विनीत कुमार/ पैसे के मामले में चुनाव, कारोबारी मीडिया के लिए बाढ़ की तरह आता है. इस बाढ़ में मृतप्राय संस्थान भी जी उठते हैं और कई रातोंरात प्लेटफॉर्म खड़े हो जाते हैं. चुनाव ख़त्म होते ही बाढ़ के पानी की तरह पैसा कम होने लग जाता है और धीरे-धीरे इतना कम कि ज़रूरी खर्चे पर भी रोक लगायी जाने लगती है.
कारोबारी मीडिया के भीतर अब जबरदस्त ढंग से खींचतान, आर्थिक तंगी और छंटनी का दौर शुरु होगा. कल तक जिन चैनलों और डिजिटल प्लेटफॉर्म के मीडियाकर्मी भारत के ऐसे-ऐसे इलाके में पहुंचते रहे जहां कि चुनावी प्रत्याशी और उनके दस तक नहीं गए, अब दिल्ली-एनसीआर की ख़बरों की कवरेज के लिए सवाल-जवाब किए जाएंगे. लिहाजा फील्ड/ ग्राऊंड शब्द और दावे के साथ कार्यक्रम प्रस्तुति न के बराबर होगी और यह जिम्मेदारी एडिटिंग मशीन की संतानों पर लाद दी जाएगी.
चुनाव के दौरान जिन मीडियाकर्मियों को हीरो की तरह पेश किया गया, अब उनका काम बिचौलिए की तरह होगा जो मैनेजमेंट और मीडियाकर्मी के बीच तालमेल बिठा सके या फिर वो पूरी सीन से ही ग़ायब हो जाएंगे.
भारत में चुनाव अपने आप में एक उद्योग बन चुका है जिसमें किए जानेवाले खर्च का बड़ा हिस्सा कारोबारी मीडिया की कमाई में तब्दील होता है. अगले कुछ महीने तक इस कमाई में भारी गिरावट आएगी और मीडियाकर्मियों के बीच जबरदस्त असंतोष, बेचैनी और व्यक्तिगत तौर पर आर्थिक-मानसिक स्तर की तंगी. बडी संख्या में मीडियाकर्मी तब जिस सिस्टम पर सवाल उठाते रहे, उसके भीतर अपनी संभावना खोजने में लग जाएंगे. यूजीसी-नेट की तैयारी, पीएचडी के लिए जोड़-तोड़ और एकेडमिक्स में हाथ-पैर मारते नज़र आएंगे.