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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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नम्बरदार मीडिया का सच

फेशबुक पर 12 दिसंबर को डॉ रहीस सिंह द्वारा पोस्ट की गयी टिप्पणी वास्तव में सोचने को विवस करती है कि आज देश का मीडिया क्या वास्तव में जनसरोकारों से कटता जा रहा है। उनकी टिप्पणी का सार संक्षेप यह था कि उनके घर पर दुनिया के नंबर एक अखबार का प्रतिनिधि बताकर दो सज्जन आये और उन्होंने उनकी धर्म पत्नी से कहा कि यदि वे 100 रूपये जमा करेंगी तो उन्हें एक प्लास्टिक की बाल्टी उपहार में दी जाएगी और एक माह  तक अखबार की प्रतियां मुफ्त में दी जायेंगी उसके बाद में उनका 100 रूपया भी लौटा दिया जाएगा। डॉ रहीस सिंह के अनुसार जवाब में उनकी पत्नी ने कहा कि वे तो उनका अखबार पढ़ती ही नहीं हैं क्योंकि उस नंबर वन कहे जाने वाले अखबार में समाचार का स्तर बहुत न्यून होता है और सारा अखबार विज्ञापनों से पटा पडा रहता है। उक्त घटना पर डॉ रहीस सिंह ने ही टिप्पणी करते हुए लिखा था कि "मेरी पत्नी घरेलू महिला हैं यदि किसी गृहिणी की खुद को नंबर वन प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के प्रति ऐसी धारणा है तो आम पाठक और बुद्धिजीवी वर्ग का नजरिया क्या होगा ?

डॉ रहीस सिंह जैसे वरिष्ठ स्तंभकार आर नियमित लेखक की पत्नी एक गृहिणी ही सही, लेकिन पढी-लिखी हैं और चूंकि घर का माहौल उस तरह का है, इसलिए उन्हें समाचारों के स्तर का आकलन भी बखूबी आता है। यह स्तर क्यों गिर रहा है इसकी वज़ह यह है कि वह चाहें नंबर एक अखबार हो, नंबर दो, तीन, चार या पाँच वे सभी कार्पोरेट घराने के अखबार हैं, जिनमें पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बजाय प्रशासनिक अधिकारियों, उनकी पत्नियों उप पत्नियों और उद्यमियों के नाम से आलेख और स्तंभ प्रकाशित होते रहते हैं। वे क्या लिखते या लिखवाते होगें यह परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। अधिकारी लिखेगा तो सरकार को सराहेगा, कमियों पर वार्निश लगाएगा, सरकारी योजनाओं की तारीफों के पुल बांधेगा और उद्यमी लिखेगा तो अपने हित की बात, जहां सच नहीं होगा। सच लिखने का साहस कोई प्रशासनिक अधिकारी और उद्यमी या व्यापारी कर ही नहीं सकता क्योंकि उन्हें तो जो भी वर्तमान सरकार हो उसके सामने जी सर, राइट सर की भूमिका में ही रहना है।
जहां तक समाचारों की बात है तो तथाकथित बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्र समूहों ही नहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनलों में भी अहंकार इस कदर हावी है कि उनके नियंता खुद के केबिनों में बैठकर ही मान लेते हैं कि वे जो भी परोस रहें हैं वही पाठक और दर्शक की पसंद है, तथा उनके अलावा पाठकों और दर्शकों के सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। ऐसे समाचार माध्यमों का सच उनके मालिकों की पूंजी में इजाफा और खुद की ख़ुशी है, क्योंकि मामला नौकरी और रोजो-रोटी का है। वही दूसरा सच भी है कि बड़े कहे जाने वाले अखबारों और चैनलों को सम्पादकों तथा बुद्धजीवियों की आवश्यकता ही नहीं है, उन्हें तो केवल तिकड़मबाज़ मैनेज़र और सिद्धहस्त दलाल चाहिए। यदि ऐसे लोग अखबार की रूपरेखा तय करेंगें, तो फिर आम आदमी भी उन पर उसी तरह उंगली उठाएगा जिस तरह डॉ रहीस सिंह जी की पत्नी ने खुद को दुनिया का नंबर एक कहे जाने वाले अखबार प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के खिलाफ उठाई थी।
जो देश की सरकारी नीतियों में आम जनता के साथ हो रहा है, वही समाचार माध्यमों के साथ भी हो रहा है। देश में प्रत्यक्ष योजनायें आम आदमी के विकास की बनायी जाती हैं, लेकिन उद्यमियों के हितों के लिए उसी आम आदमी की जमीनें जबरन अधिगृहीत कर ली जाती हैं, उन्हें बेघर कर दिया जाता है और आम आदमी के विरोध करने पर उस पर बर्बरतापूर्वक पुलिस की लाठियों और गोलियों से उसका दमन किया जाता है। पश्चिम बंगाल का सिंगुर और नंदीग्राम तथा उत्तर प्रदेश का भट्ठा-पारसौल व दादरी इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। यही समाचार माध्यमों की भी दशा है। मीडिया हाउसों के उद्यमी मालिकान, मीडिया संगठनों के शीर्ष पर कारपोरेट घरानों के कर्ता-धर्ता और मान्यता समितियों में दलालों के वर्चस्व के चलते आप मीडिया से निष्पक्षता की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? भारत के दृश्य-श्रृव्य एवं प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) की नीतियों के अनुसार सरकारी विज्ञापनों का 70 फीसदी लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों को और शेष 30 फीसदी बड़े अखबारों को दिया जाना तय है, लेकिन जब से मीडिया हाउसों पर कारपोरेट घरानों का आधिपत्य हुआ है तब से डीएवीपी भी उल्टी गंगा बहा रहा है। वजह यह है कि वहां भी सरकारी अधिकारी/कर्मचारी ही बैठे हैं जो सत्ता तंत्र के निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यों से लेकर केंद्र तक की सत्ता अब बड़े उद्यमियों और दलालों के इशारे पर नाचने को विवश है। वे राजनैतिक दलों के बड़े आर्थिक मददगार हैं, मीडिया हाउसों के मालिक भी हैं, इसलिए सरकारें उनके हितों की नीतियाँ बनाने को विवश हैं।
आज का मीडिया खबरें गढ़ कर प्रसारित करता है, जो सच से शायद ही वास्ता रखती हों। वह सनसनी बेचता है, अपराधों की रोंगटे खड़ी कर देने वाली कहानियां बेचता है, सेलिब्रिटीज़ के प्रेम-प्रसंग, गाशिप, मंगनी, शादी और किसका किसके साथ अफेयर चल रहा है। किसी बड़े उद्यमी ने शादी में आये बारातियों को कौन से महंगें तोहफे दिए, दहेज़ में कौन-कौन सा कीमती सामान दिया गया, दुल्हन के लहंगे और चोली कहाँ बनें, कितने कीमती थे और उनका रंग कौन सा था, दूल्हे ने कौन सा लिबास पहन रखा था, उसे किस नामी डिज़ायनर ने डिजाइन किया था। दावत में कौन-कौन से लज़ीज़ व्यंज़न बने थे और उनमें कौन सी बड़ी हस्तियों ने शिरकत की, अब यही ख़बरें मीडिया की प्राथमिकता में है। विश्वास नहीं होता तो अभी हाल में ही संपन्न हुई सैफ-करीना की शादी या पिछले वर्षों में ऐश्वर्या-अभिषेक बच्चन की शादी के समय अखबार और पत्रिकाओं का कलेवर देखिये और देखये की कैसे महीनों तक बेगानी शादी के ये अब्दुल्ला दीवाने अब्दुल्ला महीनों तक उन्हीं कहानियों को चटखारे ले-लेकर पाठकों और दर्शकों को परोसते रहें।
उनके तर्क हैं कि आज का पाठक और दर्शक यही कुछ देखना चाहता है। फिर वह पाठक कौन है जो फेसबुक, ब्लॉग और अन्य सोशल साइट्स पर इस सबके खिलाफ आक्रामक है ? आज का पाठक वर्ग पहले से अधिक विवेकशील है, वह कल्पनालोक में जीना भी चाहता। यही वह वज़ह है कि दो दशक पूर्व जिन सिनेमा हालों की टिकट खिड़की पर दर्शकों की गहमागहमी के कारण पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ती थी, उन्हें दर्शक नहीं मिल रहे तो वहाँ मल्टीप्लेक्स विकसित किये जा रहें हैं। इस सच से बेखबर नहीं है मीडिया लेकिन मानने को तैयार नहीं।
कारपोरेट हांथों में मीडिया के जो भी माध्यम हैं उनके लिए देश का आम आदमी महज एक ग्राहक है, बाज़ार है। उनका ईमान बाजार है, उनकी संवेदना को उनके गुरूर और अहंकार ने जाने कब निगल लिया था। उनकी समझ तिकड़म में बदल चुकी है और जनसरोकारों की जगह वे सनसनी बेंच रहे हैं तो आप उनसे सच की, समाचारों के स्तर की और सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? पाठक और प्रसार संख्या के फर्जी आंकड़े प्रसारित कर खुद के सबसे बेहतर और सबसे आगे कहना अलग बात है और होना अलग बात, एक नंबर, दो नंबर, तीन-चार वाले नम्बरदार मीडिया को भले ही यह अभी अहसास न हो लेकिन उनकी मानसिकता, कार्यप्रणाली और सच छिपाने की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज में व्यापक विरोध दिख रहा है और कई बार उनके उन संवाददाताओं को अभ्रद्ता के रूप में सहना पडा है जो अपने अखबार की नीतियों के प्रति जिम्मेदार ही नहीं हैं। जो जिम्मेदार हैं वो अपने वातानुकूलित दफ्तरों में खुद को सुरक्षित महसूस भले ही करते हों लेकिन जब जनता का आक्रोश मुखर होता है तो फिर कोई सुरक्षित नहीं रह पाटा। क्या कभी समझेगा कारपोरेट मीडिया इस सच्चाई को ?

 

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना