एक स्टार एंकर की सच्चाई पत्रकारिता की सच्चाई नहीं हो सकती
रवीश कुमार/ अपने आप को नौजवानों की आंखों में चमकते देखना किसे नहीं अच्छा लगता होगा। कोई आप से मिलकर इतना हैरान हो जाए कि उसे सबकुछ सपने जैसा लगने लगे तो आप भी मान लेंगे कि मुझे भी अच्छा लगता होगा। कोई सेल्फी खींचा रहा है कोई आटोग्राफ ले रहा है। लेकिन जैसे जैसे मैं इन हैरत भरी निगाहों की हक़ीक़त से वाक़िफ़ होता जा रहा हूं, वैसे वैसे मेरी खुशी कम होती जा रही है। मैं सून्न हो जाता हूं। चुपचाप आपके बीच खड़ा रहता हूं और दुल्हन की तरह हर निगाह से देखे जाने की बेबसी को झेलता रहता हूं। एक डर सा लगता है। चूंकि आप इसे अतिविनम्रता न समझ लें इसलिए एक मिनट के लिए मान लेता हूं कि मुझे बहुत अच्छा लगता है। मेरे लिए यह भी मानना आसान नहीं है लेकिन यह इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि आप फिर मानने लगते हैं कि हर कोई इसी दिन के लिए तो जीता है। उसका नाम हो जाए। अगर सामान्य लोग ऐसा बर्ताव करें तो मुझे ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। मैं उनकी इनायत समझ कर स्वीकार कर लेता हूं लेकिन पत्रकारिता का कोई छात्र इस हैरत से लबालब होकर मुझस मिलने आए तो मुझे लगता है कि उनसे साफ़ साफ़ बात करनी चाहिए।
मुझे यह तो अच्छा लगता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ने वाले तेईस चौबीस साल के नौजवानों के चेहरे पर अब भी वही आदर्श और जुनून दिखता है। मुझसे मिलने वाले छात्रों में यह ललक देखकर दिल भर जाता है। सचमुच प्यार आता है। अच्छा लगता है कि तमाम निराशाओं के बाद भी आने वाले के पास उम्मीदों की कोई कमी नहीं है। उनके सवालों में यह सवाल ज़रूर होता है कि आप कितने दबाव में काम करते हैं। सवाल पूछने के लिए दबाव होता है या नहीं। रिपोर्टिंग कैसे बेहतर करें। आपका सारा शो देखते हैं। मेरे घर में सब प्राइम टाइम देखते हैं। मेरी मां तो आपकी फैन है। दीदी के ससुराल में भी सारे लोग देखते हैं। आप फिर कब रवीश की रिपोर्ट करेंगे। सर, क्या हम चुनाव की रिपोर्टिंग में आपके साथ चल सकते हैं। हमने आपकी रिपोर्ट पर प्रोजेक्ट किया है। दोस्तों, ईमानदारी से कह रहा हूं, आपकी बातें लिखते हुए आंखें भर आईं हैं। पर आपकी बातों से मुझे जो अपने बारे में पता चलता है वो बहुत कम होता है। इस कारण मैं भी आपके बारे में कम जान पाता हूं लेकिन जो पता चलता है उसके कारण लौट कर दुखी हो जाता हूं।
मुझे नहीं मालूम कि पत्रकारिता की दुकानों में क्या पढ़ाया जाता है और क्या सपने बेचे जाते हैं क्योंकि मुझे पत्रकारिता के किसी स्कूल में जाने का मन नहीं करता। जब विपरीत स्थिति आएगी तो चला जाऊंगा क्योंकि मेहनताना तो सबको चाहिए लेकिन जब तक अनुकूल परिस्थिति है मेरा जी नहीं करता कि वहां जाकर मैं खुद भी आप जैसे नौजवानों के सपनों का कारण बन जाऊं। इसलिए दोस्तों साफ साफ कहने की अनुमति दीजिए। आपमें से ज़्यादतर को पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर उल्लू बनाया जा रहा है। मुझे नहीं लगता कि दस बीस शिक्षकों को छोड़कर हमारे देश में पत्रकारिता पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक हैं। हमें समझना चाहिए कि पत्रकारिता की पढ़ाई और शाम को डेस्क पर बैठकर दस पंक्ति की ख़बर लिख देना एक नहीं है। पत्रकारिता की पढ़ाई का अस्सी फीसदी हिस्सा अकादमिक होना चाहिए। कुछ शिक्षकों ने व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर इस क्षेत्र में अपने आप को बेहतर ज़रूर किया है लेकिन उन तक कितने छात्रों की पहुंच हैं। इन दो चार शिक्षकों में से आधे से ज़्यादा के पास अच्छी और पक्की नौकरी नहीं हैं।
जिन लोगों को पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए नौकरी मिली है वो हमारे ही पेशे से गए हुए लोग हैं। जो नौकरी करते हुए डिग्री ले लेते हैं और नेट करने के बाद कहीं लग जाते हैं। इनमें से ज़्यादतर वे लोग होते हैं जो पेशे में ख़राब होते हैं, किसी वजह से चट कर अपने राजनीतिक और जातिगत टाइप के संपर्कों का इस्तमाल कर लेक्चरर बन जाते हैं। कुछ इस संयोग से भी बन जाते हैं कि संस्थान को कोई दूसरा नहीं मिला। कुछ उम्र के कारण पत्रकारिता में बेज़रूरी कर दिये जाते हैं तो अपनी इस डिग्री झाड़पोंछ कर क्लास में आ जाते हैं। इनमें से कुछ लगन से पढ़ाते हुए अच्छे शिक्षक भी बन जाते हैं लेकिन इस कुछ का प्रतिशत इतना कम है कि उनके आधार पर आपके भविष्य की बात नहीं की जा सकती।
मैं यह जानते हुए कि हमारे पेशे में अनेक ख़राबियां हैं, कहना चाहता हूं कि ऐसे संस्थानों और शिक्षकों से पढ़कर आप कभी पत्रकार नहीं बन सकते हैं। भारत में पत्रकारिता को ढंग से पढ़ाने और प्रशिक्षण देने के लिए कुछ सेंटर ज़रूर विकसित हुए हैं लेकिन ज़्यादतर इसके नाम पर दुकान ही हैं। जहां किसी कैमरामैन या किसी एंकर को लेक्चर के लिए बुला लिया जाता है और वो अपना निजी अनुभव सुनाकर चला जाता है। मैं कई अच्छे शिक्षकों को जानता हूं जिनके पास नौकरी नहीं है। वे बहुत मन से पढ़ाते हैं और पढ़ाने के लिए ख़ूब पढ़ते हैं। जो शिक्षक अपने जीवन का बंदोबस्त करने के तनावों से गुज़र रहा है वो आपके उम्मीदों को खाद पानी कैसे देगा। सोचिये उनकी ये हालत है तो आपकी क्या होगी। इसलिए बहुत सोच समझ कर पत्रकारिता पढ़ने का फैसला कीजिएगा। इंटर्नशिप के नाम पर जो गोरखधंधा चल रहा है वो आप जानते ही होंगे। मुझे ज़्यादा नहीं कहना है। सारी बग़ावत मैं ही क्यों करूं। कुछ समझौते मुझे भी करने दीजिए।
आप छात्रों से बातचीत करते हुए लगता है कि आपको भयंकर किस्म के सुनहरे सपने बेचे गए हैं। यही कि आप पत्रकार बनकर दुनिया बदल देंगे और मोटी फीस इसलिए दीजिए कि मोटे वेतन पर खूब नौकरियां छितराई हुईं हैं। नौकरियां तो हैं पर खूब नहीं हैं। वेतन भी अच्छे हैं पर कुछ लोगों के अच्छे होते हैं। आप पता करेंगे कि तमाम संस्थानों से निकले छात्रों में से बहुतों को नौकरी नहीं मिलती है। कुछ एक दो साल मुफ्त में काम करते हैं औऱ कुछ महीने के पांच दस हज़ार रुपये पर। दो चार अच्छे अखबार और चैनल अपवाद हैं। जहां अच्छी सैलरी होती हैं लेकिन वहां भी आप औसत देखेंगे तो पंद्रह बीस साल लगाकर बहुत नहीं मिलता है। ज़्यादतर संस्थानों में पत्रकारों की तनख़्वाह धीमी गति के समाचार की तरह बढ़ती है। हो सकता है कि उनकी योग्यता या काम का भी योगदान हो लेकिन ये एक सच्चाई तो है ही। अभी देख लीजिए कुछ दिन पहले ख़बर आई थी कि सहारा में कई पत्रकारों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। पत्रकारों की नौकरियां चली गईं या जा रही हैं या ऐसी हालत है कि करना मुश्किल है। जो भी परिस्थिति हो लेकिन पत्रकार को कौन पूछ रहा है। उन्हें न तो नई नौकरी मिल रही है न नया रास्ता बन पा रहा है। ठीक है कि ऐसी परिस्थिति किसी भी फिल्ड में आती है लेकिन दुखद तो है ही। सहारा छोड़ दीजिए तो आप ज़िलों में तैनात पत्रकारों की सैलरी का पता कर लीजिए। पता होना चाहिए। एक स्टार एंकर की सच्चाई पत्रकारिता की सच्चाई नहीं हो सकती।
आपने उन सपनों को काफी पैसे देकर और अपनी ज़िंदगी के कीमती साल देकर ख़रीदा है। इन सपनों को बेचने के लिए हम जैसे दो चार एंकर पेश किये जाते हैं। आपकी बातचीत से यह भी लगता है कि आपको हमारे जैसे दो चार एंकरों के नाम तो मालूम हैं लेकिन अच्छी किताबों के कम। ये आपकी नहीं, आपके टीचर की ग़लती है। आपमें से ज़्यादातर साधारण या ठीकठाक परिवेश से आए हुए छात्र होते हैं इसलिए समझ सकता हूं कि पांच सौ हज़ार रुपये की किताब ख़रीद कर पढ़ना आसान नहीं है। यह भी पता चलता है कि आपके संस्थान की लाइब्रेरी अखबारों और चैनलों में काम कर रहे दो चार उत्साही लोगों की औसत किताबों से भरी पड़ी है जिनके शीर्षक निहायत ही चिरकुट टाइप के होते हैं। मसलन रिपोर्टिंग कैसे करें, एंकरिंग कैसे करें या राजनीतिक रिपोर्टिंग करते समय क्या क्या करना,मीडिया और समाज, अपराध रिपोर्टिंग के जोखिम। एक बात का ध्यान रखियेगा कि हमारे नाम का इस्तमाल कर लिखी गईं किताबों से आपको पेशे के किस्स तो मिल जायेंगे मगर ज्ञान नहीं मिलेगा। प्रैक्टिकल इतना ही महत्वपूर्ण होता तो मेडिकल के छात्रों को पहले ही दिन आपरेशन थियेटर में भेज दिया जाता। देख पूछ कर वो भी तीन महीने के बाद आपरेशन कर ही लेते।
पढ़ाई को पढ़ाई की तरह किया जाना चाहिए। हो सकता है कि अब मैं बूढ़ा होने लगा हूं इसलिए ऐसी बातें कर रहा हूं लेकिन मैं भी तो आपके ही दौर में जी रहा हूं। पढ़ाई ठीक नहीं होगी तो चांस है कि आपमें से ज़्यादर लोग अच्छे पत्रकार नहीं बन पायेंगे। हिन्दी के कई पत्रकार साहित्य को ही पढ़ाई मान लेते हैं । उन्हें यह समझना चाहिए कि साहित्य की पत्रकारिता हो सकती है मगर साहित्य पत्रकारिता नहीं है। साहित्य एक अलग साधना है। इसमें कोई प्राणायाम नहीं है कि आप इसका पैकेज बनाकर पत्रकारिता में बेचने चले आएंगे। इसलिए आप अलग से किसी एक विषय में दिलचस्पी रखें और उससे जुड़ी किताबें पढ़ें। जैसे मुझे इन दिनों चिकित्सा के क्षेत्र में काफी दिलचस्पी हो रही है। इरादा है कि दो तीन साल बाद इस क्षेत्र में रिपोर्टिंग करूंगा या लिखूंगा या कम से कम देखने समझने का नज़रिया तो बनेगा। इसके लिए मैंने मेडिकल से जुड़ी तीन चार किताबें ख़रीदी हैं और एक दो किसी ने भेज दी हैं। The Empero of All Maladies- Sidhartha Mukherjee, In and Our of theater – Dr Brijeshwar Singh, Doctored( the disillusionment of an American Physician) – Sandeep Jauhar, Being Mortal- Atul Gawande, Better Atul Gawande । मैंने यह लिस्ट आपको प्रभावित करने के लिए नहीं बताई है।
तो मैं कह ये रहा था कि पढ़ना पड़ेगा। आज भी चैनलों में कई लोग जो अपने हिसाब से अच्छा कार्यक्रम बनाते हैं( वैसे होता वो भी औसत और कई बार घटिया ही है) उनमें भी पढ़ने की आदत होती है या ये कला होती है कि कहां से क्या पढ़ लिया जाए कि कुछ बना दिया जाए। मगर कट और पेस्ट वाली से बात बनती नहीं है। ये आपको बहुत दूर लेकर नहीं जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा कि आप पढ़ते नहीं होंगे, लेकिन यह ज़रूर कह सकता हूं कि जो आपको पढ़ाया जा रहा है उसका स्तर बहुत अच्छा नहीं है। आप इसे लेकर बेहद सतर्क रहें। अगर पढ़ाया जाता तो पत्रकारिता संस्थानों से आए छात्रों की बातचीत में किताबों या संचार की दुनिया में आ रहे बदलाव या शोध का ज़िक्र तो आता ही।
मैंने बिल्कुल भी यह नहीं कहा कि पत्रकारिता की समस्या ये है कि आने वाले छात्रों में जज़्बा नहीं है या वे पढ़े लिखे नहीं है। इस तरह के दादा टाइप उपदेश देने की आदत नहीं है। आप लोग हमारे दौर से काफी बेहतर हैं। मैं बता रहा हूं कि सिस्टम आपको ख़राब कर रहा है। वो आपके जज़्बे का सही इस्तमाल ही नहीं करना चाहता। किसी को इंतज़ार नहीं है कि कोई काबिल आ जाए और धमाल कर दे। वैसे इस लाइन में किसी को काबिल बनने में कई साल लग जाते हैं। मेरी राय में लगने चाहिए तभी आप इस यात्रा का आनंद लेना सीख सकें। कई जगहों पर जाएंगे, कई बार खराब रिपोर्ट करेंगे, उनकी आलोचनाओं से सीखेंगे। यह सब होगा तभी तो आप पांच ख़राब रिपोर्ट करेंगे तो पांच अच्छी और बहुत अच्छी रिपोर्ट भी करेंगे।
अब आता हूं आपकी आंखों में जो एंकर होते हैं उन पर। मित्रों आप खुद को धोखा दे रहे हैं। हम जैसे लोग उस मैनिक्विन की तरह है जो दुकान खुलते ही बाहर रख दिए जाते हैं । मैनिक्विन की ख़ूबसूरती पर आप फिदा होते हैं तो ये आपकी ग़लती है। पत्रकारिता में आप पत्रकार बनने आइये। किसी के जैसा बनने मत आइये। फोटो कापी चलती नहीं है। कुछ समय के बाद घिस जाती है। राहू केतु के संयोग पर यकीन रखते हैं तो मैं अपनी सारी बातें वापस लेता हूं। इस लाजिक से तो आप कुछ कीजिए भी नहीं, एक दिन क्या पता प्रधानमंत्री ही बन जाएं या फिर बीसीसीआई के चेयरमैन या क्या पता आपकी बनाई किसी कंपनी में मैं ही नौकरी के लिए खड़ा हूं। मुझे लगता है कि आप लोग ख़ुद को धोखा दे रहे हैं और आपको धोखा दिया जा रहा है। आप एक दिन आप रोयेंगे। धकिया दिये जाएंगे। इसलिए अपना फैसला कीजिए। आपका दिल टूटेगा तब आपको रवीश कुमार बनने का वो सपना बहुत सतायेगा।
मैं क्यों कह रहा हूं कि आपको रवीश कुमार नहीं बनना चाहिए। इसलिए कि आपकी आंखों में ख़ुद को देख मैं डर जाता हूं। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे आप प्रभावित हों। आप पत्रकार बनने वाले हैं, कम से कम प्रभावित होने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। यह भी ठीक नहीं होगा कि देखते ही मुझे गरिया दें लेकिन प्लीज़ ख़ुदा न कहें और मेरी तुलना किसी फिल्म स्टार से न करें। मैं ऐसा कुछ भी नहीं हूं जो आपको बनना चाहिए। हम न अपने आप में संस्थान हैं न सिस्टम। हम न बाग़ी हैं या न क्रांतिकारी। यही सीखा है कि अपना काम करते चले जाओ। अगर आप ने मुझे मंज़िल बना लिया तो निराशा होगी।
मुझे पता है कि आपसे इंटरव्यू में पूछा जाता है कि किसी अच्छे पत्रकार का नाम बताओ या किसके जैसा बनना चाहते हो। इंटरव्यू लेने वाले फिर मुझे बताते हैं कि ज़्यादातर छात्र आप ही का नाम लेते हैं। आपको क्या लगता है कि मैं खुश हो जाता हूं। सुन लेता हूं लेकिन मेरा दिल बैठ जाता है। यह सोच कर कि क्या उन्हें पता है कि रवीश कुमार होना कुछ नहीं होना होता है। किसी के जैसा बनने का यह सवाल भी गिनिज बुक के लिए रिकार्ड बनाने जैसा वाहियात है कि किसके जैसा बनना है। आपको मैं बता रहा हूं कि मैं कुछ नहीं हूं। मेरे पास न तो कोई ज़मीन है और न आसमान। आप मुझे देखते हुए किसी शक्ति की कल्पना तो बिल्कुल ही न करें। ज़रूर हम लोग व्यक्तिगत साहस और ईमानदारी के दम पर सवाल पूछते हैं लेकिन हम किसी सिस्टम या पेशे की सच्चाई नहीं हो सकते। हम अपवाद भी तो हो सकते हैं।
मोटा मोटी मैं यह कह रहा हूं कि हम लोग सामान्य लोग होते हैं। हमारे जैसे लोग चुटकी में चलता कर दिये जाते हैं और सिस्टम डस्टबिन में फेंक देता है। समाज भूल जाता है। अनेक उदाहरण हैं। कुछ उदाहरण हैं कि समाज बहुत इज्ज़त भी करता है और याद भी रखता है। प्यार भी करता है। कई लोग लस्सी और दूध लेकर आ जाते हैं। मेरे दर्शकों ने मुझे घी और गुड़ भी दिया है। कैडबरी के चाकलेट भी दिये हैं। लेकिन मैं आपके सपनों की सच्चाई नहीं हो सकता। हम सबको पेश में आने वाले उतार चढ़ावों से गुज़रना पड़ेगा। कुछ गुज़रे भी हैं और जो नहीं गुज़रे हैं वे दावे से नहीं कह सकते कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा। इसलिए अगर आप पत्रकारिता के छात्र हैं जो दो चार एंकरों का चक्कर छोड़िये। उनके शो देखकर इस भ्रम में मत रहियेगा कि आप पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ रहे हैं। अगर भ्रम में नहीं रहते हैं तो बहुत अच्छी बात है। आप तमाम माध्यमों को देखिये, जहां हिन्दी अंग्रेजी के कई पत्रकार अच्छी और गहरी समझ से रिपोर्ट लिख रहे हैं। उनकी रिपोर्ट का विश्लेषण कीजिए। उनसे बात कीजिए कि खबर तक पहुंचने के क्या कौशल होन चाहिए। आपके टीचर ने गलत बताया है कि टीवी का पत्रकार बनना है तो चैनल देखो या रवीश कुमार को देखो। उनके कहियेगा कि खुद रवीश कुमार महीने में कुल जमा चार घंटे भी चैनल नहीं देखता है।
आप सबकी मासूमियत और ईमानदारी देखकर जी मचलता है। लगता है कि क्या किया जाए कि आपको ख़रोंच तक न लगे। जज़्बा बचा रहे। पर मैं एक व्यक्ति हूं। मैं सोच सकता हूं, लिख सकता हूं इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता। सही बात है कि अब कुछ करना भी नहीं चाहता। शायद इसी बेचैनी के कारण यह सब लिखने की मूर्खता कर रहा हूं। आपके रवीश कुमार कुछ नहीं हैं। आप उनकी वक्ती लोकप्रियता पर मोहित मत होइये। हमने ज़रूर अपने अनुशासन से साख बनाई है और यह ज़रूरी हिस्सा है लेकिन यह भी समझिये कि मुझे बहुत अच्छे मौके मिले हैं। सबकी कहानी में दुखभरी दास्तां होती हैं। मेरी भी है लेकिन इसके बावजूद मुझे अच्छे मौके मिले हैं। पूरी प्रक्रिया को समझिये और फिर उसमें हम जैसे तथाकथित स्टार एंकरों को रखकर देखिये।
पूरी पत्रकारिता को स्टार एंकर की अवधारणा में नहीं समेटा जा सकता। एंकर हर ख़बर या हर रिपोर्टर का विकल्प नहीं हो सकता। कम से कम मैं नहीं हो सकता। लेकिन अब का दौर ऐसा ही है। आपके पास टीवी में इसका विकल्प नहीं है। कई जगहों पर प्रयास हो रहा है लेकिन जैसे ही कोई मसला आता है वे मसाला बनाने में लग जाते हैं। दर्शक भी वैसे ही हो गए हैं। किसी रिपोर्टर की स्टोरी को ध्यान से नहीं देखते। यही गिनती करते रहते हैं कि किस एंकर ने कौन सी स्टोरी पर बहस की और किस पर नहीं की ताकि वे खुद को संतुष्ट कर सकें कि ऐसा उसने किसी पार्टी के प्रति पसंद- नापसंद के आधार पर किया होगा। सारे दर्शक तो नहीं हैं लेकिन हमारे नज़दीक जो दर्शक समाज होता है वो एक खासकिस् जिस राजनीतिक तबके से सक्रिय दर्शक समाज बनता है जो हमारे नज़दीक किन्हीं कारणों से आ जाता है वो ऐसा ही माहौल रच देता है। निष्पक्ष दर्शक या जनता इन्हीं के कारण तड़पती रह जाती है और अपना क्षोभ एंकर पर निकाल कर सो जाती है। जो कि सही भी है।
इसलिए आप इन एंकरों को महाबलि न समझें कि हम देश के तमाम मुद्दों पर इंसाफ कर देगा। हर मुद्दे पर प्रतिबद्धता साबित कर देगा या सही तरीके से कार्यक्रम कर देगा। सबको सबक सीखा देगा। बैकग्राउंड में तूफान फिल्म का गाना बजेगा.. आया आया तूफान…भागा भागा शैतान। ऐसा होता नहीं है दोस्तों। आप देख ही रहे हैं कि हम एंकरों की तमाम चौकसी के बाद भी जवाब कितने रूटीन हो गए हैं। दरअसल ये जवाब बताते हैं कि तुम सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ज़्यादा करोगे तो सोशल मीडिया के ज़रिये दर्शकों को बता देंगे कि हमारी पार्टी के ख़िलाफ़ हो। दर्शक भी जल्दी ही अपनी पार्टी की निष्ठा की नज़र से देखने लगेंगे और आपका साथ छोड़ देंगे। मैं रोज़ इस अकेलेपन को जीता हूं। यह भयावह है। आप व्यापम करो तो लोग कहते हैं कि यूपी मे भी तो व्यापम है। इन उदाहरणों में फंसा कर आपसे कहा जाता है कि तराजू के पलड़े पर बेंग तौल कर दिखाओ। एक बेंग इधर रखेंगे तो दूसरा उधर से कूद जाएगा।
इसलिए नौजवान दोस्तों कभी रवीश कुमार मत बनना। अपना रास्ता खुद बनाओ। मुझे जो बनना था कथित रूप से बन चुका हूं। तुम्हें दिनेश बनना होगा, असलम बनना होगा, जाटव बनना होगा, संगीता या सुनीता बनना होगा। ये तभी बनोगे जब तुम्हें कोई मौका देगा। जब तुम उस मौके के लिए अपने आप को तैयार रखोगे और अपने हिसाब से सीमाओं का विस्तार करते चलोगे। हास्टल में बैठकल मेरा फैन बनकर अपना वक्त मत बर्बाद करना। बहुत ही महत्वपूर्ण दौर है तुम्हारा। इसका सदुपयोग करो। लोकप्रियता किसी काम की नहीं होती है। कोई तुम्हें हम लोगों का नाम लेकर ठग रहा है। बचना इससे। इसके लिए पत्रकार मत बनना। पत्रकार बनना पत्रकारिता के लिए बशर्ते कोई तुम्हारे इस जज़्बे का इंतज़ार कर रहा हो। मुझे भी बताना कौन तुम्हारा बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है।
(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)