Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

आप देख रहे हैं दर्शकों की हत्या का सीधा प्रसारण

आज न्यूज़ रूप में रिपोर्टरों का ढांचा ढह गया है

रवीश कुमार/ दो दिन से सोचता रहा कि चीन ने जो सम्मेलन बुलाया है, वो क्या है, क्यों भारत का जाना या न जाना ठीक है, उस पर पढ़ाई करूंगा। लेकिन जाने कहां वक्त धूल की तरह उड़कर चला गया। जस्टिस कर्णन से जुड़े विवाद से संबंधित एक भी ख़बर नहीं देख पाया। घर और दफ्तर के काम का दबाव इतना रहता है कि आप अख़बार भी ठीक से नहीं पढ़ पाते। यह हाल तब है कि जब मैं दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता हूं। इसके बाद भी मुमकिन नहीं है कि अकेले सभी ख़बरों को गहराई से पढ़ने और समझने का बीड़ा उठा लूं और उन पर लिख-बोलकर अपना फ़र्ज़ पूरा कर लूं। हर मिनट कोई न कोई व्हाट्स अप में मेसेज ठेल देता है कि आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा। आपसे उम्मीद है। अब ऐसी बातों से चिढ़ होने लगी है। आख़िर लोग इतने मूर्ख कैसे हो सकते हैं। क्या उन्हें वो ‘स्ट्रक्चर’ नहीं दिखता जिसके हम सब कल-पुर्ज़े हैं। जब टायर पंचर हो,चेन उतर गई हो और हैंडल टूटी हो तब भी क्या साइकिल करियर के दम पर चल जाएगी। अच्छे होने की कीमत हमसे इतनी न वसूलें कि सोते जागते लाश की तरह महसूस करूं। आपको उन समस्याओं के लिए प्रेस से ज़्यादा उनसे होनी चाहिए जिन्हें आप चुनते हैं। प्रेस की भी ज़िम्मेदारी है लेकिन जब प्रेस ही ख़त्म हो जाए तो क्या कर सकते हैं। मैं अकेला न तो सारे मुद्दों की तह तक जा सकता हूं, न लिख सकता हूं और न बोल सकता हूं। मैं कोई राजनीतिक दल नहीं हूं कि हर मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस करता रहूं और लोग मुझे आकर ज्ञापन दें। मैं तो टीवी वाला हूं, टीवी के लोगों से मिलता रहता हूं तो उनसे सुन जानकर और बहुत कुछ देख कर भी लिखता हूं। लेकिन अख़बारों को पढ़ते हुए भी यही लगता है कि वहां भी यही हाल है कि लोगों को एक दो ख़बरें तक सीमित रखना है। इसका असर दिखता है। जहां भी जाता हूं, लोग उन्हीं दो चार मुद्दों के आस-पास पूछते रहते हैं। उन्हीं में उलझे रहते हैं।

पहले न्यूज़ रूप में जब रिपोर्टरों का ढांचा होता था तो आप वहां होकर भी कई बातों को करीब करीब पुख़्ता तौर पर जान पाते थे। वो ढांचा ढह गया है। चैनलों के संवाददाताओं में ख़बरों को लेकर प्रतियोगिता होती थी। वो दिन भर ख़बर खोजता रहता था। ख़ुद को अच्छा साबित करने की होड़ में कब क्या सूचना ले आए और ख़बरों का एंगल बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता था। रिपोर्टर सूचनाओं से लबालब होते थे। इससे कौन पार्टी और कौन नेता कब नप जाए, पता नहीं चलता था। कड़ी प्रतियोगिता के कारण रिपोर्टर के लिए मुश्किल होता था कि वो अपनी राजनीतिक निष्ठा के कारण ख़बर छिपा ले। तो चैनलों की दुनिया में रिपोर्टिंग के इस सिस्टम को धीरे धीर ख़तम कर दिया गया। इसकी जगह लाए गए आउटपुट के बंदर। इनके अंदर हवा भरी गई कि यही पत्रकारिता चला रहे हैं। स्क्रिप्ट, टाइटल और फुटेज का खेल होने लगा। झूठी ख़बरों और टाइटल ने रेटिंग तो बटोर ली लेकिन रिपोर्टर के बाद इन आउटपुटियों पर भी हमला हो गया। लागत बढ़ी तो वहां भी छंटाई होने लगी। न्यूज़ रूम में इतनी ख़बरें आती थीं कि उन्हें फिल्टर करने के लिए इनपुट में ही कई लोग होते थे। अब वो भी नहीं बचे हैं।

