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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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न्यूज पोर्टल ऐसे शीर्षक लगाते हैं जो पाठक की आदिम आदत का पोषण कर सकें

विनीत कुमार। न्यूज वेबसाइट/पोर्टल  की स्टोरी का शीर्षक लगाने के पीछे का मनोविज्ञान भीतर की सामग्री क्या है, ये बताना नहीं बल्कि हमारे पाठक ताक-झांक की आदत के साथ बड़े हुए हैं तो क्लिक करेंगे ही से आत्मविश्वास के साथ अपना कारोबार जारी रखना होता है.

वेबसाइट मानकर चलते हैं कि हमारे पाठक दूसरे के बेडरूम में क्या चल रहा है, दूसरे के कपड़े के भीतर से क्या झांक रहा है, सामनेवाले घर के वॉशरूम का शीशा टूटा होने से क्या साफ़-साफ़ दिख जाता है, दूसरों की ज़िदगी में क्या चल रहा है…इन सबकी ताका-झांकी करते हुए बड़े हुए हैं तो हमारा काम उनकी इस आदत को बरक़रार रखना है. ऐसे में वो सामान्य बात के साथ ऐसे शीर्षक लगाते हैं जो उनकी इस आदिम आदत का पोषण कर सकें. छिछोरापन शब्द सुनने में जितना बुरा लगता है, कारोबारी मीडिया के लिए ये उतना ही बड़ा बाज़ार है और वो ख़बरों के कारोबार में शामिल होते हुए भी इसे बखूबी समझते हैं. ऐसे में अपराध से जुड़ी ख़बर के साथ भी सॉफ्ट पोर्न जैसा असर पैदा करनेवाले शीर्षक लगाए जाते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं. 

आपको जानकर न तो हैरानी होगी और न ही आश्चर्य कि इस खेल में वैसे मीडिया संस्थान भी शामिल हैं जो उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए पुरस्कार देते हैं और वो भी जिन्हें झोली भर-भरकर उत्कृष्ट कार्य के लिए सम्मान मिलते हैं. डिजिटल प्लेटफॉर्म पर शीर्षकों को लेकर एक ऐसा चलन सेट हो गया है कि हम-आप आलोचना के नाम पर “ क्लिक-बेट” शब्द का इस्तेमाल करके संतोष कर लेते हैं, ठीक वैसे ही जैसे टीवी की आलोचना के लिए “ अजी ये सब टीआरपी के लिए करते हैं” बोलकर हमारे भीतर प्रचंड मीडिया विशेषज्ञ होने का सुख प्राप्त हो जाता है.

हमारी कुंठाओं, वर्जनाओं, दमित इच्छाओं का क्या होता है, इन सब पर खुलकर बात करने का माहौल हमने नहीं पैदा किया लेकिन कारोबारी मीडिया ने इनके बीच इतने सहज ढंग से बिजनेस पैटर्न विकसित कर लिया कि हमें कुछ भी अटपटा या झोल नहीं लगता.

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना