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‘बहुरि नहिं आवना’ के 12वें अंक का हुआ लोकार्पण

कबीर आजीवक थे: डा. धर्मवीर

पत्रिका ‘बहुरि नहिं आवना’ के 12वें अंक (अप्रैल-सितंबर 2013) का लोकार्पण

नई दिल्ली। कबीर आजीवक थे तभी उन्होंने  अपनी किताब का नाम ‘बीजक’ रखा। बीजक हमारे महापुरुष हैं जो प्राचीन काल में पैतृकता के लिए अपने समय की भरी राजसभा में बबकारते हैं। यह खुलासा महान आजीवक (दलित) चिंतक डा. धर्मवीर ने सूरजपाल चैहान के समग्र रचना कर्म पर केन्द्रित और पत्रिका ‘बहुरि नहिं आवना’ के नवीनतम 12वें अंक (अप्रैल-सितंबर 2013) के लोकार्पण अवसर पर किया।

डा. साहब ने ‘बुहरि नहिं आवना’ के अर्थ को कबीर साहेब की वाणियों के माध्यम से बड़ी संख्या में उपस्थित श्रोताओं को समझाया। उन्होंने बताया कि आज तक कोई दोबारा (पुनर्जन्म) नहीं आया है। बहुरि नहिं आवना से द्विज परंपरा के सभी धर्म विलुप्त हो जाते हैं।

वरिष्ठ साहित्यकार सूरजपाल चौहान के रचना कर्म पर केन्द्रित इस कार्यक्रम में प्रो. काली चरण स्नेही और डा. राजेंद्र बड़गूजर मुख्य वक्ता थे। ‘नई धारा’ के संपादक डा. शिवनारायण ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की तथा प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन ने सभा का संचालन किया।

अपने विस्तृत वक्तव्य में डा. राजेन्द्र बडगूजर ने कहा कि सूरजपाल चौहान की आत्मकथाओं ‘संतप्त’ और ‘तिरस्कृत’ में हिन्दू समाज की कुटिलताएं-विद्रूपताएं खुल कर सामने आ गई हैं। जाति विभीषिका के साथ-साथ जारकर्म इन की संस्कृति का अहम हिस्सा है। लेकिन दलित (आजीवक) परम्परा में जारकर्म का कोई स्थान नहीं। हिन्दू जार कानूनों की वजह से चौहन जी का घर तबाह हुआ। सूरजपाल चौहान और डा. धर्मवीर की आत्मकथाएं इस का ज्वलंत उदाहरण हैं। बड़गूजर जी ने डा. धर्मवीर की घरकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ की तरफ इशारा करते हुए बताया कि इनमें हम दलितों की समस्याओं का समाधान निकल रहा है।

डा. बड़गूजर ने चैहान जी की आत्मकथाओं में आए इन के बचपन, व्यसन, इन के यौन शोषण और इन के पिता के जारकर्म पर विस्तार से बात की। उन्होंने चौहान जी की आत्मकथाओं में आए प्रसंग पर बताया कि द्विजों की स्त्रियां द्विजों का ही पक्ष लेती हैं। वे उनके जारकर्म और बलात्कार पर खुल कर उन का समर्थन करती हैं। इस से उन की संस्कृति का सही से पता चल जाता है।

लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. काली चरण स्नेही जी ने अपने ओजपूर्ण संभाषण में चौहान जी की आत्मकथाओं के माध्यम से ‘द्विज जार परम्परा’ की धज्जियां उड़ा दी। बताया कि बड़े लेखक भी स्वीकार कर रहे हैं कि सूरज पाल चौहान बड़े लेखक हैं। दरअसल, ये कथित बड़े लेखक खुद को बचाने में लगे हैं। स्नेही जी ने बताया, हमारा एक आदमी व्यवस्था पर हावी पड़ जाता है। शम्बूक, एकलव्य, कबीर और आज धर्मवीर इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

प्रो. स्नेही ने गरजते हुए कहा, इस देश में दो संविधान नहीं हो सकते। देश संविधान के अनुसार चलेगा न कि किसी मनु-स्मृति के हिसाब से। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बताया, जो कोई जात छुपा के लिख रहा है वह ज्यादा खतरनाक है बनिस्पत उनके जो अपनी जात बता के लिख रहे हैं। उन्होंने दलित आत्मकथाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि हमारी आत्मकथाओं ने साहित्य में उपेक्षित विधा को सार्थक कर दिया है। स्नेही जी ने कहा, हम सूरजपाल चौहान के जीवन में जारकर्म से तबाह हुए उन के घर के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि इन के साथ ऐसा क्यों हुआ? उन्होंने चौहान जी के एकांगी जीवन की तरफ इशारा करते हुए उन के दुखों का समाधान भी मांगा।

इस अवसर पर दलित साहित्य की सब से बड़ी वैचारिक पत्रिका ‘बहुरि नहिं आवना’ के नए अंक ‘संयुक्तांक जनवरी-सितम्बर 2014’ का लोकार्पण भी किया गया। महान चिन्तक डा. धर्मवीर ने कहा कि पत्रिका अपने उद्देश्य में सफल हो रही है। इस में आ रही सामग्री हमारे दलित समाज को मथ रही है। डा. साहब ने बताया कि पत्रिका के नाम के समय सोचा गया था कि कबीर से जुड़ा शब्द ही इसके नाम में हो। डा. साहब ने खुलासा भी किया कि कबीर साहब ने अपने धर्मग्रंथ का नाम बीजक इस लिए रखा था, क्योंकि प्राचीन भारत में बीजक हमारे महापुरुष हो चुके हैं। जो तत्कालीन राज सभा में पैतृकता की पहचान के लिए बबकारते हैं। डा साहब ने कहा, यही बीजक आज डी.एन.ए. के नाम से जाना जाता है।

