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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव का जोरदार आगाज

फिल्म उद्योग को और खोलने-बदलने की जरूरत, युवा महिला फिल्मकार दिव्या भारती ने उद्घाटन संबोधन में कहा

संजय कुमार / पटना। जन्मशती वर्ष चंपारण सत्याग्रह, अक्टूबर क्रांति और मुक्तिबोध को समर्पित 9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव का प्रतिरोधात्मक आगाज एकतारा कलेक्टिव की नयी फिल्म “तुरूप” से हुआ। हालांकि फिल्म महोत्सव का विधिवत उद्धाटन चर्चित एक्टिविस्ट और कक्कूस यानी टायलेट की निर्माता दिव्या भारती के संबोधन से हुआ।

9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव के मुख्य अतिथि के तौर पर आयी, मदुरै की युवा महिला फिल्मकार दिव्या ने कहा कि ‘‘यह दौर विजुअल मीडिया का है जहां बड़ी चतुराई से शोषक वर्ग इसका इस्तेमाल नफरत फैलाने के लिए कर रहा है, खासकर आरएसएस जैसे संगठन सांप्रदायिक, रूढ़िवादी, सामंती सोच को गहरा करने के लिए विजुअल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे है, तब प्रगतिशील और विवेकशील लोगों को विजुअल मीडिया को अपने हाथों में लेना होगा। इस आपातकालीन समय में जब फासीवादी ताकतें लोगों के दिमाग में जहर भर रही हैं, तब हमें अपने कैमरा और अपनी कहानियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। हमारी फिल्मों में इतना बारुद होना चाहिए कि वे सामंती, सांप्रदायिक, कट्टरपंथी ताकतों के जला कर राख कर दे।’’ उन्होंने प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन को राजनैतिक और सामाजिक बदलाव की एक और कड़ी को जोड़ने वाला आयोजन बताया। दिव्या ने कहा कि फिल्में अन्याय के खिलाफ लड़ाई का सिर्फ प्रोपोगैंडा नहीं हैं, बल्कि सामाजिक न्याय और राजनीतिक चेतना को बढाने का एक माध्यम है।

दिव्या भारती ने कहा कि आजकल बहुत सारे फिल्मोत्सव आयोजित किए जाते हैं, पर उनमें बहुतों का लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता। यही बात फिल्मकारों के लिए भी कही जा सकती है। बहुत सारे फिल्मकार फिल्मों के सामाजिक बदलाव की ताकत और प्रभाव को पूरी तरह समझ नहीं पाते। केवल धन-उपार्जन तक ही उनका मकसद सीमित रहता है। फिल्म उद्योग को और खोलने और बदलने की जरूरत है। इसे और लोकतांत्रिक बनाना होगा, ताकि हाशिये के मुददे खुद उनकी आवाज में लोगों तक पहुंच पाए।

उन्होंने कहा कि एक फिल्म आम आदमी तक पहुंचनी चाहिए। उसमें उनका जीवन और समाज की असलियत झलकनी चाहिए और वह फिल्म अगर उनके बारे में है तो उनको समझ में आनी चाहिए। फिल्म कुछ बुद्धिजीवियों के लिए नहीं होनी चाहिए। कोई फिल्म अगर जनता से दूर है, तो चाहे जितनी कलात्मक क्यों न हो, उसकी कोई सार्थकता नहीं हो सकती। अगर लोगों को कोई फिल्म समझ में नहीं आती, तो गलती उनकी नहीं होती, बल्कि फिल्मकारों की होती है, जो उन तक पहुंच नहीं पाते।

फिल्मोत्सव में आमंत्रित अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए समाजशास्त्री प्रो. डी.एम. दिवाकर ने सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों को समझना और बेहतर समाज निर्माण के लिए विमर्श छेड़ना की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि भारत के संविधान के अनुरूप सभ्य नागरिक बनाने और बहुसांस्कृतिक स्वरूप की रक्षा की कोशिश जरूरी है। आज अखलाक जो चाहे खा नहीं सकता, वेमुला जो चाहे पढ़ नहीं सकता, गौरी लंकेश जो चाहे लिख नहीं सकतीं, ऐसा समाज बनाया जा रहा है। नौजवानों के भविष्य के प्रति राज्य ने अपनी भूमिका से किनारा कर लिया है, बाजार उन्हें निगल रहा है। ऐसी स्थिति में प्रतिरोध का सिनेमा जैसे प्रयास बेहद महत्वपूर्ण हैं।

इस अवसर पर स्वागत समिति की सदस्य प्रो. भारती एस. कुमार ने 9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव स्मारिका का लोकार्पण किया, साथ दिया मंच पर मौजूद डा. पीएन.पी. पाल, संतोष दीक्षित, कर्मेंदु शिशिर, राणा प्रताप, रणेंद्र, संजय कुमार कुंदन और विस्मय चिंतन ने। संचालन 9वें पटना फिल्मोत्सव के संयोजक संतोष झा ने किया।

हिरावल जन संस्कृति मंच की ओर से 3, 4 और 5 दिसंबर तक आयोजित 9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव में, टू प्लस,द अदर साईड, कैंपस राइजिंग,सतह से उठता आदमी, एक शहर की यादें, कक्कूस, अटकती सांसें, हांफता देश और अनारकली आफ आरा फिल्मों से दर्शक रू-ब-रू होंगे और प्रतिरोध के स्वर से जुड़ेगें।

‘तुरुप’ के पर्दशन से उठा 9वें प्रतिरोध का सिनेमारू पटना फिल्मोत्सव का पर्दा

भारतीय समाज में बढ़ती सांप्रदायिक फासीवादी राजनीतिक प्रवृत्ति चोट करती है ‘तुरुप’. ईरान और बेल्जियम की दो लघु फिल्मों ‘टू प्लस टू’ और ‘द अदर साइड’ ने फासीवाद और तानाशाही के खतरों और त्रासदी के प्रति दर्शकों को आगाह किया. पहले दिन का समापन रूसी क्रांति पर केंद्रित फिल्म ‘अक्टूबर दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ के प्रदर्शन से हुआ। एक दशक से मध्य प्रदेश में काम कर रहे एकतारा कलेक्टिव की पहली फीचर फिल्म ‘तुरुप’ दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी  ताकतों के उभार की पृष्ठभूमि में तीन औरतों की कहानी कहती है। तीनों औरतों के सामने धार्मिक, जातिवादी, वर्गीय और लैंगिक दीवारें हैं, जिनसे वे जूझती हैं। यह एक एक आम कस्बे की कहानी है जिसमें  किसी तरह गुजर-बसर करने वाले लोग शतरंज खेलने के बहाने जुटते हैं। तिवारी जी और माजिद इस कस्बे के सबसे उम्दा खिलाड़ी हैं। तिवारी जी शतरंज के अलावा हिंदू राष्ट्रवाद की बिसात बिछाने में भी लगे हुए हैं। माजिद ड्राइवर है और कस्बे की ही दलित लड़की लता से प्रेम करता है। लता अपनी छोटी सी नौकरी के जरिये अपने बीमार बाप और छोटे भाई की भी गुजर-बसर करती है। तिवारी के लोग हिंदू राष्ट्रवाद के पतीले को सुलगाने में लगे हैं। इसलिए तिवारी का सहायक माजिद और लता के संबंध को पसंद नहीं करता और एक दिन चाय की दुकान पर माजिद के साथ जबरदस्ती करते हुए उसे इस कस्बे को छोड़ने की चेतावनी देता है। माजिद कहीं और से इस कस्बे में कमाने आया है। लेकिन ‘सभी कहीं न कहीं से कमाने आये हैं’- यह खास डायलाग एक आम आदमी शतरंज के खेल के दौरान कहता है जब तिवारी का सहायक माजिद और लता के संबंध के बहाने माजिद को कस्बे से बाहर करने की बात करता है।

तिवारी के राष्ट्रवाद को खाद उभरते हुए उद्योगपति वरुण से भी मिलती है जिसकी अकेली पत्नी नीलिमा गुजरे जमाने की पत्रकार है और अपने पति के पाखंड से ऊब चुकी है। एक नए घटनाक्रम में तिवारी का गैंग कस्बे में हुई एक अंतर्धार्मिक शादी को तूल देने की कोशिश करता है और नीलिमा अपनी घरेलू सहायिका मोनिका के जरिये तिवारी के षड्यंत्र पर एक न्यूज स्टोरी करके पानी फेरती है। तिवारी के गैंग की चाल पर पानी फिरना और चक्की चैराहे के शतरंज के टूर्नामेंट में तिवारी का माजिद के हाथों टूर्नामेंट हारना साथ-साथ चलता है।

फिल्म में एक बूढ़ा एक शेर पढ़ता है-

शतरंज की बिसात बिछाई उसने, हम सब मोहरे मार गए

तकदीर ने ऐसी चाल चली, वो जीत गए हम हार गए।

तुरुप की खास बात यही है कि यह समाज में बुने जा रहे नए षड्यंत्रों को चुपचाप अपनी कहानी का हिस्सा बनाती है, उसके प्रति दर्शकों को सचेत करती है। उन्हें पराजित करने का संदेश देती है। 

इससे पहले यह एकतारा कलेक्टिव 2011 में ‘चंदाके जूते’ और 2013 में‘जादुई मच्छी’ नाम से दो लघु कथा फिल्में निर्मित कर चुका है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद एकतारा कलेक्टिव की रिंचिन का दर्शकों से विचारोत्तेजक संवाद हुआ।

टू प्लस टूरू सच की अभिव्यक्ति रोकी नहीं जा सकती।

बाबाक अनवरी निर्देशित ईरानी लघु फिल्म ‘टू प्लस टू’ ने एक बड़ा संदेश दिया कि फासीवादी ताकतें हिंसा के बल पर झूठ को सच बनाने की जितनी भी कोशिश करें, सच के पक्षधर वाले कभी खत्म नहीं किये जा सकते। फिल्म में एक क्लास रूम है, जिसमें एक संदेश प्रसारित होता है कि क्लास टीचर जो कहे छात्र उस पर विश्वास करें। क्लास टीचर दो और दो का जोड़ पांच बताता है, इस पर छात्र परेशान होते हैं। एक छात्र इस बात पर अड़ा रहता है कि दो और दो का योग चार होता है, तो कुछ गुंडे टाइप के छात्रों को बुलाकर क्लास टीचर उसकी हत्या करवा देता है। इसके बाद फिर छात्रों को निर्देश देता है कि वे उत्तर पांच लिखें। फिल्म दिखाती है कि क्लास रूम में एक लड़का पांच लिखकर फिर उसे काट देता है और वहां चार लिख देता है।

द अदर साइडर- तानाशाह फासिस्ट व्यवस्था की हृदयविदारक त्रासदी

बेल्जियम की संवादरहित फिल्म ‘द अदर साइड’ ने किसी तानाशाह फासिस्ट व्यवस्था के भीतर सामूहिक कत्लेआम के हृदयविदारक दृश्यों को दर्शाया। फिल्म की शुरुआत एक अजीब-सी बेचैनी और डर पैदा करने वाली थीम ट्यून के साथ होती है। एक गली में दोनों तरफ खड़ी इमारतों की पथरीली दीवारों पर दोनों हाथ टिकाए सैकड़ों निहत्थे लोग हैंड्स अप की मुद्रा में धीरे-धीरे सरकते हैं। किसी भी परिचित को देखकर कुछ अभिव्यक्त करने की कोशिश प्राणघातक है। एक काला पुरुष हाथ चोरी छुपे एक गोरी स्त्री के हाथ के करीब पहुंचता है, तब भी गोली की आवाज आती है और काले आदमी की लाश गली में पड़ी दिखाई पड़ती है। दोनों के हाथ में एक सी शादी की अंगूठी है। एक आदमी निडरता के साथ प्रतिरोध में सीना तानकर खड़ा होता है, तो उसकी भी हत्या हो जाती है। फिर लोग सामूहिक प्रतिरोध करते हैं, तो दूसरी तरफ खड़ा हत्यारा बंदूक की जगह मशीनगन का इस्तेमाल करता है। इस फिल्म के शाट्स पर लिखा गया कथाकार मनोज रूपड़ा का एक महत्वपूर्ण लेख फिल्मोत्सव की स्मारिका में मौजूद है। मनोज रूपड़ा के शब्दों में -सात मिनट की इस फिल्म की शाट लिस्ट के आधार पर हम एक और लिस्ट तैयार कर सकते हैं- प्रेम, जान-पहचान, स्पर्श, स्पंदन, सहानुभूति, सहिष्णुता, मानवीय सरोकार, किसी भी तरह की निजी अनुभूति या निजी अभिव्यक्ति या किसी भी तरह की सामूहिकता या एकता या किसी भी तरह की सांस्कृतिक विविधता... ये सब उस अदृश्य संहारकर्ता की बंदूक के निशाने पर है, जो ‘अदर साइड’ में है। फिल्म कहीं से भी यह संकेत नहीं देती कि वह कौन से देश की कौन-सी गली थी, जिसमें इतने सारे लोगों को बंधक बना लिया गया था। जो लोग बंधक बनाए गए थे उनकी कोई ऐसी पहचान भी कहीं उभरकर नहीं आती, कि वे किसी खास देश या नस्ल या संप्रदाय के नागरिक हैं। यह जो मिली जुली पहचानों वाली नागरिकता है, जिसमें काले अफ्रीकी गोरे यूरोपीय, सांवले एशियाई सब शामिल हैं, जब हम इतनी विविध पहचानों को एक साथ एक ही गली में घिरा हुआ देखते हैं तब यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होता कि यह कोई ऐसी गली नहीं है, जिसे हम तथ्यात्मक रूप से किसी देशकाल के संदर्भ में पहचान सकें और अदर साइड से गोलियों की बौछार करने वाला भी किसी एक देश या नस्ल, या संप्रदाय का दुश्मन नहीं है, उसकी गोलियां सब को समान रूप से अपना शिकार बनाती है।

