कौशल किशोर । एक तरफ यह सरकार फेसबुक पर लिखे के लिए लेखक का दमन करती है। दूसरी तरफ करोड़ो रुपये पुरस्कार के नाम पर बांटती है। उसके मन में लोकतंत्र के लिए क्या सम्मान है, यह सर्वविदित है। साफ है कि वह लेखकों का सम्मान नहीं करना चाहती बल्कि वह लेखकों, साहित्यकारों व बौद्धिकों के बीच अपनी जमात खड़ी करना चाहती है।
साहित्य का क्षेत्र सेवा व संघर्ष का क्षेत्र है। कभी प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज हालत क्या है ? साहित्य राजनीति के पीछे घिसट रही है। वे सारी प्रवृतियां जो राजनीति में हावी हैं, साहित्य भी उन्हीं प्रवृतियों का शिकार हो गया है। कई बार लगता है कि यह हिन्दी साहित्य का सर्वाधिक पतनशील काल है। कहा जा रहा है कि साहित्य पर बाजारवाद का दबाव है। नहीं, साहित्य पर बाजारवाद का प्रभाव है। कवि नरेन्द्र जैन जब यह कहते हैं कि यह साहित्य में इवेंट मैनेजमेंट का काल है तो कहीं से यह गलत नहीं है।
संपादक मैनेजमेंट, प्रकाशक मैनेजमेंट, आलोचक मैनेजमेंट, पुरस्कार व सम्मान मैनेजमेंट चल रहा है। हो क्या रहा है ? ‘रचना करो, किताब छपवाओ, जुगत व तिकड़म भिड़ाओ और पुरस्कार लो’ जैसी प्रवृतियां हावी हैं। आज जब सपनों का पालना खतरनाक है, ऐसे समय में साहित्य सपनों व संघर्ष से दूर हो रहा है। तभी तो मैनेजर पाण्डेय जैसे आलोचक को कहना पड़ रहा है ‘कवि पुरस्कृत हो रहे हैं, कविता बहिष्कृत हो रही है’। मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी हमारे हिन्दी साहित्य के लिए भी उतना ही सच है जितना कविता के लिए। कभी लखनऊ प्रगतिशील आंदोलन का केन्द्र था, आज यह पुरस्कारों व सम्मानों की स्थली बनता जा रहा है। ऐसा क्यों हो गया है, क्या इस पर सोचने व विचारने की जरूरत नहीं ?