पीने-बोलने की बात छोड़िए साँस तक लेने पर प्रतिबंध लगा रखा था। वाजपेयी ने प्रतिबंधित विषयों की लिस्ट बनाते हुए ‘अस्मिता विमर्श यानी दलित विमर्श’ का नाम भी गिनाया। दरअसल, ये दलित साहित्य लिखने की छूट मांग रहे हैं।
अस्मिता विमर्श कह कर दलित साहित्य में लिखने की छूट मांग रहे अशोक वाजपेयी को कौन दलित साहित्य लिखने से कौन रोक रहा है? ये ‘जनसत्ता’ के अपने नियमित कालम ‘कभी-कभार’ में दलित साहित्य की चर्चा क्यों नहीं करते? फिर ये बताएं कि दलित स्त्रिायों से बलात्कार कौन कर रहा है और इनके पूर्वजों ने कैसे दलितों पर कहर ढाए। आज के ब्राह्मण की तिकड़मों के बारे में इन्हें लिखने से कौन रोक रहा है, जो आरक्षण के विरोध में खड़ा है? ये ‘द्विज जार साहित्य’ के बारे में अच्छे से लिखें, बोलने भर से दलित साहित्य नहीं लिखा जाता। फिर, क्या डा. धर्मवीर की इन पर लिखी आलोचना की किताब ‘अशोक बनाम वाजपेयी: अशोक वाजपेयी’ से मन नहीं भरा? एक बात और, कबीर साहेब के प्रक्षिप्त पद रट कर कोई दलित नहीं हो जाता। यूं तो पुरुषोत्तम अग्रवाल महा दलित बन जाएंगे। कबीर होने के लिए ‘वर्ण-व्यवस्था’ के जाल को काटना पड़ता है। वाजपेयी लिखें वर्णवादियों की व्यवस्था के खिलाफ, कबीर यूं ही थोड़े कह गए हैं-’संतो, पाण्डे निपुण कसाई।’
वैसे ये कबीर के पद गा सकते हैं, इस पर कोई रोक नहीं है, लेकिन कबीर सी लिखत ‘कबीर और धर्मवीर’ के बालक ही कर सकते हैं। इन्हें किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं।
वाजपेयी ने आलोचना को ले कर तुलसीदास का उदाहरण दे कर कहा, तुलसी ने वाजपेइयों को मुँह भर-भर कर गालियां दी हैं। ना मालूम ये क्या कहना चाह रहे हैं, लेकिन डा. धर्मवीर ने पहले ही लिख दिया है-“ब्राह्मण का फैलाया हुआ धोखा यह है कि वह दलित को कई ब्राह्मणों के बीच चल रही झूठ-मूठ की फर्जी लड़ाई में उलझा देता है।” (देखें, कबीर: डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिन्तन, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरिया गंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण 2000, पृ. 19)। वाजपेयी को अभी भी तुलसी की झूठ-मूठ की आलोचना याद आ रही है, कबीर की ‘द्विज जार संस्कृति’ की आलोचना को ये कैसे लेते हैं, यह बताना चाहिए था।
इन्होंने यह भी कहा, ‘देश में आलोचना की वृत्ति कम है।’ आज जब हिन्दी साहित्य डा. धर्मवीर की आलोचना की किताबों से समृद्ध हो गया है, इन्हें आलोचना की वृत्ति कम दीख रही है। जबकि, ‘कबीर के आलोचक’ सहित ‘कबीर के कुछ और आलोचक,’ ‘सूत न कपास कबीर,’ ‘डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिन्तन,’ ‘कबीर और रामानंद: किंवदंतियां,’ ‘कबीर: बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी’ सहित ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी,’ और ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’ आलोचना की ही किताबें हैं। अभी-अभी आई आलोचना की ही महाग्रंथात्मक किताब ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ से लगता है इन की आँखें चैंधिया गई हैं। फिर, इन्हें सामंत के मुंशी की प्रतिबंधित किताब तो याद रह गई, यह इन्होंने नहीं बताया कि द्विजों ने डा. धर्मवीर का साहित्य विश्वविद्यालयों में कैसे प्रतिबंधित करवा रखा है। यह तो भारतीय जन-मानस की जागरूकता है जो वह धर्मवीर साहित्य यानी दलित साहित्य को ध्यान से पढ़ रहा है। यही द्विजों की दुखती रग है, क्योंकि जारकर्म के समर्थक लेखक दलित साहित्य ने साहित्य से बाहर कर दिए हैं।
वाजपेयी ने ‘यौन सम्बंधों’ को प्रतिबंधित विषय में रखे जाने पर भी ऐतराज जताया। दरअसल, ये अपनी ‘द्विज जार परम्परा’ में परकीया और जारकर्म की खुली छूट चाह रहे हैं। डा. धर्मवीर ने बताया ही है, ‘कबीर की तुलसी से वर्णवाद को ले कर भिन्नता है लेकिन उनकी सूर से भिन्नता परकीया सम्बंध को ले कर है।’ (देखें, दलित चिन्तन का विकास: अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरिया गंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2008, पृ. 49)। उधर, कबीर साहेब ने तो जार की धज्जियाँ उड़ाते हुए कहा है-
चोवा चन्दन लाय के, पहिरे बसन बनाय।
गलियारे झांखत फिरे, परत्रिया देख मुसकाय।।
(देखें, कबीर और रामानन्द: किंवदंतियां, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,
21-ए, दरिया गंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण 2004, पृ. 77)
और जारिणी की इन शब्दों की निंदा की है-
नारि कहावै पीव की रहै और संग सोइ।
जार मीत हृदया बसै खसम खुशी क्यों होई।।
(देखें, कबीर के कुछ और आलोचक, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,
21-ए, दरिया गंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण 2002, पृ. 67)
वाजपेयी चाहें तो द्विजों के बीच यौन सम्बंधों पर खुली चर्चा कर सकते हैं। वैसे भी द्विज साहित्य में जारकर्म की यौन चर्चा के सिवाए है क्या?
हाँ, अशोक वाजपेयी ने ‘विचार’ पर प्रतिबंध को ले कर सही-सही बोला और माना कि वर्चस्ववादी ताकतें (?) विचार से भयभीत हो जाती हैं। वाजपेयी के इस कथन से नामवर सिंह का सामंती चेहरा सामने आ जाता है, जब वे कहते हैं- “विमर्श करने का काम जिन लोगों ने किया है, वो न कविता लिखते हैं, न कहानी। दलित-विमर्श डा. धर्मवीर ने शुरू किया और वे कहानीकार तो नहीं हैं। .....दलित साहित्य को विमर्श ने नुकसान पहुंचाया है।” (देखें, ‘आलोचकों को जज मान लिखी जा रही हैं कहानियाँ’, पाखी, अगस्त 2009, पृ. 59)। डा. धर्मवीर के चिन्तन से डरे नामवर सिंह से पूछा जाए, कथा-कहानी लिखने से क्या दलितों का उद्धार हो जाएगा? नामवर का ‘दलित विमर्श’ से भयभीत होना अशोक वाजपेयी के कथन को पुष्ट कर रहा है।
वाजपेयी की यह बात सही है की वर्चस्ववादी ताकतें विचार से भयभीत हो जाती हैं, और डा. धर्मवीर एक विचार ही है। वे दलितों यानी आजीवकों को चिंतन ही तो दे रहे हैं। ईसा-मोहम्मद साहब ने भी तो विचार ही दिया था, जिनके विचारों से उनकी कौमें गुलामी से मुक्त हुई हैं- इस बार दलितों की भी तैयारी पूरी है।
गोविंदाचार्य के भ्रम
प्रथम वक्ता के तौर पर जब गोविंदाचार्य का नाम पुकारा गया तब श्रोताओं में से उन से पूरा नाम बताने की आवाज आई। गोविंदाचार्य ने मातृशक्ति को प्रणाम कर के अपना पूरा नाम बताया- गोविंदाचार्य के. एन.। के.एन. का उन्होंने खुलासा किया कोडियाक्कम नीलमेघा। कोडियाक्कम गांव का नाम और नीलमेघा पिता का नाम। वाह, क्या खूब, प्रणाम मातृशक्ति को और नाम के साथ पिता का नाम। इस से कम से कम दलितों को सीख लेनी चाहिए। पिता के नाम का मतलब है, बाप निश्चित है कि कौन है। ब्राह्मणों की संगत में गोविंदाचार्य सीख गए हैं। उधर, दलित आँखें बंद कर के पितृसत्ता के पीछे लट्ठ ले के पड़े हैं। माँ का नाम उपनाम के रूप में जोड़ने का एक मतलब है पिता कौन है, पता नहीं। जैसे, वेश्या के बच्चे होते हैं, यानि भांड! क्या दलित भांड कहलवाना पसन्द करेंगे? उधर, हमारे बाबा साहेब भी इतनी हीनता से भरे थे कि उन्होंने भी अपने नाम के साथ एक ब्राह्मण का सरनेम लगाया! अगर वे डा. भीमराव रामजी सकपाल लिखते तो ज्यादा गर्व की बात थी, और जो प्रामाणिक और सही भी थी। गोविंदाचार्य मातृशक्ति को प्रणाम कर के दलितों को बहकाने की कोशिश कर रहे थे।
गोविंदाचार्य ने यह भी बताया, उनके अध्यापक मोहन लाल तिवारी थे, जो मार्क्सवादी थे, जिन्होंने इनके आर.एस.एस. में जाने पर ईमानदारी से काम करने का आशीर्वाद भी दिया था। हो गया तिवारी जी का मार्क्सवाद पूरा। ऐसा मार्क्सवाद अकेले इन के टीचर का नहीं, बल्कि हर मार्क्सवादी ब्राह्मण ऐसा ही होता है। तभी तो मार्क्सवाद भारत में फेल हुआ है। डा. धर्मवीर सही तो कह रहे हैं, ब्राह्मण पहले ब्राह्मण होता है, उसके बाद कुछ और होता है। उधर दलित बिना पहचान के मार्क्सवादी का चोला ओढ़ता है, जिस का मौका पाते ही कोई भी सर कलम कर देता है।
यह एक मोहन लाल तिवारी की बात नहीं है। भारत में ब्राह्मणों की यही रणनीति रही है। डा. धर्मवीर ने इनके पुरोधा ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद को पकड़ा है, जो मार्क्सवाद को वेदोपनिषद से जोड़ने का दावा करते हैं, जबकि मार्क्स खुद यहूदी होते हुए ऐसा कोई दावा नहीं करते कि साम्यवाद को वे तौरेत (यहूदियों की धर्म पुस्तक) से निकाल रहे हैं और ना ही फ्रेडरिक एंगेल्स कहते कि साम्यवाद का बाइबल से किसी तरह का कोई सम्बंध है। डा. धर्मवीर ने इसके विश्लेषण में लिखा है-“दलित लोग मार्क्सवाद को इसलिए अपनाना चाहते हैं कि इस से उन का ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था से पीछा छूटेगा लेकिन इधर ब्राह्मण नम्बूदरिपाद माक्र्सवाद को इसलिए अपना रहे हैं ताकि उन की वेदोपनिषद की वर्ण-व्यवस्था कायम रह सके।” (देखें, थेरीगाथा की स्त्रियाँ और डा. अम्बेडकर, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2005, पृ. 96)। ऐसे ही, डा. साहब ने बौद्ध बने ब्राह्मण धर्मानन्द कौसाम्बी को पकड़ा है। लब्बोलुआब यह है कि ब्राह्मण कुछ भी हो जाए, रहता ब्राह्मण ही है। कोई दलित-पिछड़ा बहक कर कुछ भी हो जाता है जैसे गोविंदाचार्य हो रहे हैं। उधर, मोहन लाल तिवारी जैसे मार्क्सवादी पिछले दिनों पकड़े गए हैं, जिनका नाम है नामवर सिंह।
गोविंदाचार्य ने अपने ब्राह्मण टीचर के कसीदे पढ़े। कोई इनसे पूछे, क्या ब्राह्मण के सिवाय किसी को किताब छूने का अधिकार भी था? कोई चमार-भंगी अध्यापक था भी उस समय, और छोड़ी जाए, यह बात क्या कोई पिछड़ी जाति का अध्यापक ही था? कुछ ऐसा ही भ्रम हमारे बाबा साहेब डा. अम्बेडकर को भी हुआ था। उन्होंने तो अपने ब्राह्मण टीचर के समर्थन में उस का ‘सरनेम’ तक ओढ़ लिया। अच्छा होगा, गोविंदाचार्य जी इस तरह के भ्रमों से बाहर निकलेंगे, क्योंकि एक ब्राह्मण के उदार हो जाने से कुछ भी ठीक नहीं हो जाता। डा. धर्मवीर ने तो लिखा ही है, ऐसा ब्राह्मण दांतों के बीच जीभ की तरह होता है।
यूं, गोविंदाचार्य को अच्छे से समझ आ गया है कि ब्राह्मणों के स्तुतिगान से ही ये आर.एस.एस. के कोपभाजन से बच सकते हैं। यह बात सभी पिछड़े अच्छे से जानते हैं, अन्यथा एक-दूसरे को फूटी आँख से ना देखने वाले राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी मंच साझा कर रहे हैं। डा. धर्मवीर के कथन अकाटय सिद्ध हुए हैं। दर असल, ये ‘दलित विमर्श’ यानि ‘धर्मवीर दृष्टि’ के विरोध में इकट्ठे हुए हैं। बगैर दृष्टि के अभाव में पिछड़ों को तो ब्राह्मण की गोदी में गिरना ही था। यूं, राजेन्द्र यादव ने जोतिबा फुले और ललई सिंह यादव की परम्परा को लजा दिया है। गोविंदाचार्य को चिन्तक होने का जो भ्रम हुआ था, उसकी हकीकत ये खुद जान गए हैं। तभी तो ये वाजपेयी के सम्मुख नत-मस्तक थे। इन्होंने यह भी बताया कि नामवर सिंह के चरण भी इन्होंने छुए हैं। साथ ही यह भी कहा कि अपने क्षुद्र स्वार्थों के चलते लोग अवसरवादी हो जाते हैं।
वैसे, दलितों में भी एक बड़बोले और अवसरवादी हैं-कंवल भारती। राजेन्द्र जी इन्हें भी आमंत्रित कर सकते थे। तब द्विज स्तुतिगान अच्छे से हो जाता। वैसे तो, नावरिया के रहते ये दलित आलोचना से खुद को बचा ले जाते हैं, लेकिन भारती अच्छी स्तुति करते हैं। फिर, पिछले दिनों इन्होंने राजेन्द्र जी को जो धमकी दी थी, उस से वह गिला-शिकवा भी खत्म हो जाता।
रमणिका और शीबा के स्यापे
रमणिका गुप्ता की क्या कहें, जो कह रही थी कि औरत के नाते बचपन से ही प्रतिबंध लग जाता है। ये क्या कहना चाहती हैं, इसे इनकी लिखत से ही जाना जा सकता है। ये लिखती हैं, ‘मुझे याद नहीं अपने प्रेम करने वालों की संख्या। वह सब अपने में एक-एक अनुभव थे मेरे।’ (देखें, तीन द्विज हिन्दू स्त्रीलिंगों का चिन्तन, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2007, पृ. 15)। इससे ज्यादा इनके बारे में और क्या बताया जाए? दरअसल, ये सेक्स की अबाध छूट मांग रही थीं।
रमणिका गुप्ता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष भी लिया। ये वो रमणिका हैं, जिन्होंने डा. धर्मवीर की किताब ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ के लोकार्पण कार्यक्रम के समय कार्यक्रम में बाधा डलवाने और डा. साहब पर जूते-चप्पल चलवाने का षडयंत्र रचा था। ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रही हैं! असल में, ये दलित चिन्तन से जारकर्म की छूट चाह रही हैं, जिसे डा. धर्मवीर ने सख्ती से ठुकरा दिया है। रमणिका के लिए अच्छा होगा, ये जिस परम्परा में जारकर्म की छूट लिए घूम रही हैं, उसी में एंज्वाय करें। द्विज धर्म का दलितों से क्या लेना-देना? वह जो भी व्यवस्था दे, वह उसके अनुयाइयों के लिए ही होनी है। एक ‘जुहार’ शब्द रट कर ये आदिवासी बनने चली हैं। अच्छा होगा, ये आदिवासियों से दूर रहें। आदिवासी भी जान लें, रमणिका के पास जारकर्म की सीख के सिवाए कुछ भी नहीं है। इस में ‘एक कामरत औरत’ नामक पत्रिका इस का जरिया है। यूँ, रमणिका की सारी कवायद को डा. धर्मवीर के कथन ‘भोगी सम्मान चाहता है’ के संदर्भ में देखा जा सकता है। फिर, डा. धर्मवीर ने लिखा ही है-’’बेहयाओं को इसलिए अच्छा माना जा सकता है कि वे कभी आत्महत्या नहीं करते। इस एक सद्गुण के सिवा उन में सारे दुर्गुण ही दुर्गुण भरे होते हैं।’’ (देखें, तीन द्विज हिन्दू स्त्रीलिगों का चिन्तन, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2007, पृ. 47)।
रमणिका गुप्ता की ही तरह शीबा असलम फहमी भी थीं। मोरलिटी से डरी ये धर्म को कोसती रहीं, जिसने व्यभिचारिणी स्त्रियों के जारकर्म पर प्रतिबंध लगा दिया। एक बात और, ये अपने धर्म की सुरक्षा ओढ़ कर ही ये ऐसा बोल गई हैं, अन्यथा बलात्कारी धर्महीन स्थिति में रह रहीं स्त्रियों पर गिद्ध दृष्टि रखता है। दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार का यही एकमात्र कारण है।
इन्होंने यह भी कहा कि सबसे ज्यादा प्रतिबंध महिला को ले कर होते हैं। वैसे, इन्हें अपने वक्तव्य की तह तक जा कर देख लेना चाहिए, वजहें खुद-ब-खुद मालूम पड़ जाएंगी।
जो नहीं आए उन का बोलना
वरवर राव इस कार्यक्रम में तो पहुंचे नहीं इस की वजहें वे खुद जानें। लेकिन सामंत के मुंशी को ले कर उन के वक्तव्य उनकी अपढ़ता की ओर इशारा कर रहे हैं। उन्हें प्रखर चिंतक डा. धर्मवीर लिखित ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’ पढ़ कर ही प्रेमचंद पर बोलना चाहिए। इन्हें यह भी जान लेना चाहिए, जब तक ये ‘दलित विमर्श’ से हो कर नहीं निकलेंगे, इन की बातें हवा-हवाई ही रहेंगी। क्या ये नहीं जानते, जब मार्क्स ही भारतीय जातीय व्यवस्था को नहीं जान पाए, तब मार्क्स के नाम पर कोई भी वाद इस देश की समस्याओं का हल कैसे दे सकता है? इस देश की समस्याएं महान मक्खलि गोसाल, रैदास, कबीर और धर्मवीर की दृष्टि से हल होनी हैं। वरवर जी से अनुरोध है, वे दलित चिन्तन को जरूर जानें। कवि तो कोई भी ठाली बैठा आदमी हो जाता है। इस देश में कविता का जिम्मा निठल्लों के ही हिस्से आया है। हाँ, पहली बार दलितों के माध्यम से कविता अपने सही रूप में आई है। मार्क्सवादियों की कविता क्रांति सी लगती बड़ी-बड़ी बातें जरूर करती है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर टांय-टांय फिस्स ही होती है। फिर, कविता-कहानियों से कोई परिवर्तन भी नहीं होने जा रहा।
हाँ, ‘दलित साहित्य’ द्विजों के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र है। इस पर इन्हें लिखने की तो छोड़िए, बोलने तक की इजाजत नहीं। अपनी जारकर्म की ‘रामायण-महाभारत’ कहीं और जा कर सुनाएं। राजेन्द्र जी से पुनः अनुरोध है, ये ‘विषय और वक्ता’ चुनने में सावधानी बरतें। श्रोताओं के समय और सहनशीलता का सम्मान करें। ये अपने सामने बैठे प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन को बुलवा सकते थे, जो विषय से पूरा न्याय करते। हाँ, अगर बेचैन जी से भय लगता है तो यहां उपस्थित अधपके दलितों में से किसी से भी बुलवाया जा सकता था। वे ही बता देते, सदियों से दलितों को सांस लेने तक से किस तरह प्रतिबंधित किया गया है।
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लेखक- युवा कवि व आलोचक हैं ।
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