धीरज भारद्वाज/ नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत में मीडिया के कुछ घरानों ने जमकर उनके खिलाफ मोर्चा खोला. अच्छा लगता अगर ये मोदी सरकार के गठन के बाद भी अपने तेवरों पर कायम रहते और सरकार के क्रियाकलापों पर 'लोकतंत्र के पहरेदार' की हैसियत से नजर रखते. विपक्ष के मटियामेट होने की स्थिति में इन विपरीत विचारधारा वाली मीडिया की भूमिका और महत्त्वपूर्ण हो जाती, लेकिन ये रीढ़विहीन प्राणी इस काबिल भी नहीं हैं कि किसी के साथ खड़े हो सकें.
ज्यादातर मीडिया घरानों ने अपने तेवर एक्जिट पोल और चुनावी नतीजों के साथ ही रातों-रात बदल लिये. अब ठीकरा पत्रकारों के सर फोड़ कर उनकी कुर्सियां बदलने की तैयारी है. अभी से ही इनके इरादे समझ में आने लगे हैं. सारे चैनलों-अखबारों के मालिक या तो किसी भगवाधारी पत्रकार को मोटी तनख्वाह पर नौकरी पर रखने की कोशिश में जुट गये हैं या फिर उन्हीं चंपुओं से मोदी का गुणगान करवाने लगे हैं जो कल तक उन्हें पानी पी पी कर कोस रहे थे. चाहे 'बहुत क्रांतिकारी' धुरंधर ऐंकर हों या खुद को टीआरपी किंग कहने वाले 'टॉप बैंड टापरी', सबके सुरों को मालिकों ने सप्तम सुर में कस दिये हैं.
दरअसल अधिकतर चैनल-अखबार उन बहुधंधी मालिकों के हैं जिन्हें अपनी वफादारी सत्ता के प्रति इसलिये बना कर रखनी पड़ती है कि उनके दूसरे कारोबार बेरोकटोक चलते रहें. उन्हें भी तलाश रहती है ऐसे भाटनुमा पत्रकारों की जो शासकों का गुणगान लिखने और पढ़ने में महारत हासिल किये रहते हैं. कुछ तो अपनी नैतिकता ताक पर रख के सरकार में शामिल नेताओं की चमचागिरी में कीर्तिमान स्थापित किये रहते हैं और यकीन मानिये, जनता को सबसे ज्यादा मजा उन्हें ही सुर बदलते देखने में आता है.