लेकिन इसे वैकल्पिक मीडिया नहीं कहा जाना चाहिए
उर्मिलेश/ सोशल मीडिया लोगों को सूचना और थोडा ज्ञान तो दे रहा है. पर इसका बड़ा हिस्सा लोगों से उनकी सह्रदयता और संवेदना छीन रहा है. समझदार बनाने की जगह अनेक लोगों को नासमझ बना रहा है. लोगों में उद्दंडता, इगो और उग्रता बढ़ा रहा है. यहां तक कि वह अज्ञानता और प्रचंड मूर्खता का बेधड़क प्रचार भी कर रहा है! ह्वाट्सअप, ट्विटर(X) और फेसबुक, हर प्लेटफॉर्म पर कहीं ज्यादा कहीं कम; यह प्रवृति और स्थिति साफ नजर आती है. इंटरनेट-आधारित वैकल्पिक मीडिया के अनेक प्लेटफॉर्म सामने आये हैं. इनमें यूट्यूब सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ है. निस्संदेह इसकी बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका है. हाल के भारतीय लोकसभा चुनाव में इसका जलवा देखा जा चुका है. इसके एक उल्लेखनीय हिस्से की डेमोक्रेसी बचाने के प्रयासों में सकारात्मक भूमिका रही. लेकिन इस विधा में इतना कूड़ा-करकट और जाहिलपन है कि उसे नजरंदाज करने के कम खतरे नहीं हैं!
सोशल मीडिया को उसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष के साथ ही देखा जाना चाहिए. लेकिन इसे वैकल्पिक मीडिया नहीं कहा जाना चाहिए. क्योंकि इस सोशल मीडिया के पास सुस्पष्ट मानवीय सरोकार और सुविचारित-साझा मूल्य या मानदंड नहीं हैं! मीडिया (टीवीपुरम् और दलाल प्रकाशनों को इसमें नहीं शामिल करें) की तरह इसमें प्रोफेशनलिज्म भी नहीं है.