डा. धर्मवीर ने कहा कि दलित लेखन के प्रारंभिक दौर में हम सोचा करते थे कि हमारे समय में कम से 500 किताबें दलित साहित्य की आ जाए। आज हमें गर्व है कि इस से वहीं अधिक किताबें आ चुकी हैं। इन में 45 से ज्यादा का योगदान मेरा भी है। डा. साहब ने कहा कि ‘हमारा चिंतन विभिन्न चरणों से गुजरता हुआ परिवार तक आया है। हम परिवार में होने वाली बातों के समाधान खोज रहे हैं। इस में सूरज पाल चौहान जी की आत्मकथा की भी भूमिका है।

सूरजपाल चौहान ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि ‘जब तक हिन्दू नाम का प्राणी रहेगा छुआछूत रहेगी।’ चौहान जी ने ऐसी बीमारियों से बचने के लिए डा. धर्मवीर के विचारों को मानने की बात कही। इस के साथ-साथ उन्होंने बताया कि आज हमारे बच्चे गैर-दलितों से शादी-ब्याह कर रहे हैं, जो बहुत खतरनाक है। ऐसे बच्चे हमारी महान आजीवक परम्परा से कट जाते हैं,  दूसरे इन के लालन-पालन और शिक्षा पर दलित माँ-बाप का पैसा लगता है। जबकि फायदा गैर-दलित को होता है। चौहान जी ने दलित लड़कियों के गैर-दलितों से विवाह की तरफ इशारा किया। उन्होंने बताया कि ऐसे बच्चे और उन के माँ-बाप कहते हैं कि डा. अम्बेडकर ने भी तो ब्राह्मणी से शादी की थी, हम कर रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं?

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नई धारा’ के संपादक डा. शिवनारायण ने सूरजपाल चौहान की कहानियों के संदर्भ में उन्हें आज का बड़ा कथाकार मानते हुए उनकी ‘बदबू’ कहानी की व्याख्या की। उन्होंने दलित साहित्य को समाजशास्त्रीय नजरिए से देखने की बात कही और कहा कि यह देश श्रमिक संस्कृति का है। शिवनारायण जी ने द्विजों के चेहरे से पर्दा उठाते हुए काशीनाथ सिंह का किस्सा सुनाया। उन्होंने बताया कि काशीनाथ बिहार के वरिष्ठ लेखक मधुकर सिंह जी का बहुत सम्मान करते थे। वे उन्हें अपने घर में ठहराते थे। एक कार्यक्रम के बाद काशीनाथ को पता चला कि मधुकर सिंह कोइरी हैं, तब उन्होंने मधुकर जी को अपने घर में चाय का कप धो कर अलग रखने को कहा, तो यह हैं द्विजों की मानसिकता। ‘बहुरि नहिं आवना’ पत्रिका के संदर्भ में उन्होंने कहा कि इस के पहले अंक से ही वे समझ गए थे कि यह बड़े मिशन को ले कर चली है। शिवनारायण जी ने डा. धर्मवीर, प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, प्रो. कालीचरण स्नेही की उपस्थिति में अपनी अध्यक्षता के संदर्भ में कहा कि यह उन के लिए सौभाग्य की बात है। इस अवसर पर युवा लेखक अनिल कुमार ने चौहान जी की कहानियों पर केन्द्रित अपना आलेख पढ़ा। उन्होंने कहा कि चौहान जी की कहानियों में जीवन की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है। कहानियों के माध्यम से उन्होंने दलित वेदना को आवाज प्रदान की है।

अपने धन्यवाद ज्ञापन में युवा आलोचक और गज़लकार डा. यशवन्त वीरोदय ने कहा कि जलेस-प्रलेस-जसम जैसे तथाकथित लेखक संघ और इन के नेता धर्मवीर दृष्टि के सामने अप्रासंगिक हो गए हैं। दलित लेखन आज बुलन्दी पर है। इस में सूरजपाल चौहान जी का स्मरणीय योगदान है। डा. वीरोदय ने स्पष्ट शब्दों में कहा, राजनीति में हम बुलन्दी पर हैं और साहित्य में भी ‘बहुरि नहिं आवना’ जैसी दर्शन की पत्रिका हमने पा ली है। दलित साहित्य सत्ता ही नहीं धर्म-विमर्श का साधन भी है। अपने चिन्तन में हम मोरलिटी के पक्षधर हैं।

यह कार्यक्रम रविवार 01 सितंबर 2013 को बहुरि नहिं आवना की तरफ से हिन्दी भवन, दिल्ली में आयोजित किया गया। इसमें वरिष्ठ साहित्यकार बलबीर माधोपुरी, शत्रुध्न कुमार, बहुरि नहिं आवना के संपादक डा. दिनेश राम, लोकायत पत्रिका के संपादक बलराम, सामाजिक न्याय संदेश के संपादक सुधीर हिलसायन, कवि-आलोचक कैलाश दहिया, सुदेश तनवर, डा. फूलबदन, मुन्नी चैधरी, रमेश गौतम, विक्रम पासवान, रविंद्र कुमार समेत बड़ी संख्या में साहित्यकार-शोधार्थी उपस्थित थे।

रिपोर्ट: सुरेश कुमार

 

 

 

 

 

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना