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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मिडिया का घेरा और स्वतंत्र राय

राम जी तिवारी/ किसी भी मुद्दे पर राय बनाते समय आप कौन सी तकनीक अपनाते हैं । एक तो यह होता है कि जो मुख्यधारा की मीडिया में बात प्रचारित की जा रही होती है, हम उसी के साथ अपना सुर भी मिलाने लगते है। दूसरे यह भी संभव है कि हम मुख्यधारा की मीडिया से इतना चिढ़े होते हैं कि वह जो भी कहती है, हम पहली ही बार में उसे यह कहते हुए खारिज कर देते हैं कि यह गलत ही होगा। 

इन दोनों अतिवादी छोरों से अलग एक तीसरी धारा भी है जिसमें आप मीडिया की बातों को सुनते तो हैं । लेकिन उसमें अपने अनुभवों और सूचना के विभिन्न स्रोतों को जोड़ते हैं । हम एक बारगी में न तो किन्ही खबरों को स्वीकार करते हैं और न ही अस्वीकार । वरन उसे अन्य स्रोतों सें जांचते हैं और अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अपनी राय विकसित करते हैं । यह बात उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब विमर्श में आये हुए मुद्दे पर कोई एक राय नहीं होती । या कि उसमें अलग राय की पर्याप्त संभावना होती है। 

ऐसे मुद्दों को जांचने के लिए मैं अपने आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ । चुकि कोई मुद्दा जिस समय विमर्श में उठ रहा होता है उस समय हम उस पर निर्णायक रूप से कुछ नहीं कह सकते हैं कि अमुक बात बात ही सही है या अमुक बात गलत है। लेकिन अधिकतर मसलों में समय बीतने के साथ ये बाते भी लगभग स्पष्ट हो जाती है कि सच्चाई का पलड़ा किस बात की ओर झुका हुआ है। 

तो मैं ऐसे मसलों को एक वर्ष बाद फिर से मुड़कर देखने की कोशिश करता हूँ कि जिस समय यह मुद्दा विमर्श में आया था उस समय उस पर मेरी क्या राय थी । और अब जबकि बात लगभग साफ़ हो चुकी है तो मेरी राय उसमें कहाँ पर स्थान रखती है । ऐसे मुद्दों पर मैं अपनी राय को जांचकर यह तय कर सकता हूँ कि मेरे अपने दिमाग की सोचने की दिशा सही है या गलत। 

और यह भी कि मैं जब मुख्यधारा की मीडिया से इत्तेफाक रखता हूँ या उससे स्वतन्त्र राय रखता हूँ तो उसमें मेरी राय की स्थिति कहाँ पर होती है। 

जैसे नोटबंदी के समय एक बात बड़ी तेजी के साथ फैलाई जा रही थी कि भारत अब कैशलेश अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है । कई लोग उसे थोड़ा और परिमार्जित करके लेशकैश अर्थव्यवस्था का  नाम दे रहे थे । ऐसे लोग उन लोगों का मजाक उड़ा रहे थे जो कैश पाने की जिद्दोजहद में दिन रात संघर्ष कर रहे थे।  ये लोग उन्हें पिछड़े मान रहे थे और एक तरह से देश पर बोझ भी। क्योंकि इनका यह मानना था कि करेंसी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के कारण नोटबंदी के तरीके की आलोचना हो रही है। और इसके कारण सरकार भी कटघरे में आ रही है । 

जबकि वस्तुस्थिति यह थी कि एक रात में देश कैशलेश या लेशकैश अर्थव्यवस्था की तरफ नहीं जा सकता था। यानि कि जो लोग कैश पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे वे एक वास्तविक समस्या से जूझ रहे थे। वे देश के ऊपर बोझ नहीं थे, न ही उनका इरादा  सरकार को बदनाम करने का था।

नोटबन्दी के वर्ष भर बाद समाचार पत्रों में यह आंकड़ा छपा था कि 8 नवम्बर 2016 से पहले अर्थात नोटबंदी से पहले जितना पैसा (लगभग 17 लाख करोड़) पब्लिक के पास था, एक साल बाद लगभग उतना ही पैसा फिर से पब्लिक के हाथों में पहुँच गया था। और आज पांच वर्ष बाद वह रकम लगभग 29 लाख करोड़ तक पहुंच गयी है। यानि कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में पब्लिक के पास इतनी करेंसी की जरूरत आज भी बनी हुई है। 

अब हम खुद को ऐसे सवालों के सामने रखकर तय करें कि हम नोटबन्दी के समय किस राय के साथ खड़े थे । बल्कि सवाल सिर्फ नोटबंदी का नहीं होकर कई अन्य विषयों तक भी विस्तारित हो सकता है कि हम उन मुद्दों पर उस समय कहाँ खड़े थे और किन व्यक्तियों और संस्थाओं ने हमारी समझ को बनाया या बिगाड़ा।  

जिन माध्यमों ने हमारी समझ को बनाया, उनका आभार व्यक्त कीजिए । और जिनकी वजह से हम शर्मिंदा हुए, उन्हें अपने जीवन से दूर कीजिए । विवेक का तकाजा तो यही कहता है ।

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सम्पादक

डॉ. लीना