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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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क्या सचमुच इतने लाचार हैं हमारे कलाकार ...!!

चुनाव के मद्देनजर मामला गंभीर, फिर भी मीडिया में चर्चा का  विषय भी नहीं बन पाते...

तारकेश कुमार ओझा /  अपनी मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर मोदी, राहुल और केजरीवाल की तिकड़ी का पूरी तरह से कब्जा है। जबकि देश के दूसरे हिस्सों में होने वाली बड़ी घटनाओं की चर्चा मात्र भी नहीं हो पाती। वर्ना क्या वजह रही कि शरद पवार के अंगुली की स्याही मिटा कर दोबारा मतदान करने की सलाह तो मीडिया में चर्चा का विषय बनी, लेकिन उसी दिन तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद सौगत राय की कार्य़कर्ताओं से माकपा की चुनावी धांधली का बदला उसी अंदाज में लेने के कथित आह्वान का राष्ट्रीय मीडिया ने कोई नोटिस ही नहीं लिया। जबकि पवार से कहीं ज्यादा गंभीर यह मामला था।

या यह सचमुच विडंबना ही है कि एक आइपीएल मैच खेल कर कोई क्रिकेट खिलाड़ी करोड़पति बन सकता है, और महज एक अंतरराष्ट्रीय मैच में भाग लेकर विख्यात। जबकि दूसरे कई खेलों के चैंपियन हमारे बगल में भी खड़े हों, तो शायद हम उन्हें पहचान न पाएं। इसी तरह बालीवुड की एक फिल्म में काम करके कोई कलाकार समूचे देश में पहचान पा लेता है। जबकि भाषाई और क्षेत्रीय सिने जगत के महानायकों व महानायिकाओं को पड़ोसी राज्यों के लोग भी नहीं पहचानते। यह विडंबना समाज के हर क्षेत्र में कदम - कदम पर नजर आती है।

इसी तरह अभी हाल में बंगला फिल्म के एक अभिनेता ने कुछ ऐसी बात कह दी, जिसके गहरे अर्थ निकाले जा सकते हैं। उस युवा अभिनेता का नाम है देव। बेशक इन्हें बंगला फिल्मों का सलमान खान भी कहा जा सकता है। महज 32 वर्षीय यह अभिनेता अपनी दुनिया में खोया हुआ था। लेकिन  राज्य में सत्ता परिवर्तन होने के बाद ममता बनर्जी बंगाल की मुख्यमंत्री बनी, तो टालीवुड के कई दूसरे अभिनेता - अभिनेत्रियों की तरह ही इसने भी उनके साथ दो - एक कार्यक्रम में मंच साझा कर लिया। बस फिर क्या था। मुख्यमंत्री ने भी उन्हें राज्य की एक सीट से अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का उम्मीदवार बना दिया। उम्मीदवार घोषित किए जाने के एक पखवाड़े तक तो यह अभिनेता सभी की नजरों से दूर अपनी ही दुनिया में रमा रहा। सूत्र बताते हैं कि इसके सामने अपने परिजनों के वामपंथी पृष्ठभूमि की गहरी दुविधा थी। शायद वह राजनीति में आना ही नहीं चाहता था। बहरहाल होली के बाद उसने अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दो - एक कार्यक्रमों में हिस्सा नजदीक ही अपनी  आने वाली फिल्म की शूटिंग करते हुए लिया। इस बीच मीडियाकर्मियों ने उससे सवाल किया कि चुनाव प्रचार करते हुए उसे कैसा महसूस हो रहा है, इस पर देव का जवाब था... रेप की शिकार बन रही महिला के सामने दो ही विकल्प होते हैं... या तो वह चीखे - चिल्लाए या फिर मजे लूटे। मेरी भी यही  स्थिति है। उस अभिनेता के इस बयान को फिल्म और राजनीति के विचित्र घालमेल की बीमारी के संकेत के तौर पर भी देखा जा सकता है। एक ऐसे दौर में जब तमाम फिल्मी सितारे चुनाव मैदान में हैं, और कुछ मैदान छोड़ कर उसी राजनीति को कोस रहे हैं, जिसने उन्हें संसद पहुंचाया। इसलिए  देव के इस बयान के गहरे निहितार्थ निकाले जा सकते थे।

सवाल उठता है कि क्या यह युवा अभिनेता मर्जी के बगैर राजनीति के दंगल में कूदने को मजबूर हुआ। गंभीर सवाल तो यह भी है जिसका जवाब हर किसी को तलाशना चाहिए कि आखिर वह कौन सा आकर्षण है कि जिसके वशीभूत होकर सितारे राजनीति के दंगल में कूदने को मजबूर होते हैं, यह जानते हुए भी कि यह उनका असली क्षेत्र नहीं है। साथ ही आखिर राजनीति की भी वह कौन सी मजबूरी है कि वे जानते - बूझते ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतार देती है इस सच्चाई से वाकिफ रहते हुए कि चुनाव जीतने के बाद ही ये अपनी पुरानी दुनिया में लौट जाएंगे, और शादी के लड्डू की तरह एक दिन उसी राजनीति को कोसेंगें , जिसने उन्हें कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद अपनाया। सितारों और राजनीति का संबंध तो दीपक और भंवरे जैसा होता जा रहा है।  

संयोग से देव के बयान के दौरान ही एक चैनल पर भोजपुरी फिल्म के सुपर स्टार मनोज तिवारी का इंटरव्यू चल रहा था, जिसमें समाजवादी पार्टी में जाने को अपनी बड़ी भूल बताते हुए मनोज कह रहे थे कि वे समाजवादी पार्टी में शामिल नहीं हुए थे। उन्हें पार्टी में जबरदस्ती उठा कर लाया गया था। कुछ देर बाद एक और चैनल पर अमिताभ बच्चन का बयान आया कि राजनीति में जाना उनकी बड़ी भूल थी और वे फिर कभी राजनीति में नहीं आएंगे। एक ऐसे दौर में जब कई फिल्मी कलाकार और सेलीब्रेटी चुनाव मैदान में है, और धर्मेन्द्र से लेकर गोविंदा तक चुने जाने के बाद यह कहते हुए राजनीति को कोस रहे हैं कि वे खुद को राजनीति के लिए फिट नहीं मानते।

ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि आखिर वह कौन सा आकर्षण है जिसके चलते राजनीति और सिने स्टार आशंकित होते हुए भी एक - दूसरे की ओऱ भंवरे की तरह मंडराने को मजबूर हैं। या फिर कलाकार सचमुच इतने लाचार हैं कि उन्हें उठा कर कहीं भी कभी भी पटका जा सकता है।

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सम्पादक

डॉ. लीना