अक्टूबर क्रांति के ऐतिहासिक घटनाक्रम से रूबरू हुए दर्शक

सिनेमा में अक्टूबर क्रांति का पुनर्सृजन

‘अक्टूबर’ यानी ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’

अक्टूबर क्रांति दुनिया के इतिहास की युगांतकारी घटना थी। महान रूसी फिल्म निर्देशक आईसेंस्टिन की फिल्म ‘अक्टूबर’ जो अक्टूबर क्रांति के दस दिनों का आंखों देखा वर्णन करने वाली अमरीकी लेखक जान रीड की पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ से प्रेरित थी और जिसने अक्टूबर क्रांति को सिनेमा के माध्यम से पर्दे पर उतारने चुनौतीपूर्ण काम को संभव किया था। उसे देखते हुए फिल्म के दर्शक रोमांच से भर उठे। आईसेंस्टिन की इस फिल्म के लिए उन महलों, सड़कों को खाली करवा दिया गया था जहां सचमुच क्रांति घटित हुई थी ताकि वे क्रांति को पूरी विश्वसनीयता और आवेग के साथ चित्रित कर सकें। जार के सैनिकों और क्रांतिकारियों के बीच हुए संघर्षों के साथ- साथ बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच के राजनैतिक संघर्ष, मेन्शेविकों के नेताओ की जारशाही के साथ गठजोड़ और उनके समर्थकों को बोल्शेविकों के साथ मिल जाने की हकीकतों को भी दर्शकों ने देखा। यहां तक कि जारशाही की सेना भी धीरे-धीरे टूटकर क्रांतिकारियों के साथ मिल जाती है। यह फिल्म आज भी देश-दुनिया में फिल्म-कला के छात्रों को पढ़ाई जाती है।                              

लोकार्पित स्मारिका 9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव का संपादन सुधीर सुमन ने किया है। इस स्मारिका में ओमपुरी, कुंदन शाह, कुंवर नारायण पर स्मृति लेख हैं। फिल्मोत्सव में दिखाई जाने वाली फिल्मों पर कुछ महत्वपूर्ण लेख भी हैं। स्मारिका का लोकार्पण प्रो. भारती एस.कुमार ने किया।                    

9वां प्रतिरोध का सिनेमा पटना महोत्सव स्थल कालीदास रंगालय हाल खचा खच भरा रहा। इस महोत्सव को पटना पुस्तक मेला भी प्रभावित नहीं कर सका। दर्शकों ने महोत्सव का पूरा लुत्फ उठाया। प्रेक्षागृह के बाहर खूबसूरत सजावट की गई है। गार्गी प्रकाशन और समकालीन प्रकाशन की ओर से किताबों का स्टाल भी लगाया गया है। 

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सम्पादक

डॉ. लीना