जगमोहन फुटेला/सोशल साइट्स के करोड़ों लोगों के महज़ कुछ ढाई सौ के करीब पन्नों पे अंकुश की बात क्या आई कि इस देश में जैसे बवाल मच गया है. चैनलों के पास तो खैर है ही, सियासी पार्टियों तक के पास इतना समय है कि इस पे बोलने के लिए कि लगता है इमरजेंसी मनवा के छोड़ेंगे. और ये हंगामा बरपा तब भी है कि जब हम सब ये जान और अब मान भी चुके हैं कि असम में हुई हत्याओं के पुराने फोटू लगा लगा के पाकिस्तान के लोगों ने बंगलूर से लेकर मुंबई तक से ट्रेनें भरवा के गुवाहाटी भिजवाईं थीं. कितनी चिंता है हमें सोशल साइट्स पे दुनिया भर में पीले उन लोगों की उस आज़ादी की जो हमें खुद अपने हिंदुस्तान में बेगाना और बेचारा बना देती है.
किस
आज़ादी की बात कर रहे हैं हम? क्या वो जो कहीं, किसी को भी कुछ भी पोस्ट
करने की इजाज़त देती है?...किन्हीं को कैसे भी भड़का के कितनों को ही मरवा
देने की?...पलायन करा देने की देश से देश के भीतर?... क्या ये आज़ादी सिर्फ
इस लिए ज़रूरी है कि कोई भी किसी भी नेता
के मुंह पे किसी का भी मुखौटा लगा के किसी की भी गोदी में बिठा सके. और
कोई भी अनवर चौहान लिख सके कि बिजली शहर से रोज़ा रखे मुसलामानों को सताने
के लिए जाती है!...लानत है
तरफदारी करें भाई नरेन्द्र मोदी ऐसे ब्लागरों की. कोई दिक्कत नहीं. मगर देख वे भी लें. हिसाब वे भी लगा लें. पायेंगे कि ऐसे खुराफातियों की गिनती महज़ कुछ सौ में ही निकलेगी. अगर ट्विटर की ही मेम्बरशिप देख लें तो उस में प्वाइंट जीरो वन पर सेंट से भी कम. तो बवाल क्यों है? ज़रा सा चौकन्ना करने की बात पे ये हाल क्यों है? कौन कहता है कि ट्विटर बंद हो जाएगा. ट्विटर ने ही कब कहा है कि हाय मर गए. इतने धर्मात्मा भी कब से हो गए हम कि अब अगर अपनी भी किसी गलती से मरता हो ट्विटर तो उसे बचाने की जिम्मेवारी तेंतीस धर्मों और तेंतीस करोड़ देवी देवताओं वाले हम हिन्दुस्तानियों की है. ऐसे भी कौन महान डेमोक्रेटिक हो गए हैं हम कि अब दुनिया में कहीं भी किसी की भी आजादी की रक्षा की जिम्मेवारी हमारी है. उन की भी जो दूसरों की आजादी और सम्मान की ऐसी तैसी करने पे तुले हैं?
कानूनी रूप से भी कोई आज़ादी एब्सोल्यूट यानी अनियंत्रित नहीं होती. भारत और अमेरिका जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले लोकतन्त्रों में भी नहीं. अब इन में सोशल साइट्स की बात करें तो 'राज्य' के कायदे कानून की पाबंद वे भी हैं. खुद उन के डिस्क्लेमर में लिखा है. लिखा है कि कोई भी किसी भी देश, राज्य या समाज के नियमो, परम्पराओं और भावनाओं का अनादर नहीं करेगा. ये भी लाजिम है हरेक पे कोई किसी का फर्जी अकाउंट नहीं बनाएगा. और कोई जानबूझकर नियम, कायदों, परम्पराओं की अनदेखी करेगा ही तो साईट बिना बताये भी उसका अकाउंट बंद कर सकती है. यूं किसी साईट पे अकाउंट बनाने, उसे चलाने और उस पे जो जी चाहे अपलोड करते रहने के लिए तो कोई सरकार क्या, खुद साईट की तरफ से भी आज़ाद नहीं है. तो क्या समस्या सिर्फ ये है कि साईट उन्हें बंद कर देगी? रोना धोना क्या इसी बात पे है? सेंसरशिप का नाम इसे इस लिए दे दिया है कि महज़ मुट्ठी भर शरारती लोगों की आज़ादी(?) में पूरे देश की आवाज़ भरी जा सके?
ये हल्ला भी कोई पहली दफे नहीं मचा. पहले भी जब फेसबुक के ऐसे अनर्गल इस्तेमाल पे कुछ ऐतराज़ आये तो शोर मचा था. फिर जब सोशल साइटों पे दिल्ली की एक अदालत में केस दर्ज हुआ तो खुद इन साइट्स को लगा कि कुछ करना तो पड़ेगा. चीन का उदाहरण सामने था. किसी भी सोशल साईट की आज़ादी देश की अखंडता से ऊपर नहीं हो सकती. अदालत की कारवाई के दौरान वो तमाम उपाय खोजे इन सोशल साइट्स ने ऊटपटांग कंटेंट को कैसे रोकें. अब तकनीकी तौर से कोई भी साईट किसी भी कंटेंट को सिर्फ फ़िल्टर कर तो सकती है. एडिट फिर भी नहीं कर सकती....इसे ज़रा टेक्निकली समझ लें. मिसाल के तौर पे कुछ शब्द हैं जो आप फ़िल्टर में फीड कर दो उन शब्दों वाला कोई भी लेख या कमेंट छपेगा ही नहीं. सिस्टम अपने आप रोक देगा उसे. लेकिन अब अगर आपने कोई इमेज बना ली कोरल या एबोड पे जा के तो उस को साईट का सिस्टम भी पकड़ या रोक नहीं सकता. अदालत को इन साइट्स ने यही कमजोरी बताई थी. मैन्युअली संभव नहीं था करोड़ों लोगों में हरेक की हर पोस्ट को देख पाना और छपने देना. ये सरकार की दरियादिली थी या कमजोरी कि कंटेंट की बात को शरारतियों समेत सब लोगों की समझदारी पे छोड़ वो मस्त रह गई. लेकिन मसला हल नहीं हुआ. मसला मुखौटे पहनाने से लेकर असम में एक और हिंदुस्तान बनाने तक आगे बढ़ गया.
मैं किसी की बात नहीं करता. अपना अनुभव कहता हूँ. मेरे एक फेसबुक मित्र हुआ करते थे. हिन्दू थे. ईद से दो दिन पहले एक फोटो डाली उन्होंने. दिखाया था, एक बकरा है. आसपास ज़िबह करते चार मुसलमानहैं. नेचे लिखा था, कोई रोको इन्हें....अरे भाई, क्यों रोको?..किस लिए?..कैसे?..जब उनका मज़हब नहीं रोकता. इस देश का कानून नहीं रोकता. खुद हिन्दू भाइयों ने नहीं रोका आज तक...अब क्यों? ईद से ऐन पहले क्यों?...शरारत क्या है?..मंसूबा क्या है?...और होता क्या अगर दस बीस मुसलमान भी वैसी ही फिकरेबाजी कर देते? और अगर ज़हर घुलता समाज में तो वजह इसकी वो वेबसाईट होती जिसे पता भी नहीं चलता कि उसे कब कौन कैसे इस्तेमाल कर गया. एक मुसलमान भाई ने लिख मारा अपने अखबार और फिर अपने फेसबुक खाते में कि बिजली रोजेदारों को परेशां करने के लिए जाती है....कोई पूछे इस खुदा के बंदे से कि जिस शहर में तू रहता है उसका नाम दिल्ली है और मुसलमान उस की कुल आबादी का पांचवां हिसा भी नहीं होंगे. तो क्या बाकी 95 फीसदी भी रोज़े से हैं?
अपन ने राजनीति शास्त्र पढ़ा है. तीस साल से ज़यादा समाज की हर हलचल को देखा है एक पत्रकार के रूप में. अपना मानना है कि आज़ादी भी वही कारगर होती है जिस के कोई कायदे, उसूल और अमल हों. इस लिहाज़ से तबाहकुन तबीयतों पे कुछ तो तरबियत होनी ही चाहिए. मैं तो इस हक़ भी में हूँ कि इस मुल्क से अगर खुदा-न-खास्ता किसी एक असम या किसी एक सोशल साईट को जाना हो तो फिर असम ही ज्यादा अजीज़ होना चाहिए हर हिन्दुस्तानी को! (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और www.journalistcommunity.com के संपादक हैं. उन से संपर्क journalistcommunity@rediffmail.com के ज़रिए किया जा सकता है.)