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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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क्या रिपोर्टिंग का अंत हो गया है ?

अब सूचना की जगह बयान ब्रेकिंग न्यूज़ है

रवीश कुमार। आपने न्यूज़ चैनलों पर रिपोर्टिंग कब देखी है ? जिन चैनलों की पहचान कभी एक से एक रिपोर्टरों से होती थी, उनके रिपोर्टर कहाँ हैं ? अब किसी ख़बर पर रिपोर्टर की छाप नहीं होती । रिपोर्टर का बनना एक लंबी प्रक्रिया है । कई साल में एक रिपोर्टर तैयार होता है जो आस पास की ख़बरों से आपको सूचित करता है । खोज कर लाईं गई ख़बरें गायब होती जा रही हैं । ख़बरों को लेकर रिपोर्टरों के बीच की प्रतिस्पर्धा समाप्त हो चुकी है । ब्रेकिंग न्यूज उसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम था लेकिन अब सूचना की जगह बयान ब्रेकिंग न्यूज़ है । ट्वीट ब्रेकिंग न्यूज़ है । क्या एक दर्शक के नाते आप चैनलों की दुनिया से ग़ायब होते रिपोर्टरों की कमी महसूस कर पाते हैं ?

अगर रिपोर्टर नहीं हैं तो फिर आस पास की दुनिया के बारे में आपकी समझ कैसे बन रही है ? या आपको समझ बनानी ही नहीं है ? इससे नुक़सान किसका हो रहा है? आपका या रिपोर्टर का ? चैनल अब भी सर्वसुलभ जन संचार के माध्यम हैं । लेकिन इन पर क्या जन नज़र आता है ? क्या एक दर्शक के नाते आप देख पा रहे हैं कि आपके आसपास की दुनिया कितनी सिमट गई है ? या आपको फ़र्क नहीं पड़ता है ? खबरों को मार देने का लाभ क्या एक दर्शक को मिल रहा है ? टीवी पर बहस ने ख़बरें लाने के कौशल को मार दिया है । टीवी और ट्वीटर में खास फ़र्क नहीं रहा । टीवी के स्क्रीन पर ट्वीटर की फीड को लाइव कर देना चाहिए । तर्क के जवाब में तर्क हैं । फिर तर्क को लेकर समर्थन और विरोध है । फिर हर सवाल से जवाब ग़ायब हो जाता है । तर्क और बोलने के कौशल ने रिपोर्टरों की ख़बरों को समाप्त कर दिया है ।

जब कोई दूर दराज़ या अपने ही शहर के कोने कोने में नहीं जाएगा तो प्रशासन और सरकार की जवाबदेही कैसे तय होगी ? क्या इन सब की मौज नहीं हो गई है ? ख़बर आती नहीं कि बयान देकर उसे बहस में बदल दिया जा रहा है । फिर दर्शक समर्थक में तब्दील हो जाता है और पार्टी के हिसाब से बहस में शामिल हो जाता है । इस प्रक्रिया से सिस्टम की मार झेल रहे तबके में हताशा फैल रही है । सूचना देने वाला तंत्र कमज़ोर हो रहा है और कमज़ोर किया जा रहा है । सोशल मीडिया और चैनलों पर आकर फालतू सवालों से एक ऐसी वास्तविकता रची जा रही है जो वास्तविक है ही नहीं । लोग धरने पर बैठे हैं । लाठियाँ खा रहे हैं । वो किससे बात करें । उनके लिए रिपोर्टर ही तो है जिसके ज़रिये वो सरकार और समाज से अपनी बात बताते हैं । इस कड़ी को आप ख़त्म कर दें और आपको फ़र्क ही न पड़े तो नुक़सान किसका है ? आपका है । आप जो दर्शक है । अगर आप दर्शक होने की जवाबदेही में लापरवाही बरतेंगे तो खुद को ही तो कमज़ोर करेंगे ।

रोज़ रात को होने वाली बहसों पर आपने कुछ तो सोचा होगा । क्या दर्शक होने की नियति पार्टियों का समर्थक या विरोधी होना रह गया है ? आप दर्शक हैं या कार्यकर्ता हैं ? आप जो इन बहसों को अनंत जिज्ञासाओं से देख रहे हैं उससे हासिल क्या हो रहा है ? बहसें होनी चाहिएं लेकिन क्या सार्थक बहस हो रही है ? जवाब देने से पहले विरोधी की मज़म्मत और सवाल पूछने से पहले पूछने वाले को विरोधी बता देना । इनसे भी लोकतंत्र समृद्ध होता ही होगा लेकिन क्या आप देख नहीं पा रहे हैं कि रोज़ एक मुद्दा कैसे आ जाता है ? कैसे जब तक पिछले मुद्दे की जवाबदेही तय होती अगले दिन कोई और मुद्दा आ जाता है ?

हम लगातार मुद्दों के पीछे भाग रहे हैं । उन मुद्दों के पीछे जिनमें आपके पार्टीकरण की संभावना ज़्यादा है । इन मुद्दों को ध्यान से तो देखिये । तंत्र आसानी से रोज एक नए मुद्दे को रचता है । फेंकता है । अगले दिन का मुद्दा दर्शक को याद रहता है न एंकर को । हर दिन मुद्दे की बहस में कोई एक हारता है तो कोई एक जीतता है । इन बहसों के जाल में आपको फँसा कर आपके पीछे क्या हो रहा है ? क्या आपको पता है ? क्या आप जानना चाहते हैं ? हर खेमे के लोग फिक्स हैं । हर बात पर अपने तर्कों के कौशल से पहले पार्टीकरण करते हैं फिर हैशटैग करते हैं और फिर ट्रेंड करने लगता है । ट्वीटर और टीवी एक दूसरे के अनुपूरक हो गए हैं । इस प्रक्रिया से कमज़ोर तबक़ा ग़ायब कर दिया गया है । उसकी आवाज़ कुचली जा रही है । बहसों से जनमत बनाने के नाम पर जनमत की मौत हो रही है । ऐसे चैनलों की संभावना ख़त्म नहीं होगी । जब तक लोकतंत्र में लोगों को मुर्दा बने रहने के लिए ज़िंदा होने का भ्रम भाता रहेगा बहस की दुकान चलेगी । टीवी के ज़रिये तंत्र अपना विस्तार कर रहा है । वो आपको अपने जैसा ओर अपने लिए बना रहा है ।

चैनल तो चल ही रहे हैं । चलेंगे । हम भी वही कर रहे हैं जो सब कर रहे हैं । किसी की नैतिकता किसी से महान नहीं है बल्कि मैं आप दर्शकों से प्रसन्न हूँ कि आपके लिए नैतिकता का कोई मतलब नहीं है । वो एक जरूरत का हथियार है जो आप अपने विरोधी को लतियाने गरियाने के काम में लाते हैं । कुछ लोगों का देश और समाज के विमर्श पर कब्जा हो गया है । एक नया तंत्र बन गया है । इस कांप्लेक्स में दर्शकों के बड़े हिस्से को शामिल कर लिया गया है । मैं इसे बदल नहीं सकता और न क्षमता है लेकिन जो हो रहा है उसे अपनी समझ सीमा के दायरे से कहने का प्रयास कर रहा हूँ ।

जो कमज़ोर हैं वो इस ख़तरे को कभी समझ नहीं पायेंगे । वो एयरपोर्ट या मॉल में अचानक टकरा गए एंकर को रिपोर्टर समझ कर अपना हाल बताने लगते हैं । ईमेल लेकर ख़ुश हो जाते हैं । न्यूज चैनलों को मोटी मोटी चिट्ठियाँ लिख कर ख़ुश हो लेते हैं । शायद इंतज़ार भी करते होंगे । तीन तीन घंटे बहस चलती है । आप देख रहे हैं । कभी रिपोर्टर भी ढूँढ लीजिये । कभी कोई चैनल रिपोर्टर से बनता था अब एंकर से हो गया है । एंकर सेलिब्रेटी है । एंकर राष्ट्रवादी है । सांप्रदायिक टोन में भाषण दे रहा है । उसके साथ आपकी सेल्फी है ।

ज़मीन की ख़बरें गायब हैं । कहीं जयंती तो कहीं पुण्यतिथि के नाम पर ख़बरों की रिसायक्लिंग हो रही है । फालतू का स्मरण हो रहा है । स्मरण अब दैनिक कर्तव्य बन गया है । नेता भी ट्वीट कर स्मरण कर लेते हैं । याद किया जाना एक रोग हो गया है । सेल्फी की तरह हो गया है रोज़ किसी दिवंगत को राष्ट्रपुरुष बताना । ट्वीटर पर रोज़ सुबह किसी की मूर्तियाँ लग जाती हैं । सब गुज़रे हुए महापुरुष को याद कर महापुरुष बन रहे हैं । टीवी और ट्वीटर पर पोलिटिकल जन्मदिन की बाढ़ आ गई है । याद करना काम हो गया है । याद करना उसे नए सिरे से भुलाने का नया तरीका है ।

मैंने प्राय: न्यूज़ चैनल देखना बंद कर दिया है । कह सकते हैं कि बहुत कम कर दिया है । इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी आस्था इस माध्यम में नहीं है या इस माध्यम की उपयोगिता कम हो गई है । अगर ये सिर्फ बहस तक सिमट कर रह जाएगा तो आप उन प्रवक्ताओं की समझ का विस्तार बनकर रह जायेंगे जो इनदिनों उसी गूगल का रिसर्च लेकर आ जाते हैं जो एंकर लेकर आता है । गूगल रिसर्च की भी मौत हो गई है । लिहाज़ा जवाबदेही से बचने का रास्ता आसान हो गया है ।

मुझे इस बात का कोई दुख नहीं है कि रिपोर्टर समाप्त हो रहे हैं । खुशी इस बात की है कि रिपोर्टर को इस बात का दुख नहीं है । उससे भी ज्यादा खुशी इस बात की है कि आप दर्शक दुखी नहीं है । जागरूकता की वर्चुअल रियालिटी में आप रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं । मौज कीजिये । बहस देखिये । कांव कांव कीजिये । झांव झांव कीजिये । जनता का हित इसमें है कि वो अपने नेता के हित के लिए किसी से लड़ जाए ।नेता का हित किसमें है ? उसका हित इसी में है कि जब भी आप बहस करें सिर्फ उसके हित के लिए करें !

(रवीश जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना