अंबरीश कुमार । साप्ताहिक अख़बार और पत्रिका के बीच दो तीन दिन ख़बरों का दबाव बहुत कम होता है। इसलिए आज एक विचार रखा अख़बार बनाम संपादक का। पत्रकारिता में अपने ऊपर रामनाथ गोयनका का भी बड़ा प्रभाव रहा है तो प्रभाष जोशी ने अपने समेत बहुत लोगों को गढ़ा।
इस बहस के बीच कहीं न कही अशोक बाजपेयी रहे। ... ..अपना कोई संबंध कभी नहीं रहा ,साहित्य से भी दूर ही रखा गया हालांकि एक बार नैनीताल में अवकाश पर था तो पूर्व संपादक का फोन आया कि बहन जी यानी मायावती ने साहित्यकारों काअपमान कर दिया है और आपने कुछ भेजा नहीं। इनमे अशोक बाजपेयी भी है। मैंने कहा अवकाश पर हूं । पर उन्होंने कहा वही से भेज दे तब कई लोगों से बातचीत कर उनके अपमान का हिसाब बराबर किया।
वैसे बहन जी के लिये क्या साहित्य क्या पत्रकारिता । नंदन समझा दे या सहगल। वे उतना ही समझती भी रही । खैर प्रभाष जी तो उनके बारे में लिखते भी रहे क्या क्या । अपने राय साब के विचार भी जानता हूं । पर साहित्य क्षेत्र के वे बड़ी विभूति है और रहेंगे भी ।
यह बता दूं कि अख़बार के कद से ही संपादक का कद बनता है चौरासी पिचासी से पहले न कोई प्रभाष जोशी को ठीक से जानता था न माथुर साहब को। इन लोगों ने दिल्ली की पत्रकारिता में अपने अखबार से अपना कद बनाया था । और रामनाथ गोयनका ने जब कुलदीप नैयर को हटाया था तब यही कहा था -कोईसंपादक अख़बार और संस्थान से ऊपर नही होता । यह मंडल बाद अरुण शौरी को हटाते समय भी दोहराया गया । इसलिए संपादक को पहले अखबार बनाना पड़ेगा फिर वह संपादक बनेगा । जोअखबार बिगाड़ने में जुटा वह इतिहास के कूड़ेदान में चला जायेगा। अपनी यही समझ है। (अंबरीश कुमार के फेसबूक वाल से साभार)
*अंबरीश कुमार जी वरिष्ठ पत्रकार है,'जनसत्ता' से जुड़े रहे है और इन दिनों "शुक्रवार" के संपादक है ।