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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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फ्रीलांसर के हकों की चर्चा कब और किस तरह होगी

 पुष्पराज शांता शास्त्री /  माननीय श्री --- जी,

शायद मुझसे आप अनजान हों। अनजान को पत्र भेजकर संवाद स्थापित करने की प्राचीन परंपरा रही है।भारतीय पत्रकारिता में हाल के वर्षों में यह परंपरा मृत हो गई है।किन्हीं के घर का पता नहीं मालूम कि उनके पास डाक से पत्र भेज दो।उनका whatsapp number उपलब्ध है तो उन्हें कुछ भी लिख भेजिए, वे जवाब नहीं देंगे।

दरअसल ,जवाब वे इसलिए नहीं देते हैं कि हम जिस विषय पर उन्हें खतो-इबादत भेजते हैं।वह विषय उनकी प्राथमिकता का विषय नहीं है।

आप सोशल मीडिया को क्रांति मानने वाले प्रवक्ताओं में हैं इसलिए मैं आपसे कह सकता हूँ कि अगर पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम जैसे सम्मानित पत्रकार यूट्यूब स्थापित कर वयंभू चेतना से स्वयंभू वाद को बल प्रदान करते हैं तो रवीश सदृश ब्रांडेड यूट्यूबर से हम अपेक्षा भी नहीं रख सकते कि वे अपने निजी संबंधों में पत्रकारिता के मूल्यों का पालन करें।

हिन्दी पत्रकारिता में फ्रीलांसर के छपने की जगह जिस तरह समाप्त हुई ।अब हिन्दी अखबारों के लिए फ्रीलांसर एक वर्जित शब्द है।फ्रीलांस जर्नलिज्म बिहार जैसे प्रदेश में तो वर्जित और तिरस्कृत कार्य है।जिस फ्रीलांसर को जनसत्ता,प्रभात खबर टॉप लीड छापते थे।जिसके लेख हिंदुस्तान,भास्कर अपने संपादकीय पन्ने में छापते थे।सबकी प्राथमिकताऐं बदल गई और हम सदृश फ्रीलांसर एक अवांछित नाम हो गए।

मैं अक्सर सोचता हूँ कि एक फ्रीलांसर के लोकतांत्रिक अधिकार क्या हैं?हिन्दी के एक फ्रीलांसर के लोकतांत्रिक हकों की चर्चा कब और किस तरह होगी।

हिन्दी पत्रकारिता के सबसे उर्वर प्रदेश बिहार में पत्रकारिता अगर मुख्यमंत्री के चरणरज से ही प्रभावित होगी तो क्या बिहार में पत्रकारिता के लोकतंत्र की चर्चा नहीं होनी चाहिए?

दिल्ली में जनता के हक की पत्रकारिता के पैरोकार पत्रकार बिहार आकर उसी समूह के साथ खड़ा होते हैं,जो मुख्यमंत्री परस्त पत्रकारिता के प्रवक्ता हैं।क्या आप बिहार की पत्रकारिता को मुख्यमंत्री के नकेल से मुक्त करने की बात इसलिए नहीं करेंगे कि रवीश कुमार आपसे नाराज हो जाएंगे।

विनीत जी,ये बड़े नाम और इन बड़े नामों से बड़ी चीज हमारी पत्रकारिता है।हमारी हिन्दी पत्रकारिता अगर अपनी जिम्मेवारियों से मुकर रही है तो इसके लिए प्रभाष जोशी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने बिहार की मुख्यमंत्री परस्त पत्रकारिता की जाँच के लिए एक तथ्य अन्वेषण समूह गठित किया था।प्रेस काउंसिल की उस बिहार केंद्रित समिति ने अपनी रिपोर्ट भी जारी की पर आपने सुना है कि दिल्ली में बिहार की मुख्यमंत्री परस्त पत्रकारिता के खिलाफ कोई चर्चा हुई है?

जो खुद को प्रगतिशील,जनवादी मानते हैं ,वे बहुजनवादियों को नाराज नहीं करना चाहते हैं।जो बहुजन वादी मानते हैं कि बहुजनवाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़ा हुआ है इसलिए मंडल की कोख से निकले नवरत्न इतिहास नष्ट करें या इतिहासघर नष्ट करें ,इस खबर को दबाने से बहुजन मुख्यमंत्री का हित होगा।

आप "मीडिया में लोकतंत्र " विमर्श को आगे बढ़ा रहे हैं इसलिए मैंने आपके समक्ष प्रश्न रखा है कि क्या बिहार में पत्रकारिता के लोकतंत्र पर आप मेरे साथ विमर्श करना चाहेंगे।अगर विमर्श करना चाहेंगे तो बहुत प्रसन्नता होगी इसलिए कि दिल्ली के स्थापित पत्रकारों ने मेरे प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है।

सादर सविनय-पुष्पराज, पटना से

(फेसबुक पर लिखी गई एक पोस्ट पर पुष्पराज शांता शास्त्री जी की एक टिप्पणी, जरूरी सवाल उठाते हुए ... साभार) 

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सम्पादक

डॉ. लीना