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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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पिछले तीन वर्षों में एक-एक कर सात

चेत सके तो चेत जाएं

राकेश प्रवीर/ पिछला तीन साल बिहार के पत्रकारों के लिए क्रूर रहा हैं। हर कुछ महीने के अंतराल पर बिहार के किसी न किसी हिस्से में किसी न किसी पत्रकार की हत्या महज अपराध की समान्य घटना नहीं है। सभी पत्रकारों की हत्या के पीछे कारण "खबर" रही है। ऐसे में इन तमाम हत्याओं के लिए सतही पुलिसिया अनुसंधान और थ्यूरी को स्वीकारना सहज नही है। 

बिहार में पिछले कुछ वर्षों में मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक) की पहुंच और ताकत (प्रसार-प्रसारण) बढ़ी है। मीडिया की सक्रियता से पुलिस-पोलटिसियन व माफिया नेक्सेस बेनकाब हो रहे हैं। 

2015 से लेकर अब तक बिहार के कई हिस्सों में सात पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। आरा, सासाराम, गया,समस्तीपुर, सीवान, सीतामढ़ी में पत्रकारों को खबर की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी है। यही नहीं कई जगहों पर उनके ऊपर हमले भी हुए हैं। पिछले साल बिहार के अरवल में एक दैनिक अखबार के पत्रकार को गोली मार दी गई थी। तत्कालीन उप मुख्यमंत्री के सुरक्षाकर्मियों द्वारा सचिवालय पोर्टिको में पत्रकारों के साथ मारपीट की गई थी।

अनेक जगहों पर नेताओं और उसके गुर्गों द्वारा पत्रकारों से मारपीट, दुर्व्यवहार ,धमकी देने के मामले भी सामने आए। 2016 में सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई थी। उसके बाद काफी हंगामा हुआ। हत्या के आरोप शहाबुद्दीन के ऊपर लगे। फिर बिहार के ही सासाराम में पत्थर माफियाओं के खिलाफ खबर लिखने की वजह से पत्रकार धर्मेंद्र सिंह की हत्या अपराधियों ने गोली मारकर कर दी थी। इसकी गूंज प्रदेश व देश में सुनाई दी थी। 

वहीं, 2015 में बिहार के सीतामढ़ी अजय विद्रोही की हत्या हो गई थी। इस मामले में आरोप एक फ्लोर मिल संचालक पर लगा था। 

गया में पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की हत्या भी अपराधियों ने गोली मारकर कर दी थी। इसके पीछे भी खबर ही वजह बताई गई थी। वहीं, पटना से सटे फुलवारीशरीफ में पत्रकार ललन सिंह की भी हत्या हुई थी। अब आरा में पत्रकार नवीन निश्चल व विजय सिंह की हत्या आरोपियों ने स्कॉर्पियो को कुचलकर कर दी। इस मामले में आरोपी हरसू मियां को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। उसके दोनों आरोपी बेटे अभी फरार चल रहे हैं। 

 

पिछले कई साल से देश व प्रदेश के स्तर पर नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट(आई) सहित अन्य पत्रकार संगठनों की ओर से "पत्रकार सुरक्षा कानून" बनाने की मांग हो रही है, मगर देश और प्रदेश की सरकारें कान में तेल डाल कर सोई हुई है। पत्रकार कुनबे में बंटे हुए हैं। मीडिया घरानों के मालिकानों की चांदी कट रही है। सत्ता और मालिकानों का दोस्ताना गठजोड़ कलमजीवियों को आह भरने की भी इजाजत देने के लिए  तैयार नहीं है। यह वाकई विकट समय है। चेत सके तो चेत जाएं....।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना