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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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"कालकथा" के लेखक कामतानाथ का जाना

भगवान स्वरूप कटियार / "कालकथा" जैसी कालजयी रचना (उपन्यास) के रचनाकार कामतानाथ का जाना उन सभी के  लिए अपूर्णनीय क्षति है जो  सृजन और रचना संसार से जुड़े रहे हैं और एक बेहतर दुनिया रचने का सपना देखते रहे हैं कामतानाथ जी ने अपने समर्थ साहित्य से हमेशा मजलूमों की आवाज कोबुलन्द किया। उन्होंने ट्रेड यूनियन एक्टविस्ट होने के नाते बैंक के  कर्मचारियों के आन्दोलन का नेतृत्व तोकिया ही, साथ देश के राष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन के सक्रिय हिस्सेदार भी रहे और जेल भी गये। बेहद सादगी भरा पर असाधरण व्यक्तित्व था उनका जो  पहली मुलाकात में किसी कोभी अपना बनाने की क्षमता रखता था। साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार कामतानाथ प्रगतिशील आन्दोलन के अगुवा भी रहे। उन्होंने कई वामपंथी आन्दोलनों का नेतृत्व किया। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन पर आधारित दोखंडों में प्रकाशित उनका उपन्यास "कालकथा" सच में हिन्दी साहित्य का गौरव ग्रन्थ है खुशी की बात यह है कि इसके शेष दो खण्ड भी कामतानाथ ने लिख लिये थे जो प्रकाशक को प्रकाशनार्थ दिये जा चुके हैं। यह श्रमसाध्य काम उन्होंने अपनी बीमारी जैसी तमाम कठिनाइयों के दरमियान पूरा किया। एक लेखक की प्रतिबध्दता का इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या हैसकता है।

22सितम्बर 1934 को जन्मे कामतानाथ रिजर्वबैंक से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन एक प्रतिबध्द लेखक के रूप में साहित्य कोसमर्पित कर दिया था। इधर कुछ समय से वे लिवर कैंसर से पीड़ित थे और 78 वर्ष की आयु में लखनऊ के डा. राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में 7दिसम्बर को रात्रि 9 बजे उनका निधन हो गया। उनके निधन से न सिर्फ लखनऊ बल्कि पूरे देश का साहित्य और सांस्कृतिक जगत श¨क सन्तप्त है। कामतानाथ जी ने प्रेमचन्द की हिन्दी-उर्दू की गंगाजमुनी तहजीब और साहित्य परम्परा कोआगे बढ़ाया। उनकी कहानियां जनपक्षधरिता और गहन सामाजिक संवेदनशीलता से सराबोर होती थीं। उन्होंने न क¢वल मजदूर जीवन पर यादगार कहानियां लिखी बल्कि प्रतिबध्द भाव से उनके जीवन और आन्द¨लन में शरीक भी हुए। उनकी कहानी “छुट्टियां“ को तोटूटते हुए मध्यम वर्गीय परिवार की महागाथा के रूप में याद किया जाता है। उनकी पहली कहानी “मेहमान“ 1961 में प्रकाशित हुई थी और अपनी दूसरी कहानी “लाशें“ से वे चर्चा में आये। उनकी चर्चित कहानी “संक्रमण“ के करीब 500 नाट्य मंचन हो चुके हैं।

विदेशी साहित्य में गहन रुचि और उसका अध्ययन उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। कामतानाथ जी ने अपने लिखे “फूलन देवी“ नाटक में कानपुर में अभिनय भी किया। “कल्पतरु“ और “दाखिला डाट काम“ उनके चर्चित नाटक हैं। उन्होंने अंगे्रजी के नाटक “घोस्ट“ का हिन्दी अनुवाद किया जिसका मंचन चर्चित रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने किया। इसके अलावा उन्होंने बे्रख्त के नाटकों और फ्रांसीसी मोनोलाग का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद किया कामतानाथ जी के साहित्य में सामाजिक प्रतिबध्दता साफ तौर पर दिखाई देती है उन्होंने कमजोरों के  हित में हमेशा सत्ता के  विरुध्द संघर्ष किया। उन्होंने प्रतिरोध के साहित्य कोहमेशा ऊष्मा दी। वे अन्त तक सिध्दान्त से डिगे नहीं। वह लिखने के पहले बहुत श¨ध करते थे। अपनी कालजयी रचना “कालकथा“ के लिए उन्होंने बहुत श¨धकार्य किया और पाण्डुलिप के लिए काफी रफ कार्य भी किया। यह सब एक प्रतिबध्द लेखक ही कर  सकता है। उन्होंने सशक्त व्यंग्य भी लिखे सोवियत संघ के पतन पर अपने व्यंगात्मक कटाक्ष के माध्यम से जो  लेखकीय टिप्पणी की है वह पठनीय है। कामता जी की यादें उनकी कालजयी रचना कालकथा की तरह ही कालजयी हैं। रिजर्व बैंक मे अपनी सेवा के दौरान वे एक मात्र व्यक्ति थे जिनकी पहचान कामरेड के रूप में थी। कामरेड शब्द कामतानथ जी का पर्याय बन गया था। कामरेड यानी कामतानाथ से मिलने वालों के लिए रिजर्व बैंक के सारे नियम भी शिथिल हैजाते थे। वे एक बड़ी लोकप्रियता और मजदूरों के बीच गहरी विश्वसनीयता के प्रतीक बन चुके थे। उनके उपन्यास “समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’’ “एक और हिन्दुस्तान“ “पिघलेगी बर्फ्” तथा “तुम्हारे नाम “ भी खूब पढ़े गये और अपनी विषयवस्तु और भाषा शैली के लिए खूब सराहे भी गये। किसी बड़ी लेखकीय परियोजना के साथ वे छुट्पुट लेखन जारी रखना नहीं भूलते थे। उनकी इसी नवम्बर में वागर्थ में कहानी छपी है।  उनका याराना तो लाजबाब था। वे अपनी पत्नी की बीमारी की वजह से बाहर कम निकल पाते थे और खुद भी एक लम्बी अवधि से बीमार चल रहे थे। पहले हेमोग्ल¨बिन की कमी के कारण पी जी आई, लखनऊ में इलाज चला और। बाद में लिवर कैंसर डिटैक्ट होने के बाद तो सब कुछ थम सा गया था। मिलने जुलने वालों से दूसरों के हाल चाल भी लेते रहते थे। उन्हें इस बात का भी अफसोस रहता कि वे दूसरों के यहां नहीं जा पाते जबकि उसकी अपनी वजहें थी।    

ऐसे दौर में जब कार्पोरेट पूंजी अपने सारे हथकंडे हमारे साहित्य संस्कृति और समृध्द सामाजिक परम्पराओं को ध्वस्त करने के  लिए अजमा रही है ऐसे समय में कामता जी जैसे समर्थ लेखक का जाना बेहद दुखद और अफसोसनाक है। वे लेखकों के आपसी अलगाव और बिखराव के  बहुत खिलाफ थे। लेखक बिरादरी से सत्ता और सरकार भयभीत रहते हैं क्योंकि उन्हें झुकाया जाना और खरीदा जाना न सिर्फ मुष्किल बल्कि नामुमकिन है। पर आज के  बदलाव और बिखराव से वे चिन्तित रहते थे जिसका इजहार उनके  साथ बैठने पर बातचीत में होता था। वे अपने फाका मस्ती के  किस्से भी मूड में आने पर सुनाते थे। कोई भी मृत्यु वेदनादायक होती है फिर कामतानाथ जैसे शख्स के  जाने का दुख भला कैसे न हैजिसने अपने साहित्य प्रेमियों और दोस्तों का एक बृहद संसार रचा है। वे कहा करते थे कि लोग ज्यादातर अपनी जरूरतों और हसरतों से ही जूझते रहते हैं। समाज और देश के लिए सोचने का लोग¨ं के पास वक़्त ही नहीं है। लेखक बिरादरी कोअपनी सामाजिक सक्रियता से इस जड़ता कोत¨ड़ने की पहल करनी चाहिए क्योंकि उसकी विश्वसनीयता अभी भी समाज में बनी हुई है। कामता जी के बृहद रचना संसार की तरह उनके  दोस्तों का संसार भी बृहद था। सच मे वे दोस्तों के दोस्त थे। काफी दिनों तक उन्होंने काफी हाउस कल्चर अपनाया फिर अपने घर पर ही बैठकी करने लगे थे। उन्हें बेवजह विवादों  में रहना पसन्द नहीं था इसलिए वे हमेशा विवादों  से दूर रहे। उनका काम करने में विश्वास था इसलिए वे सदैव काम करते रहे। और शायद इसीलिए वे इतना अधिक और महत्वपूर्ण लेखन कर सके़।तमाम दुष्वारियां भी एक प्रतिबध्द लेखक का रास्ता नहीं रोक पाती यह कामता जी की जिन्दगी से साफ साबित होता है। कामता जी को अपने साहित्यिक योगदान के लिए पहल सम्मान, मुक्तिबोध पुरस्कार, यश्पाल पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्य भूषण पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।   कामता जी की रचनायें अपने समय के यथार्थ के साथ साथ इतिहास, दर्शन, समाज और राजनीति की बृहद पड़ताल करती हैं। वे अपने समय के  सवालों से उलझती और टकराती भी हैं। और शायद यही वजह है कि उनकी कालजयी कहानी “संक्रमण“ के 500 मंचन किये गये। कामता जी का जाने से सृजन के  क्षेत्र में जो  सन्नाटा और शून्यता आयी है उसे भरने में कितना वक़्त लगेगा कह पाना मुश्किल है। वक़्त का मरहम भले ही इस कमी के जख्म कोभर दे पर कुछ जख्म ऐसे भी होते हैं जो  भर कर भी हरे रहते हैं और हमेशा टीसते रहते हैं। उनकी यादें भी कुछ इसी तरह हैं।

2, मानसनगर, जियामऊ, हजरतगंज

लखनऊ - 226001

मो - 09415568836

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना