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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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दलित साहित्य में सेंधमार

कैलाश दहिया / ‘बदलते माहौल में आंबेडकर’ शीर्षक से जनसत्ता में 30 सितम्बर, 2012 को सुरेश पंडित का लेख छपा है। यह प्रक्षिप्त लेखन का नवीनतम उदाहरण है। लेखक ने बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम लेकर डा. धर्मवीर के ‘जारकर्म पर तलाक’ के तूफान को रोकने की कोशिश की है।

पंडित जी उसी तरह की चालाकी दिखा रहे हैं जिसके लिए ब्राह्मण जाना जाता है। आज डा. धर्मवीर की घरकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से गुजरे बगैर ‘तलाक’ पर बात हो ही नहीं सकती। क्या इन्होंने इस महाग्रंथ को पढ़ लिया है? दांपत्य संबंधों को ले कर डा. धर्मवीर ने भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया है। पंडित जैसों ने उनके चिन्तन में सेंध लगाने की शुरूआत कर दी है। ऐसा लेखन चोरी ही कहलाता है। ब्राह्मण ने पहले भी कबीर के आंदोलन को ऐसे ही खराब कर दिया था।

लेखक ने पता नहीं किस ‘आक्रोश’ की बात की है? वैसे यह सत्य है कि द्विजों को अम्बेडकर ही नहीं किसी भी दलित चिन्तक का लोकप्रिय होना अखरता है। रैदास-कबीर इन्हें कभी समझ नहीं आए। रैदास की तो लेखनी तक इन्होंने सामने नहीं आने दी तथा कबीर की लेखनी को प्रक्षिप्त करके ही दम लिया। वैसे सवाल यह है कि दलित के लोकप्रिय होने पर द्विज आक्रोश से क्यों भर जाते हैं।

इधर, इन्होंने यह तो बता दिया कि ‘आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल लोकसभा में पेश किया’, लेकिन वे यह नहीं बता रहे कि इस बिल को किसने पास होने से रोका। अम्बेडकर की बात तत्कालीन हिन्दुओं को समझ नहीं आई, आज ये किन हिन्दुओं की पीढ़ी की सुधरने की बात कह रहे हैं?

लेखक ने डा. अम्बेडकर के प्रयासों को ‘स्त्री-समर्थक’ सिद्ध करने की कोशिश की है। यह अच्छी बात है। वे थे ही इतने महान, लेकिन इन्हीं से ही पूछा जाए कि पिछले 50-55 वर्षों में किस द्विज स्त्री ने बाबा साहेब के इन प्रयासों पर एक शब्द लिखा है। हम कठपुतली बनी उन दलित स्त्रिायों की तो बात कर ही नहीं रहे, जो अपने चिन्तक पर जूते-चप्पल चलाती हैं और द्विजों के मंचों पर उनके सोहर गाती हैं। फिर, कौन सी द्विज स्त्री है जिसने ‘हिन्दू कोड बिल’ को लेकर एक पंक्ति या शब्द लिखा हो? कहाँ हैं रमणिका गुप्ता, जो अम्बेडकर का नाम तो जपती हैं, लेकिन ‘हिन्दू कोड बिल’ पर चुप्पी साधे रहती हैं? इन्हें स्त्री स्वतंत्राता के इस महान कदम का ककहरा तक मालूम नहीं। ये किन स्त्रिायों की बात कर रहे हैं?

ब्राह्मण-चिन्तन की तरह इनका लेख भी उलझा हुआ है। ये ना मालूम किस ब्राह्मणवाद (?) की बात करके स्त्रिायों को जातिवाद का प्रवेश द्वार बता रहे हैं। दरअसल, तलाक के मूल में ‘जारकर्म’ है जो द्विजों की समाज-व्यवस्था का अहम हिस्सा है। और जैसा कि डा. धर्मवीर ने प्रतिस्थापित कर दिया है, बगैर तलाक के द्विज ब्राह्म विवाह में जारकर्म की अबाध स्वतंत्राता रहती है। तलाक की व्यवस्था के चलते बुधिया को सांमत की चैखट पर गुहार लगानी ही पड़ेगी। इसी से ब्राह्मण घबराया हुआ है।

डा. धर्मवीर की ‘जारकर्म पर तलाक’ की मांग ‘हिन्दू कोड बिल’ की ही कड़ी है, उस पर ये चुप्पी साध गए हैं, क्यों? दरअसल, ये साहित्य के बुद्ध बनने चले हैं, जिन्होंने मक्खलि गोसाल के वर्ण-व्यवस्था, छुआछूत और जातिप्रथा के विरुद्ध ‘सम्यक आजीव’ के सिद्धांत को ही चुरा लिया था। ये डा. धर्मवीर के आंदोलन को ही झटकने की फेर में पड़ गए हैं। ऐसे ही लोगों को सेंधमार और बटमार कहते हैं। यही दलित चिन्तन में घुसपैठिए हैं।

यह सही है कि स्त्रिायां ब्राह्मण की नहीं। दरअसल, स्त्रिायां किसी भी उस परम्परा की नहीं, जिसमें संन्यास, निर्वाण और कैवल्य जैसी विद्रूपताएं हैं। तभी तो डा. धर्मवीर साफ कहते हैं कि बुद्ध ने मेरी स्त्रिायां छीनी हैं। फिर, पितृसत्ता के विरोध के नाम पर ये जिस तरह बातें कर रहे हैं, उसे ये द्विजों के लिए लागू कर सकते हैं। दलितों को इनकी कैसी भी सत्ता मंजूर नहीं। और वह व्यवस्था, जिसमें स्त्री पत्नी किसी की होती है और रहती किसी और के है, बिलकुल भी स्वीकार नहीं। ऐसी ही जारणियों और जारों के विरुद्ध डा. धर्मवीर ने तलाक के लिए महासंग्राम छेड़ रखा है।

जहाँ तक, प्रेम-विवाह या अंतरजातीय विवाह की बात है तो बाबा साहेब इस मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहे। हालांकि, उनकी मंशा जाति-प्रथा के विनाश की थी, लेकिन वे ब्राह्मण के दुष्चक्र को ठीक से समझ नहीं पाए। डा. धर्मवीर इन विवाहों की सारी हकीकत अपनी किताब ‘चमार की बेटी रूपा’ में बता चुके हैं, और यह भी सिद्ध कर दिया है कि इन विवाहों से उत्पन्न संतान दलितों के लिए विनाशकारी ही सिद्ध हुई हैं।

दरअसल, बात प्रेम या अन्तरजातीय विवाह की नहीं है, बात है विवाह में ‘तलाक’ की। द्विजों का ब्राह्म विवाह पवित्रा और अटूट है, जबकि दलितों में विवाह सामाजिक समझौता है, जिसमें जारकर्म पर तलाक की व्यवस्था रही है। बाबा साहेब यह सब जानते हुए भी हिन्दुओं को सुधारने के चक्कर में अन्तरजातीय विवाहों का समर्थन कर बैठे थे,पंडित जी किन्हें बहका रहे हैं?

जहां तक वर्ण-व्यवस्था की बात है, यह हिन्दुओं (ब्राह्मण) के समाज की आंतरिक-व्यवस्था है। इसे कोई माई का लाल बदल नहीं सकता। बुद्ध के झांसे में आ कर डा. अम्बेडकर इसे तोड़ने के नाम पर धोखा खा गए। डा. धर्मवीर सही कहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था दलित के लिए पराई और अचंभे की चीज है। यह जिसे प्रिय है, वह अपने लिए इसे सुचारु रूप से चलाए रख सकता है। दलित इस वर्ण-व्यवस्था से बाहर हैं। कबीर तो कह ही गए हैं‘को बाम्हन को सूदा’। पता नहीं, अम्बेडकर किन के बहकावे में आ कर वर्ण-व्यवस्था से लड़ रहे थे!

आज जब डा. धर्मवीर ने ‘दलित-विमर्श’ और ‘स्त्री-विमर्श’ को तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है तब सुरेश पंडित को ‘स्त्री’ और डा. अम्बेडकर की बात सूझ रही है। बकौल इनके, आज द्विजों के कथित युवाओं को अम्बेडकर की सीख याद आ रही है। जाना जाए, अम्बेडकर के समय में भी युवा द्विज थे। आज इनके ये ही युवा ‘आरक्षण’ को लेकर देश को अराजकता की स्थिति में खड़ा कर देते हैं और दलित स्त्रिायों-लड़कियों से बलात्कार करते हैं। हरियाणा के घाव अभी रिस ही रहे हैं। डा. धर्मवीर ने आज जब दलितों के लिए अलग सिविल कानून लिख लिया है, तब इनके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई है। इन्हें बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के महान प्रयास याद आ रहे हैं। ये द्विज युवा अम्बेडकर के समय भी नहीं सुधरे थे, और वैसे, आज ऐसा क्या हो गया है, इन्हें अम्बेडकर याद आ रहे हैं?

और बताया जाए, द्विज परम्परा के किसी भी व्यक्ति की तुलना बाबा साहेब डा. अम्बेडकर से करने का विचार ही ना-समझी है, फिर चाहे वे गांधी हों या अन्य कोई।  द्विज परम्परा के भगवान भी बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के आगे कुछ नहीं, लेखक घर से दर-बदर स्वामियों से बाबा साहेब की तुलना कर रहे हैं। ये स्वामी द्विजों के लिए पूजनीय हो सकते हैं, दलितों में इन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। डा. अम्बेडकर का चिन्तन परिवार के लिए है। वे इसके लिए पुनर्विवाह तक करते हैं, जबकि इनके स्वामी जंगलों में भटकते फिरते हैं। बाबा साहेब पता नहीं क्यों बुद्ध के पीछे हो लिए?

असल, में लेखक ने अप्रासंगिक हो चुके विवेकानंद, राजा राम मोहन राय, दयानंद और गांधी के साथ अम्बेडकर का नाम जोड़कर इन्हें बचाने की कोशिश की है। यह इतिहास के साथ खिलवाड़ है। जैसे कबीर को रामानंद से जोड़ कर प्रक्षिप्त कर दिया गया था वैसे ही अम्बेडकर को इनसे जोड़ कर प्रक्षिप्त करने की कोशिशें शुरु हो गई हैं। वैसे, ईमानदारी इसी में है, जिसे अम्बेडकर को समझना है वह सीधे अम्बेडकर के पास आए।( बयान से)।

 

लेखक युवा कवि व आलोचक है

 संपर्क: 460/3, पश्चिमपुरी ,नई दिल्ली-110063

मो.: 9868214938

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना