इलाहाबाद। मीडिया पर राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिका जनसंचार विमर्श का दूसरा अंक न्यू मीडिया पर केन्द्रित है। पत्रिका में देश के माने जाने मीडिया विशेषज्ञयों के अलावा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के अलावा कई पत्रकारिता विषय में शोधरत विद्यार्थियों के भी शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।
पत्रिका में न्यू मीडिया और सोशल मीडिया के कारण जो परिवर्तन पत्रकारिता के क्षेत्र में आया है उस विशेष चर्चा की गई है। पत्रिका में जहां सोशल मीडिया के सामाजिक प्रभाव पर चर्चा की गई है वहीं पर न्यू मीडिया ने किस तरह से सामाजिक परिवर्तन और उस के विकास को किस तरह से प्रभावित किया उस पर भी एक व्यापक बहस को स्थान दिया है। पत्रिका में सोशल मीडिया में हिन्दी की स्थिति पर विनीत उत्पल का लेख एक नई रोशनी दिखाता है। उनके लेख ने एक प्रश्न सब से किया है कि क्या देश और दुनिय के विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों में कार्यरत हिन्दी के विद्वान हिन्दी को बढ़ा रहे हैं या फिर आम इंटरनेटसेवी इस भाषा के प्रचार-प्रसार और दबंगता का पताका दुनिया के सामने फहरा रहे हैं। वहीं पर संदीप कुमार के शोध पत्र सोशल मीडिया समाज के लिए वरदान है या खतरा काफी गंभीर प्रश्नों को उकेरता है। उन्होंने अपने शोध पत्र के माध्यम से यह बात कही है कि सोशल साइट्स ने पूरे दुनिया को ग्लोबलविलेज के रुप स्थापित किया। उन्होंने आगे लिखा है कि आज बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक अपनी अभिव्यक्ति को सोशल मीडिया के माध्यम से स्थापित कर रहे हैं। ऐसे में इसकी तमाम बुराईयों से बचने का एक ही उपाय है वह है स्वविवेक का उपयोग। जब हम स्वविवेक का उपयोग शुरु कर देंगे तो स्वतः ही इन सोशल मीडिया से उत्पन्न खतरे दरकिनार हो जायेँगे।
संजय कुमार का लेख सोशल मीडिया में दलित विरोध एक बड़े प्रश्न की ओर इशारा करता है? इसके अलावा अंगे्रजी में कई महत्वपूर्ण शोध पत्र एवं आलेख में भी न्यू मीडिया और सोशल मीडिया के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की है। अंग्रेजी में विशेष तौर से डा शालिनी नारायन का शोध पत्र ट्वीटर को पत्रकारिता के स्रोत और टूल्स के रुप में चाहे वह सरकार की बात हो या आम जन की सभी के लिए किस तरह से प्रासंगिक है इस पर चर्चा की है। इनके अलावा डा. पवित्र श्रीवास्तव, मोमिता चैधरी, शांतनु बनर्जी, डा. विनोद पाण्डेय एवं मनप्रीत कौर और लखविंदर सिंह का संयुक्त शोध पत्र न्यू मीडिया टूल्स पर उसके उपयोग और दुरुपयोग पर काफी चर्चा की इसके अलावा भी अनेक शोध पत्रों एवं लेख ने पत्रिका को एक नया आयाम प्रदान किया है।
पत्रिका के संपादक संदीप कुमार श्रीवास्तव ने न्यू मीडिया या सोशल मीडिया पर अपने संपादकीय में लिखा है कि 1 अरब 20 लाख की आबादी वाले विशाल देश में 10 प्रतिशत की वह आबादी जिस मीडिया की बात कर रहा है, कैसे भारत की आवाज बन सकती है। देश में बिजली की उपलब्धता की जो स्थिति है क्या उस स्थिति में कितने लोग इस न्यू मीडिया का उपयोग कर पायेंगे, और आप इस बात से कैसे अनभिज्ञ हो सकते हैं कि कितने प्रतिशत लोग अभी कम्प्यूटर साक्षर हैं। उनका मानना है कि जिस देश की आबादी के 82 करोड़ लोग 20 रुपये से कम कमाते है वहां पर किस तरह से न्यू मीडिया या सोशल मीडिया को आमजन की आवाज मान लिया जाए। सामाजिक संबंधों और मर्यादाओं की अगर बात की जाये तो कुछ हद तक संचार माध्यम उपयोगी होते हैं पर इनकी विकृतियों से भी आप अपने आप को अलग नहीं कर सकते।
व्यक्ति की निजता आज मानव अधिकार और नये समाज में काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही है। हालांकि इस निजता के कई पहलू हो सकते हैं। जहां तक सार्वजनिक जीवन के और उच्च पदों पर बैठे लोगों की बात है तो उनके सामाजिक और निजी जीवन में कोई भेद नहीं किया जाना चाहिए। उनका सार्वजनिक जीवन उनके निजी जीवन की कसौटी होगी परंतु इन संचार माध्यमों का उपयोग कियी को अपमानित करने या झूठा बदनाम करने के लिए नहीं होना चाहिए।
पत्रिका के संपादक संदीप कुमार श्रीवास्तव ने जानकारी दी है कि पत्रिका का अगला अंक हिंदी सिनेमा के शताब्दी वर्ष पर आ रहा है। इसके बाद का अंक सूचना का अधिकार कानून का सामाजिक प्रभाव और मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित रहेगा।
इस संबंध में सभी सुधी पाठकों, विद्वानों एवं मीडिया प्रोफेशनल्स के लेख एवं शोध पत्र आमंत्रित हैं। इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए आप संपर्क कर सकते हैं इस मोबाइल नंबर पर बात कर सकते हैं- 09454212538 या ईमेल कर सकते हैं- sandeepkumarsri@gmail.com