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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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आरक्षण पर राजनीतिक और सामाजिक विमर्श को सही दिशा देने में मीडिया चूक रहा

आरक्षण : सुधार की तरफ बढ़ें या बिगाड़ की तरफ

लोकेन्द्र सिंह/ आरक्षण पर दो बयान आए हैं, जिनके गहरे निहितार्थ हैं। यह बयान हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सांसद चिराग पासवान के। चूँकि देश में पिछले कुछ समय से आरक्षण का मुद्दा ज्वलंत है। इसलिए दोनों बयानों पर विमर्श महत्त्वपूर्ण है। आश्चर्य की बात है कि इन दोनों ही बयानों पर मीडिया में अजीब-सी खामोशी देखी गई है। जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से आए बयानों पर मीडिया ने किस तरह का राग अलापा था, सबने देखा-सुना। हमें यह मानना होगा कि आरक्षण पर राजनीतिक और सामाजिक विमर्श को सही दिशा देने में मीडिया चूक रहा है। खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का आचरण राजनीतिक दलों की तरह है। जिस तरह कुछ राजनेता आरक्षण का मुद्दा उठाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने की कोशिश कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार, समाचार वाहिनियाँ (न्यूज चैनल्स) उसी समय आरक्षण का विषय उठाती हैं, जब उसमें उन्हें टीआरपी दिखाई देती है। टीआरपी से पैदा होने वाले अर्थ की चाह में समाचार वाहिनियाँ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से भी मुँह फेर लेती हैं। आरक्षण ऐसा मसला है, जिसे व्यक्तिगत स्वार्थ की नजर से देखने से बचना होगा। क्योंकि, यह सामाजिक समानता और विभेद दोनों का कारण बनता है। सकारात्मक ढंग से बात करेंगे तब यह सामाजिक समानता का विषय बनता है। जब सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करेंगे, तब यह समाज में विभेद पैदा करने का कारण बनता है।

बहरहाल, नीतीश कुमार ने आरक्षण का कोटा बढ़ाने के साथ ही मुसलमानों और ईसाईयों के लिए भी आरक्षण की माँग करके संविधान की मूल भावना के विरुद्ध जाने का प्रयास किया है। उनके बयान की निंदा होनी चाहिए थी, लेकिन कहीं से विरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं दिया। उन्होंने कहा है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोग किसी भी संप्रदाय में हो सकते हैं। इसलिए दलित मुसलमानों और ईसाईयों को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए। नीतीश कुमार सहित तुष्टीकरण की राजनीति खेलने वाले अन्य लोग पहले भी इस तरह की माँग उठा चुके हैं। मामला उच्चतम न्यायालय तक भी पहुँचा है। देश को उच्चतम न्यायालय का धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए कि ऐसी सभी प्रकार की माँगों को अनेक बार उसने खारिज कर दिया। न्यायालय ने यहाँ तक स्पष्ट किया है कि हिन्दू समाज की अनुसूचित जातियों से मुस्लिम या ईसाई पंथ में मतांतरित हुए लोगों को भी आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। क्योंकि आरक्षण का यह प्रावधान हिन्दू समाज में व्याप्त जातिगत विभेद के कारण उत्पन्न सामाजिक अक्षमता का परिमार्जन करने के लिए किया गया है। आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए यह व्यवस्था नहीं है। कोई व्यक्ति ईसाई या मुसलमान होते ही हिन्दू समाज की जाति-व्यवस्था से बाहर हो जाता है, वह पिछड़ा या दलित रह नहीं जाता। क्या नीतीश कुमार स्पष्ट कर सकते हैं कि जब इस्लाम और ईसाई पंथ में सब समान हैं, सामाजिक तौर पर कोई पिछड़ा है ही नहीं, तब इन संप्रदायों को आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? इस बारे में भारत सरकार अधिनियम 1935 से लेकर अनुसूचित जाति और जनजाति आदेश, 1950 एवं उसके बाद जारी अब तक के सभी आदेश बहुत स्पष्ट हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान सभा में मुसलमानों और ईसाईयों को भी आरक्षण दिए जाने के प्रस्ताव पर चर्चा की। लम्बे विमर्श के बाद संविधान सभा ने भी माना कि संप्रदायों में आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए नीतीश कुमार का बयान संविधान निर्माताओं की भावना के भी खिलाफ है। हमें पुन: यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि संविधान में आरक्षण का प्रावधान आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए नहीं है। बल्कि संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) में स्पष्ट है कि आरक्षण का प्रावधान सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ गए समाज के लिए है। हिन्दू समाज में कालांतर में रूढ़ हो गई जाति-व्यवस्था के कारण जिन वर्गों का सम्मान कम हो गया था, उन्हें प्रतिष्ठित करके फिर से समरस समाज के निर्माण का संकल्प इस आरक्षण व्यवस्था के पीछे है। आरक्षण के संबंध में संविधान निर्माताओं की मूल भावना को समझने बिना निर्थक बहसें और माँग ही जन्म लेंगी।

यह भी हमें समझ लेना चाहिए कि नीतीश कुमार की बयान के पीछे मुसलमानों और ईसाईयों की प्रगति नहीं छिपी है बल्कि उसके पीछे शुद्ध राजनीतिक निहितार्थ हैं। उन्हें उत्तरप्रदेश की राजनीति दिखाई दे रही है। चूँकि बिहार और उत्तरप्रदेश की राजनीति में जातिगत मुद्दों पर जनमत तैयार होता है। इसी जनमत को साधने का प्रयास नीतीश कुमार कर रहे हैं। उनको शायद यह लगता है कि बिहार में उन्हें कुर्सी दिलाने में आरक्षण की बहस एक महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुई थी। उनका सोचना सही भी हो सकता है। लेकिन, क्या सिर्फ राजनीति चुनाव जीतने के लिए होनी चाहिए? राजनीति का उद्देश्य क्या है? क्या हमें समाज के सभी वर्गों के उत्थान को ध्यान में नहीं रखना चाहिए? क्या नीतीश कुमार भरोसा दिला सकते हैं कि उनकी माँग को स्वीकार कर लिया जाए तब अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सुविधाओं का अधिकतम भाग मतांतरित लोग नहीं हड़प लेंगे? आरक्षण का कोटा बढ़ाने और निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की माँग करके नीतीश कुमार समानता के अधिकार पर चोट करने का प्रयास कर रहे हैं। आरक्षण का कोटा बढ़ाने और उसे निजी क्षेत्र में भी लागू करने से सवर्ण वर्ग के सामने मुश्किल खड़ी नहीं होगी क्या? इस व्यवस्था से देश में कितना असंतोष फैलेगा, इसका अंदाज भी नीतीश बाबू को लगाना चाहिए? राजनीति देश को जोडऩे के लिए हो, देश को तोडऩे के लिए नहीं।

बिहार के ही जमुई से सांसद चिराग पासवान ने भी आरक्षण के मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके बयान का व्यापक स्तर पर स्वागत किया जाना चाहिए था। नीतीश कुमार को भी अपने से उम्र और राजनीतिक अनुभव में बहुत छोटे चिराग पासवान से इस मसले पर कुछ सीख लेनी चाहिए। चिराग ने एक सकारात्मक विमर्श को दिशा दी है। यदि हम उस विमर्श को आगे ले जाने में असमर्थ रहते हैं तो यह हमारी नाकामयाबी होगी। उन्होंने कहा है कि जिस तरह अमीर गैस सब्सिडी छोड़ रहे हैं, उसी तरह अमीर दलितों को आरक्षण छोड़ देना चाहिए। यदि उनके विचार को स्वीकार करके सम्पन्न दलित या पिछड़ा वर्ग आरक्षण छोड़ता है तो निश्चित ही इससे सामाजिक एकता को बल मिलेगा। दलित वर्ग के अन्य बन्धुओं तक भी आरक्षण का लाभ पहुँच सकेगा। वर्तमान में स्थिति यह है कि आरक्षण रूपी नदी का बहाव सम्पन्न परिवारों तक आकर ठहर गया है। जरूरतमंदो तक आरक्षण का लाभ पहुँच नहीं पा रहा है। यह तभी संभव है जब अमीर दलित आरक्षण का लाभ लेना बंद करें। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि आरक्षण पर कोई सार्थक व्यवस्था बन सकती है तो वह समाज के नेतृत्व से ही बन सकती है। राजनीति से नहीं। राजनेता तो अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए ही आरक्षण का चूल्हे की तरह इस्तेमाल करते हैं। हमें देखना होगा कि चिराग पासवान भी उसी राज्य से आते हैं, जहाँ राजनीति में जातिगत समीकरण हावी रहते हैं। यह बात उन्होंने भी स्वीकारी है। लेकिन, तमाम राजनीतिक खतरों को मोल लेते हुए उन्होंने आरक्षण पर एक सार्थक बयान दिया है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने भी आरक्षण की व्यवस्था को स्थायी नहीं बनाया था। इसलिए हमें विचार करना होगा कि आरक्षण को बढ़ाना चाहिए या इस व्यवस्था का सदुपयोग करते हुए इसे छोडऩे की स्थिति में अग्रसर होना चाहिए। यह समाज को ही तय करना चाहिए कि उसे आरक्षण की आवश्यकता कहाँ तक और कब तक है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं.)

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सम्पादक

डॉ. लीना