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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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डरा हुआ पत्रकार मरा हुआ नागरिक बनाता है

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा मुख्य न्यायाधीश के नाम खुला पत्र

आदरणीय भारत के प्रधान न्यायाधीश,

मुझे उम्मीद है कि पटियाला हाउस कोर्ट में पत्रकारों, वकीलों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट की घटना से आपका नागरिक और न्यायाधीश मन व्यथित हुआ होगा। हमारी अदालतें हवा में ज़हरीले कार्बन कणों की मात्रा को भांप लेती हैं और सभी संस्थाओं को खड़का लेती हैं। वैसी संवेदनशील अदालतों पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं बनता कि लोकतंत्र की हवा ख़राब होते ही उन्हें फ़र्क नहीं पड़ेगा। बल्कि आपकी संस्थाओं ने राजनेताओं और अकादमिक लोगों से ज़्यादा समय-समय पर लोकतंत्र के प्रति समझ को विस्तार दिया है। अदालतों के फ़ैसलों से लोकतंत्र की व्याख्या स्पष्ट ही होती गई है।

पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों के समूह ने जो किया वो अदालतों की वर्षों की अर्जित उपलब्धि पर हमला है। बेहद चुनौतीपूर्ण समय में तमाम जजों ने लोकतंत्र के हक में लंबे-लंबे फ़ैसले लिखे, उनकी समझ और साहस की विरासत पर हमला हुआ है। पटियाला हाउस कोर्ट जैसी घटना से तय करना मुश्किल हो जाएगा कि जज कौन है। क्या वकीलों को इजाज़त है कि वे समूह बनाकर जज बन जाएं और जज से पहले अदालत परिसर के भीतर किसी को अपराधी या आतंकवादी साबित कर दें? क्या उन्हें अधिकार है कि माननीय अदालत के परिसर से लोगों को मार मार कर बाहर कर दें? इंसाफ़ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए भी दिखना चाहिए। अगर कोर्ट में रिपोर्टर नहीं जाएंगे, लोग नहीं जाएंगे तो इंसाफ़ होते हुए कौन देखेगा। कौन बताएगा कि इंसाफ़ हुआ भी है।

सोमवार को पटियाला हाउस कोर्ट में जो हुआ है वो सामान्य नहीं है। वकालत के हर स्कूल कॉलेज में यही पढ़ाया जाता है कि सुनवाई का हक सबको है। जब आंतकवादी को भी वक़ील नहीं मिलता तो अदालतें वक़ील देती हैं। अपराध का होना और आरोपी का अपराधी साबित होना इसके बीच कानून की कितनी अवस्थाएं हैं। हर चरण के लिए प्रक्रिया तय है। क्या वकीलों ने इंसाफ़ के इस तक़ाज़े पर हमला नहीं किया है? अतीत में कई वकीलों ने आतंकवादियों का केस लड़ा और बाद में वे किन-किन दलों में प्रतिष्ठित हुए इसका ज़िक्र नकारात्मक लहज़े में नहीं करना चाहता बल्कि कहना चाहूंगा कि उन वकीलों ने आतंकवादियों का केस लड़के इंसाफ़ की परिभाषा को सार्थक किया है।

अगर पटियाला हाउस कोर्ट में मारपीट करने वाले वकीलों को अब भी अपनी समझ पर भरोसा है तो उन्हें बार काउंसिल से गुज़ारिश करनी चाहिए कि अब से लॉ कालेजों की किताबों के उस चैप्टर को नहीं पढ़ाया जाए जिसमें लिखा है कि हत्यारे से लेकर आतंकवादी तक को भी वक़ील रखने का अधिकार है। अपना पक्ष रखने का हक है। पटियाला हाउस कोर्ट में हिंसा करने वाले वकीलों की संख्या एक दो होती तो मैं यह पत्र नहीं लिखता लेकिन वहां मौजूद पत्रकारों ने बताया कि बड़ी संख्या में वक़ील हिंसा पर उतारू हो गए थे। इससे आपको भी चिन्ता होनी चाहिए बल्कि हुई भी होगी।

बात सिर्फ पटियाला कोर्ट की नहीं है। देश के कई राज्यों की छोटी बड़ी अदालतों में इस तरह की घटना हो चुकी है। मैं आपसे गुज़ारिश करता हूं कि इस पर एक व्यवस्था दें। वकीलों से कहें कि ऐसा करना उचित नहीं है। कई ज़िला अदालतों में मैंने देखा है कि वकीलों के बैठने की उचित व्यवस्था नहीं है। उनके काम करने की स्थिति बहुत खराब है। उनके परिवार के सदस्य जब काम करने की जगह देखते होंगे तो उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचती होगी। दिल्ली की कुछ अदालतों में तो स्थिति बेहतर हुई है पर ज़िला अदालतों में हालत बहुत खराब है। उन्हें अपनी मेज़ और कुर्सी चेन से बांध कर रखनी पड़ती है। अगर आपकी पहल से इस स्थिति में कुछ सुधार हो जाए तो मुझे अच्छा लगेगा। भारत सरकार को भी इसके लिए पहल करनी चाहिए।

सर, उन वकीलों का यह भी कहना था कि पत्रकारों की ज़रूरत नहीं है। हम जानना चाहते हैं कि क्या अदालतें भी ऐसा सोचती हैं। हम पत्रकारों की असुरक्षा भी खुली छत के नीचे टाइपराइटर लेकर बैठे वक़ील की तरह ही है। लेकिन जब तक हम पत्रकार हैं और सूचना देने का काम कर रहे हैं तब तक क्या हमें सुरक्षित रखना लोकतंत्र की संस्थाओं का दायित्व नहीं है? एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है। हमारी सूचनाओं से नागरिक सक्षम होता है। उसका विश्वास बढ़ता है। हम अगर ये काम नहीं कर पाएंगे तो लोकतंत्र में सिर्फ भीड़ ही पैदा होती रहेगी। पत्रकारिता का काम भीड़ पैदा करना नहीं बल्कि सूचनाओं से लैस सक्षम नागरिक का निर्माण करना है।

हम पत्रकार मारे गए हैं। युद्ध के मोर्चे पर मारे गए हैं। पुलिस की गोलियों और नेताओं के गुर्गों से मारे गए हैं। मैं यह पत्र इसलिये नहीं लिख रहा कि पटियाला कोर्ट में पत्रकारों का मारा गया है। अगर अदालत परिसर में यह प्रवृत्ति फैलती गई, वक़ील राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करेंगे तो गरीब आदमी को इंसाफ़ कैसे मिलेगा। क्या ऐसा भी हो सकता है कि किसी कॉरपोरेट के साथ राजनीतिक दल का याराना हो जाए और दोनों मिलकर ग़रीबों को विस्थापित कर दें और जब ये ग़रीब इंसाफ़ के लिए अदालत की दहलीज़ पर आएं तो उस दल के समर्थक वक़ील ग़रीबों को विकास विरोधी, राष्ट्र विरोधी बताकर मारने लगे। तब क्या होगा? देश का नागरिक कितना असुरक्षित महसूस करेगा। कमज़ोर और ग़रीब ही कॉरपोरेट और राजनीतिक नेक्सस से सताए नहीं जाते हैं बल्कि मध्यम वर्ग भी कभी कभी चपेट में आ जाता है।

आपका वक्त क़ीमती है। फिर भी आप इन सब सवालों के जवाब के तौर पर व्याख्या दें तो हम सब का हौसला बढ़ेगा। आप लोकतंत्र के अभिभावक हैं। एक नागरिक के तौर पर आप ही हमारे आदर्श हैं। मेरे लिखने में जो चूक हुई हो उसे माफ कर दीजियेगा। सर, क्या अदालत यह भरोसा दे पाएगी या कोई मुकम्मल व्यवस्था करेगी कि किसी भी अदालत में वक़ील भीड़ बनकर हिंसा न करें। मुझे भरोसा है कि न्यायपालिका के शीर्ष लोगों और वकालत की दुनिया में इन सवालों को लेकर बेचैनी होगी।

आपका,
रवीश कुमार,
एक नागरिक और पत्रकार

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार )

 

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सम्पादक

डॉ. लीना