चैनलों के जिस स्टार सिस्टम के ख़िलाफ़ लिखता रहा हूं उसका लाभार्थी भी हूं। लेकिन दर्द होता है कि क्या वाकई हम तथाकथित स्टार लोग सारी ख़बरों के साथ न्याय कर सकते हैं। दर्शकों की छोड़िये पत्रकारिता के विद्यार्थी भी बाकी रिपोर्टर को नहीं पहचानते. अपनी सारी श्रद्धा और लक्ष्य के लिए प्रेरणा के सामान स्टार एंकर की दुकान से लाते रहते हैं। कहा जाता है कि दर्शक इन्हीं स्टार एंकरों पर मोहित रहती है। दर्शक तो रिपोर्टरों पर भी मोहित होता था जब ख़बरों की दुनिया हुआ करती थी। उसे जो देंगे वही वो जपेगा। दर्शक कोई स्वतंत्र यूनिट नहीं है। वो टीवी चैनल का ही विस्तार है। दो मुर्दा एक दूसरे को देर तक घूरे जा रहे हैं। यह सब लिखिये तो पढ़े लिखे मूर्ख मासूम सवाल करने लगते हैं कि आप इसे क्यों नहीं बदल देते। इसे कोई नहीं बदल सकता है। मैं नहीं बदल सकता। मैं बता सकता हूं जो बता दिया। कई बार लेख लिखा लेकिन उसका हुआ क्या। लोग वापस उसी गंध में जाकर रम गए। क्या एक आदमी सौ दो सौ चैनलों के सिस्टम को बदल सकता है। न तो एक आदमी देश बदल सकता है न ही एक पत्रकार चैनलों के सिस्टम को बदल सकता है।

चैनलों का सिस्टम कोई और तय करता है। चैनलों में जो भी हो रहा है वो मजबूरी वश भी होता है लेकिन ज़्यादातर ख़ुशी ख़ुशी होता है। उन्हें अपनी बीमारी का अहसास है। हमारी आलोचना की दवा उन्हें नहीं चाहिए। आप देख ही रहे होंगे कि चैनलों में स्टार एंकर का जबसे ज़माना आया है, आउटपुट पर काम करने वालों की फौज अप्रासंगिक होने लगी है। उनका काम जर्दा खाना और सुपर टिकर डालना रह गया। एंकर की तारीफ में पोस्ट लिखना है और मोदी के लिए ज़ोर लगाना है। उन्हें यह भी नहीं दिख रहा कि ज़मीन नीचे से खिसक रही है। ज़्यादातर आउटपुट का काम योगी के दस मोदी या मोदी के दस योगी टाइप के मुहावरे पैदा करना रह गया है। उसे पता है कि उसकी ज़रूरत अब पहले जैसी नहीं है, फिर भी इस गुमान में है कि निकाला नहीं जाएगा। एक दिन निकाल भी दिया जाता है। दस साल के अनुभव वाले की जगह दस दिन वाला आता है और वो अनाप-शनाप लिखने लगता है जो उनके सीनियर लिखा करते थे। एंकर घंटों अकेला स्टुडियो मे बैठा बड़बड़ा रहा होता है। उसे बेज़रूरी बातें या बार बार एक ही बात बोलते रहना है ताकि स्पेस या समय भरा जा सके। नहीं तो उसकी जगह दूसरी स्टोरी चलानी होगी, इसके लिए संसाधन चाहिए होगा। आप देखेंगे इन चैनलों में धीरे धीरे एंकर भी कम होने लगे हैं या हो जायेंगे। जब एक एंकर खुद ही चार घंटे या पूरे दिन बैठा रहेगा और वो टाइम काटने के लिए रस लेकर कुछ भी बोलता पूछता रहेगा तो फिर बाकी की ज़रूरत क्या है। आप यह समझ कर टीवी के सामने बैठे हैं कि कुछ जानना है, दरअसल आपको भी कुछ नहीं जानना है। बाकी एंकर सुबह –दोपहर या किसी ऐसे समय के लिए रह गए जब स्टार एंकर छुट्टी पर हो या उन्हें शौच के लिए जाना पड़े।

एंकर ही हर चीज़ का विकल्प हो गया। उसके पास गूगल से सर्च करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आप देखेंगे कि कोई भी घटना होती है तुरंत गूगल से आने लगता है कि ऐसी घटना कब कब हुई है। यानी नई घटना पर बताने के लिए सूचना नहीं है तो उस स्पेस को पहले घट चुकी घटनाओं की जानकारी से भरा होता है। आप चैनल देखते हुए इस भ्रम में रहते हैं कि आज की ख़बर देख रहे हैं। मगर आज की ख़बर के नाम पर आप दस दिन या दस साल पहले की ख़बरों के बारे में ज़्यादा जान रहे होते हैं। आउटपुट के कुछ अच्छे लोग किसी भी चैनल के आधार होते हैं। मगर जब उनकी भूमिका सीमित हो जाएगी तो फिर कोई चैनल इन्हें क्यों रखेगा। सुपर टिकर तो दो साल का अनुभव वाला ही डालेगा। जब तुक ही मिलाना है तो तुकबंदी के लिए क्यों पैसे दिये जाएं।

चैनलों की दुनिया में सब तय होता है। किसी में इच्छाशक्ति नहीं है कि पत्रकारों को जुटा कर अपने पेशे के लिए संघर्ष किया जाए। आज चैनलों को राजनैतिक रूप से साधना ज़्यादा अनुकूल और आसान है। एक चैनल के भीतर तीन चार लोगों को साध लें तो पूरा आपकी तरफ झुक सकता है। चैनलों के भीतर अब लोगों की विविधता ही नहीं बची है। चैनलों पर चलने वाली स्टोरी को देखकर आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसमें कोई मेहनत नहीं है। नेता और प्रवक्ता अनाप शनाप बयान देकर उपकार न करें तो चैनलों का चलना मुश्किल हो जाएगा। सारी मेहनत ग्राफिक्स और एनिमेशन को लेकर है ताकि आपका ध्यान खींचा जा सके। आप करते रहिए आलोचना और विवेचना। मैं इतना बता सकता हूं कि इन बातों से न्यूज़रूम के भीतर कोई फर्क नहीं पड़ता है। जिसे भी बताया कि आपके चैनल के बारे में ऐसा बोलते हैं, इतनी रेटिंग आती है, तो कुछ अच्छा कार्यक्रम भी बनवा लो, एकाध शो तो चल ही जायेंगे तो सब हंस देते हैं। लोगों का भी प्रशिक्षण ऐसे हो गया है कि वो चैनलों को ऐसे ही देखें जैसे वो दिखाना चाहता है।

हमें यह नहीं मालूम कि पांच छह साल पहले किसी सफल चैनल में आउटपुट इनपुट में कितने लोग होते थे और अब कितने होते हैं। पांच साल पहले रिपोर्टर कितने होते थे और अब कितने होते हैं। इसी दौरान चैनलों की कमाई बढ़ी है या घट गई है। आप देखेंगे कि तरह तरह की पंचायते होने लगी हैं। ताली बजाने वाले लोग बैठे होते हैं। दो चार मंत्री आ जाते हैं और जो अच्छा अच्छा बोल कर चले जाते हैं। चैनलों की दुनिया को समझने के लिए यह सब जानना ज़रूरी है। आख़िर चैनलों में चेहरे से लेकर ख़बरों की विविधता इतनी कम क्यों होती जा रही है, बड़ी संख्या में जो छात्र लाखों रुपये देकर टीवी पत्रकारिता पढ़ रहे हैं उन्हें क्या ये सब मालूम है। क्या वे इस काम के लिए पढ़ाई कर रहे हैं? क्या वाकई चैनलों की कमाई इतनी कम है कि वो रिपोर्टरों की टीम नहीं बना सकता? दस साल पहले तो रिपोर्टिंग के दम पर ही रेटिंग आती थी। अब जो रेटिंग आती है उससे तो राजस्व आता ही होगा, फिर मौलिक रिपोर्टिंग क्यों नहीं है। इस मामले में सारे चैनल एक से क्यों हैं। हद से हद किसी के पास एक एक्सक्लूसिव स्टोरी होती है बाकी संवाददाता कहां होते हैं पता ही नहीं चलता है।

जो भी है, राजस्व के बारे में सही तथ्य तो आप कभी जान नहीं सकेंगे। टीवी की दुनिया में खोज खोज कर ख़बरें लाने वालों को किनारे लगा दिया गया है। वो इतने कम हैं कि उनके लिए भी अब कपिल मिश्रा के प्रेस कांफ्रेंस में जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अंत में सबको दिहाड़ी पूरी करनी होती है। एंकर भी कपिल मिश्रा को लेकर फालतू बातें कर रहा होता है। क्या आपको पता है कि किसी चैनल ने कपिल मिश्रा या मनोज तिवारी के आरोपों की जांच की, स्टोरी को और पुख़्ता किया। यह तो एक उदाहरण दे रहा हूं, आप इस प्रवृत्ति को किसी भी मामले में आजमा कर देख सकते हैं। दिन में आरोप-प्रत्यारोप के दस बारह प्रेस कांफ्रेंस या ए एन आई द्वारा भेजे गए बयान को दिखाता रहेगा या फिर ख़बरें होंगी तो कोई एक बड़ी ख़बर होगी उसी पर चैनल तीन चार दिन काट देंगे। बाकी ख़बरों के लिए जगह नहीं है। आप चैनलों पर चलने वाले बयानों को देखिए। ज़्यादातर में ए एन आई का लोगो दिखेगा। कोई सवाल जवाब नहीं, बस प्रेस रिलीज की तरह बयान आते हैं। वही चलता है। संवाददाता के साथ सवाल जवाब वाले बयान अब कम ही दिखते हैं। ज़ाहिर है ऐसे में राजनीति चैनलों को आसानी से नियंत्रित कर सकेगी।

रिपोर्टर ख़त्म। ख़बरें ख़त्म। ख़बरों से जुड़ी बारीक सूचनाएं ख़त्म। कैमरा ख़त्म। ए एन आई ही सब नियंत्रित करेगा। एंकर ही सब नियंत्रित करेगा। संपादक ही भूमिका भी एक तरह से ख़त्म। उसका काम मैनेज होना या मैनेज होने से बचना रह गया है। आप न भी चाहें तो मैनेज होने से नहीं बच सकते क्योंकि पत्रकारिता के जो संसाधन हैं वो उसके बस में ही नहीं है। हर वो चीज़ जो न्यूज़ रूप में पहुंचती है वो पहले से नियंत्रित होती है। यहां तक कि वक्ता और प्रवक्ता दोनों। तमाम चैनलों के संवाददाताओं से बात करके यही लगता है कि स्थिति और भी भयावह होगी। अब चैनलों में पत्रकारिता कभी वापस नहीं हो सकेगी। बेहतर है कि आप किसी सत्ताधारी दल का लाइसेंस ले लें। उसी की तरफ से फिल्डिंग करें। इसका सबसे बड़ा लाभ होगा कि आपको आराम रहेगा। आप साल में चार स्टोरी भी न करें फिर भी आपसे कारण कोई सवाल जवाब नहीं होगा। दफ्तर पर अहसान ही करेंगे। इस खेल को आउटपुटवाले भी समझ गए हैं। वे भी सत्ता के पक्ष में दिन रात पोस्ट लिखते रहते हैं। ख़ुद जवाबदेही से बचनी है तो कोई निवेदिता मेनन को खोज रहा है तो कोई अरुंधति राय को।

ज़ाहिर है हमारे जैसे लोग उन्हीं विषयों को चुनेंगे जिन पर पहले से सामग्री मौजूद हो। अख़बारों और वेबसाइट में पर्याप्त विश्लेषण आ चुके हों। यही वो दायरा है जो धीरे-धीरे आपका घेरा सीमित करते चलता है और आप अप्रासंगिक होने लगते हैं। एक दिन आता है जब आपके होने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। रोज़ का यह संघर्ष दूसरी ख़बरों तक पहुंचने ही नहीं देता। एक विषय को चुनने का मतलब ही है कि बाकी उसी स्तर के कम से कम चार या पांच मुद्दों को किनारे कर देना। अब तो एक ही स्टोरी को दिन भर खेलने वाले चैनल आ गए हैं. दिन भर नहीं, अगले दिन और शायद पूरा हफ्ता। आग उगलने वाले वक्ता प्रवक्ता आपको बता रहे होते हैं कि कितनी पत्रकारिता हो रही है। दरअसल वो आपको दर्शक के रूप में ख़त्म कर रहे होते हैं। एक पूरी प्रक्रिया के तहत पहले पत्रकारिता को ख़त्म की गई और अब दर्शकों को ख़त्म करने की प्रक्रिया पूरी होने के कगार पर है।

इसलिए टीवी देखने का मतलब है ख़ुद को ख़त्म करना। अपनी जिज्ञासाओं की हत्या करना और विवेक का गला घोंटना। ये दर्शकों की हत्या का दौर है। चैनल के ज़रिये आपको रोज़ दो चार मसलों तक उलझाए रखा जाता है ताकि आप दूसरी कोई बात ही न जान सकें। वेबसाइट पर जायेंगे तो वहां भी टीवी की बातों पर ही चर्चा चल रही होती है। लोग एंकर की चर्चा कर रहे होते हैं जबकि ख़बर की चर्चा कम है। ख़बरों के नाम पर अब दो एंकरों के बीच तुलना होती है। ख़बरों के प्रतिनिधि हम एंकर हैं। आप देखेंगे कि कैसे धीरे धीरे ख़बरों का मतलब बदल दिया गया है। आपको हमें देखकर लगता है कि इसके पास सारी ख़बर है। दरअसल हमारी बिरादरी के पास बुनियादी जानकारी तक नहीं है। इसीलिए लोग चीख कर चिल्ला कर कार्यक्रम का टाइम काटते हैं। वे गुस्से को ख़बर बनाते हैं। गुस्सा करते हैं कि फलाने नेता ने ऐसे कैसे कह दिया। फिर जब विरोधी जवाब देता है कि बिल्कुल सही कहा तो एंकर उन पर भी गुस्सा करते हैं कि आप भी तो ऐसा कहते थे। इसके बाद गुस्से की लस्सी बनती है फिर उसका मट्ठा। आप टीवी देख रहे हैं। सूचनाएं नहीं हैं। सिर्फ घटना की तस्वीर है। उसी की आपके दिमाग़ में छवि बनती है और वही अंत में तथ्य बन जाता है। दरअसल आप टीवी चैनल नहीं देखते हैं, अपने दर्शक होने की हत्या का सीधा प्रसारण देख रहे हैं। वो भी पैसा देकर!

(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार)

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना