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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रोफेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम्स!

मैं इन सभी आत्मविश्वासी पत्रकारों को ‘प्रोफेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम्स’ कहता हूँ

रवीश कुमार / बिहार में चुनाव का एलान होते ही बिहार से आने वाले पत्रकारों की चाल बदल गई है । बिहार से हैं सिर्फ इसी आधार पर या तो पूरे बिहार से इनका नाता है या पूरा बिहार ही इनको आता है । प्रेस क्लब से लेकर न्यूज़ रूमों में मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के पत्रकारों की तरह बिहार के पत्रकारों की संख्या भी ख़ूब नज़र आती है । कई न्यूज़ एंकर तो बिहार के ही हैं । मैं भी हूँ । इन सबका हाव-भाव देखते ही बिहार की कोई न कोई चुनावी सच्चाई झलक जाती है । आप पूछे न पूछें कि इनके कान से नहीं तो नाक से नाक से नहीं ज़ुबान से कहीं न कहीं का रिज़ल्ट टपक आता है ।

मैं इन सभी आत्मविश्वासी पत्रकारों को ‘प्रोफेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम्स’ कहता हूँ। इन्हें बिहार गए भले ही महीनों हो गए हों या गए भी हों तो बहनोई के यहाँ जनेऊ का न्यौता कर दिल्ली लौट आए हैं लेकिन इन्हें मैट्रिक के दिनों की तरह फ़िज़िक्स के चैप्टर की तरह बिहार का सबकुछ याद है । गाँव का रास्ता याद न हो लेकिन कहाँ से कौन जीतेगा ये फ़ैसले के स्वर में बताते हैं । इनके स्वरों में संदेह की कोई गुज़ाइश ही नहीं रहती है । न्यूज़ रूम से लेकर व्हाट्स अप तक में इन्हें बिहार की हर खबर बड़ी नज़र आती है बल्कि बिहार में ही इन्हें ग्रीस नज़र आता है और बिहार में ही असम की बाढ़ ।

इन सभी का उच्च कोटी का प्रोफ़ेसर बनने से पहले उच्च कुल में जन्म हो चुका है । सवर्ण तो बस यू हीं हैं । चुनावी नतीजे तो इनकी सोच की औपचारिकता हैं । जो ये मानते हैं और जो होने वाला है  दोनों में कोई अंतर नहीं है । इस देश में और इस मीडिया में कोई जातिवाद का विरोधी है तो वो अपर कास्ट है !  इसमें इनकी कोई ग़लती नहीं कि ये जो सोचते और बोलते हैं उसका संबंध बिहार की खास जातिगत जमात की सोच से मेल खा जाता है । इनके ख़ून में हीमोग्लोबिन तो मिल जाएगा मगर जाति की सोच नहीं मिलेगी । जाति तो उन पत्रकारों में है जिनकी जाति पत्रकारिता में नज़र नहीं आती ! इन्हें एक राजनीतिक पक्ष में जातिवाद या गुंडाराज नज़र नहीं आता लेकिन दूसरे में आ जाता है । ये कमाल का चश्मा सिर्फ इन्हीं प्रोफ़ेसरों के पास है ।

इन सबको लालू राज में पलायन करना पड़ा । उसके बाद इन्होंने पलायन बंद कर दिया है । जैसे ये हमेशा जंगलराज के कारण ही पलायन करते रहे हैं । जंगल राज से पहले तो ये पलायन नहीं करते थे । आई ए एस की कोचिंग के लिए दिल्ली आते थे और नहीं होने पर जंगलराज से पहले भारत की आत्मा की तरह गाँवों में बस जाते थे !  जैसे ये दिल्ली से मुंबई नहीं गए और मुंबई से जापान और जापान से कैलिफ़ोर्निया नहीं गए । अमरीका में भी ये नौकरियां पैकेज के कारण नहीं बदलाव जंगलराज के कारण करते हैं । चुनाव के बाद पूरा कैलिफ़ोर्निया खाली हो जाएगा । दिल्ली ख़ाली हो जाएगी । सब बिहार लौटने वाले हैं । इन्हें लौटने की बहुत बेचैनी रहती है । लौटने ही वाले थे मगर सोचने में नीतीश भाजपा का दस साल गुजर गया और अब बेडिंग बाँध कर तैयार ही थे कि लालू से नीतीश ने हाथ मिला लिया । वर्ना रिवर्स पलायन का एयर टिकट कट गया था । पुरातत्वविदों को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि अपर कास्ट सिर्फ जंगल राज के कारण पलायन करता है । अन्य कारणों से नहीं । दुनिया में जहाँ भी पलायन हुआ है वहाँ या तो जंगल राज था या उद्योग नहीं थे । बाकी कुछ करोड़ लोगों ने शौक़ से पलायन कर लिया । लेट्स हैव फन, लेट्स हैव पलायन ।

तो हज़रात बिहार में क्या होगा इन सभी प्रोफेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम से पता चल जाएगा । इन्हें हर जात का नाम प्राइमरी सोर्स की तरह याद है और हर नेता का नाम सेंकेंडरी सोर्स की तरह । आप पूछेंगे नहीं कि इनके दिमाग़ में जन्म से फ़ीड हो चुका डेटा स्कैन होने लगता है । जवाब देने में ये गुटका थूकने या घोंटने तक का ही टाइम लेते हैं । चुनाव के टाइम गैर बिहारी इनसे ऐसे सवाल पूछते हैं जैसे कोई फ़र्स्ट ईयर वाला फ्रेशर फिफ्थ ईयर वाले के सामने आते ही सिकुड़ जाता है । किकुड़ गया हो । कुछ प्रोफेसर पत्रकारिता में फिल्ड में भले फ़ेल हो गए मगर चुनाव के कारण फेसबुक पर झंडा गाड़े हुए हैं । फेसबुक पर कई प्राइवेट प्रोफेसर उग आए हैं जो बिहार को लेकर टेन कमांडमेंट लिख रहे हैं ।

आजकल इनकी चाल ऐसे बदली हुई है कि मुझे डर लग रहा है कि चुनाव के बाद इन्हें अकेलेपन की बीमारी न हो जाए । फिलहाल ये मस्त हैं । सुशील मोदी, माँझी, लालू ,नीतीश, शत्रुघ्न सिन्हा और रघुनाथ झा को देखते ही उछल पड़ते हैं । शत्रुघ्न सिन्हा पटना में पाँच सौ लोगों की सभा नहीं कर सकते लेकिन रोज चैनलों पर उनका इंटरव्यू चल रहा है । इतना कवरेज प्रधानमंत्री मोदी को भी बिहार चुनाव के संदर्भ में चैनलों पर नहीं मिला है ! यहाँ  एक डिस्क्लेमर है । मैं शत्रुघ्न सिन्हा का क़ायल रहा हूँ । मुझे ये बिहारी बिहार से भी ज्यादा पसंद आता है । भले ही वे अपने बयानों से कंफ्यूज़ किये रहते हैं लेकिन मैं बिना किसी कंफ्यूजन के कहता हूँ कि शत्रु भैय्या ने बिहारियों को गर्व करना सीखाया है । उनका टशन हमेशा क़ायम रहे । यही दुआ है । शत्रु भैया से माफी माँगते हुए आगे बढ़ता हूँ ।

तो तमाम न्यूज़ रूमों के ‘प्रोफ़ेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम्स’ हर छोटे नेता को बड़े नेता के तौर पर देख लेते हैं । इनका हर सवाल एक खास किस्म के जातिवाद के ख़िलाफ़ होता है । आप उम्मीद लगा सकते हैं कि बिहार में जातिवाद ख़त्म होने वाला है । इनकी हेडलाइन इनके सपनों से मेल खाती है। इसलिए मीडिया के समाज शास्त्र की किताब में जो जातिवादी हैं वो हमेशा पिछड़ें हैं । पिछड़ा दलित अगर पिछड़े और दलित की खोली में रहे तो जातिवाद है । सवर्ण की झोली में रहे तो जातिवाद नहीं है । विकासवाद है ।

प्रोफेसर ऑफ़ बिहार इन इलेक्शन टाइम्स का चेहरा जब भी स्क्रीन पर आए तो ग़ौर कीजियेगा । इन पत्रकारों के चेहरे पर घटने से पहले ही बिहार घट चुका होता है । बताने से पहले ये जान चुके होते हैं । जो भी होने वाला है वो इनके चेहरे पर कब से हो चुका है । बिहार में जो कुछ नया होगा इनके चेहरे पर पुराना हो चुका होता है । बात सिर्फ बिहार की नहीं है । हर राज्य से इन्हीं जातिवाद विरोधी सेगमेंट से लोग पत्रकार बने हैं । जातिवाद के विरोध का इस देश में एक ही नज़रिया क़ायम किया गया है । दूसरा नज़रिया तो हो ही नहीं सकता । महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश के चुनावों में यहाँ के पत्रकार प्रोफेसर की पदवी ओढ़ लेते हैं । चुनाव के दिनों में इनके चेहरे पर मायावती हमेशा हारती हैं । इतने दिनों का सपना पूरा भी हो गया मायावती ज़ीरों हो चुकी हैं । इसलिए से लोग ग़लत भी नहीं कहते । इनके रहते उत्तर भारत का हर चुनाव होने से पहले हो चुका होता है । इब चुनाव तो अमाँ यार बस सर्वे के लिए हो रिया है ।

सच्चाई आप भी जानते हैं । बिहार के होने भर से आप बिहार नहीं जान सकते । यूपी के होने भर से आप यूपी नहीं जान सकते । जानने का यह दंभ छोड़िये । देखने का जज़्बा पैदा कीजिये । हार जीत के एलान से पहले हार जीत की भाषा का दंभ छोड़िये । चुनाव का मजा लीजिये । बिहार के चप्पे चप्पे को नए सिरे से जानिये । देखिये । दिखाइये । कुछ तो नया हुआ होगा । बिहार का मतदाता जातिवादी नहीं है । उससे ज्यादा जातिवादी तो बिहार कवर करने वाले कई पत्रकार निकल सकते हैं । पत्रकारों को सोचना चाहिए कि जो बीस साल से जानते ही है अगर वहीं जानना चाहते हैं, बोलना या सुनना चाहते हैं तो फिर किसी चुनाव का क्या मतलब ।

जैसा कि मेरे लिखने से कभी बदला नहीं , मुझे खुशी है कि कुछ नहीं बदलेगा । मैं खुद भी तो कई अंतर्विरोधों का शिकार हूँ, क्यों आप हो सकते हैं तो मैं क्यों नहीं । मैं कहाँ बदल गया ।तो हज़रात मैं कह देना चाहता हूं कि जो जातिवाद विरोधी जातियों से नहीं आते हैं वो इस मुल्क में ऐसी मीडिया और राजनीति में जीने के लिए अभिशप्त हैं । मीडिया में जगह न मिलने की इन शिकायती जातियों को भी अपनी ये स्थिति पसंद आने लगी है । उन्हें सुख मिल रहा है । उनकी सिर्फ संख्या है भारी तो अपर कास्ट है । मीडिया में नज़रिया एक ही है ।अपर कास्ट का है मगर है जात का विरोधी ! हैं न !

(रवीश जी के ब्लॉग कस्बा से साभार )

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना