मनोज कुमार झा। पहले समाचार-पत्रों में उप सम्पादक बन जाना बहुत बड़ी बात होती थी। उप सम्पादक को अख़बार का 'बैक बोन' माना जाता था। चीफ़ सब एडिटर के ग़ज़ब के जलवे होते थे। समाचार सम्पादक होना तो बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी और उसके अधिकार भी बहुत होते थे। फिर डिप्टी एडिटर और असिस्टेंट एडिटर। अब इन सभी पदों का पूरी तरह अवमूल्यन हो चुका है। उप सम्पादक तो छोड़िए, मैंने हालिया दौर में ऐसे भी समाचार सम्पादक और डिप्टी एडिटर देखे हैं, जिनसे दो पैराग्राफ़ शुद्ध लिखते नहीं बनता। मैनेजमेंट योग्यता को ताक पर रख कर इन पदों को रेवड़ियों की तरह बाँटता है। सम्पादक पद का पूरी तरह अवमूल्यन हो गया है। वास्तव में, उसके कुछ अधिकार रह ही नहीं गये हैं। वह महज़ मैनेजमेंट का आदेशपालक, एक कारिंदा भर रह गया है। बहुत ही दुखद स्थिति है। इससे मीडिया की साख दिन-ब-दिन ख़त्म होती जा रही है। मीडिया घटिया मनोरंजन का एक साधन मात्र बनता जा रहा है और जो युवाओं को कुसंस्कारित करने में, भाषा को विकृत करने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है।