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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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ऐसे मीडिया की वजह से क्यूं मरे कोई ?

प्रमोद सिंह के बहाने मीडिया की पड़ताल

निरंजन परिहार / प्रमोद सिंह नहीं रहे। उनने आत्महत्या कर ली। अपन सन्न हैं। सन्न इसलिए, क्योंकि प्रमोद सिंह जैसे प्रतिभाशाली रिपोर्टर के इस दुनिया से चले जाने के तरीके ने हम सबको एक बार फिर से मीडिया में हमारे काम, उस काम को करते रहने के तरीके, और उसकी जरूरत के साथ साथ जिंदगी के मुकाबले मीडिया की औकात के प्रति हमेशा सजग रहने के प्रति चिंतित करनेवाले सवाल खड़े कर दिये हैं।  

जो लोग प्रमोद सिंह को जानते है, वे यह भी जानते हैं कि प्रमोद सिंह मीडिया में कोई इतने बड़े आदमी नहीं थे, कि उन पर मृत्यु लेख लिखे जाएं। लेकिन फिर भी लिखा जाना चाहिए। क्योंकि प्रमोद सिंह का जिंदगी से जाने का माहौल और तरीका दोनों, लिखे जाने के काबिल है। मौत वैसे भी कोई इतनी आसान चीज नहीं होती, जिस पर नहीं लिखा जाना चाहिए। फिर, यह तो एक पत्रकार की मौत है। पत्रकार, जिसे किसी भी सामान्य आदमी के मुकाबले आम तौर पर समझदार माना जाता है, समाज का पहरेदार कहा जाता है। लेकिन मुश्किल यह है कि कोर्ट और अपराध कवर करनेवाले जिन बहुत सारे पत्रकारों को अपन करीब से जानते हैं, उनमें काम का तो जज्बा तो बहुत दिखता है, लेकिन उसके उलट कुछेक को छोड़ दें, तो ज्यादातर लोगों में व्यक्तिगत जीवन के प्रति गंभीरता न के बराबर दिखाई देती है। या यूं कहा जा सकता है कि वे काम की गहराइयों को छूने की कोशिश में अपराधियों तक से भी निजी रिश्ते बनाने के लिए बहुत गहरे उतर जाने की वजह से जिंदगी के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। इसी वजह से उनके जीवन में एक खास किस्म का अवसाद भी घर कर जाता है, जो धीरे धीरे जिंदगी पर काल बनकर छा जाता है। फिर जीवन के रहने और न रहने के बीच कोई खास फर्क ही नहीं लगता। जीवन के अर्थ के मुकाबले निरर्थकता ज्यादा भाने लगती है। यही वजह है कि खेल, फिल्म, व्यापार, राजनीति, और बाकी काम करनेवाले पत्रकारों के मुकाबले अपराध करनेवाले पत्रकारों में फ्रस्ट्रेशन बहुत ज्यादा दिखाई देता है। फिर जिंदगी का एक सीधा सादा गणित यह भी है कि जो काम आप रोज देखते रहते हैं, उसी में आपको ज्यादा आसानी लगती है। सो अपराध कवर करनेवाले पत्रकारों को मौत भी आसान रास्ते के रूप में दिखाई देती है। पिछले दस सालों में पत्रकारों की आत्महत्या और अकाल मौत के अलावा उनके अपराध में लिप्त होने की जो खबरे आई हैं, उनमें सबसे ज्यादा लोग वे हैं, जो अपराध कवर करते रहे हैं। कोर्ट और अपराध कवर करते करते हम लोग खुद भी कब उसी मानसिकता के हो जाते हैं, यह कोई नहीं जानता।

दरअसल, प्रमोद सिंह नाराज थे। उन लोगों से, जिनने प्रमोद सिंह की खबरों के जरिये अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाया, और जब मदद करने की बारी आई, तो हाथ खड़े कर दिए। मुंबई के बहुत सारे पत्रकार जानते हैं कि प्रमोद सिंह ने सबकी मदद की, लेकिन उनको काम देने की बारी आई, तो उन लोगों में से किसी ने उनकी मदद नहीं की, काम भी नहीं दिया। वे लोग उनके फोन भी नहीं उठाते थे। अपनों के ही इस कदर बेगाना हो जाने के अवसाद ने प्रमोद सिंह को लील लिया। उन की आत्महत्या से अपन भी दुखी हैं। आहत भी हैं। और चिंतित भी। उन्होंने अपने पास काम किया है। वे लगनशील थे और मेहनती भी। ऐसे प्रमोद सिंह की आत्महत्या के बाद यह समझ में आता है कि पत्रकारिता की हमारी दुनिया में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो देह त्यागने के बाद के जीवन को न जानने के अज्ञानी हैं। हमें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि जिंदगी है, तो ही सब कुछ है। जिंदगी है तो कुछ भी किया जा सकता है, लेकिन जब जिंदगी ही नहीं, तो कोई किसी के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। सिवाय रोने के।

प्रमोद सिंह सिर्फ 33 साल के ही थे। विनम्र थे। मुंबई में अपराध के बढ़िया रिपोर्टर थे। और इंसान होने के तौर पर भी ठीक ठाक ही थे। ठीक ठाक इसलिए, क्योंकि आमतौर पर अपराध की रिपोर्टिंग करनेवाले जहां दो चार खबरों के बाद ही अपने आप को तुर्रमखां समझने लगते हैं, उनको अगर टुच्चा कहा जाए, तो उनके मुकाबले प्रमोद सिंह बहुत ऊंचे आदमी थे। न कोई घमंड और न कोई दर्प। लेकिन मीडिया, और खासकर अपराध कवर करने के काम में यह ऊंचापन कब जिंदगी को अंदर से खोखला कर देता है, यह समझने की जरूरत है। प्रमोद सिंह यह नहीं जानते थे। इसीलिए खुद ही अपनी जिंदगी को खा गए। आत्महत्या कर ली। वे कोई दस साल मे इस पेशे में थे, और जैसा कि हमारे बाजार में चैनलों के खुलने और बंद होने का हाल है, उन्होंने जितने साल काम किया उतने ही साल घर भी बैठे रहे। वैसे, प्रमोद सिंह उन लोगों में नहीं थे, जो रोजमर्रा की अपराध की खबरें कवर करके भी खुद ही वाहवाहियां लेने की कोशिश में अपनी पीठ थापथपाते रहते हैं। वे गहरे आदमी थे। और लगता है कि अपनी जिंदगी की गहराइयों में वे इतने गहरे उतर गए थे कि वापस उबर ही नहीं पाए। वे खुद्दार थे।  

हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि हमारा काम हमारे जीने और जीवन को जीतने का साधन रहे, तब तक तो ठीक, लेकिन वही काम जब मौत का कारण बनकर सामने आने लगे, तो उस काम के बारे में पुनर्विचार करना बहुत जायज हो जाता है। मीडिया वैसे भी अब कोई पहले जितना बहुत इज्जतदार काम नहीं रह गया है। ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में तो मीडिया ने बहुत पहले ही अपनी साख खो दी थी। सूचनाएं देने में भी बहुत ज्यादा घालमेल होने की वजह से अब यह जानकारी के माध्यम के रूप में भी अपनी साख खोता जा रहा है। अब मीडिया सिर्फ और सिर्फ व्यापार है। सर्वशुद्ध व्यापार। जिसे जिंदगी की कीमत पर भी सिर्फ अपने मुनाफे की पड़ी रहती है। जितना बड़ा ब्रांड, उतना ही बड़ा धंधा। धंधा करनेवालों और धंधेवालियों की वैसे भी कोई औकात नहीं मानी जाती। शायद यही वजह है कि मीडिया के भी धंधा बन जाने के बाद इसीलिए बाजार में अब मीडिया की औकात नपने लगी है। किसी को बुरा लगे, तो अपने जूते पर, लेकिन ऐसे धंधे के लिए कोई अपनी जिंदगी को क्यों स्वाहा करें, यह सबसे बड़ा सवाल है।

(लेखक राजनीतिक विशेलेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना