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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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बदला बाजार, तो बदले समाचार

पहले आम तौर पर किसी भी दिन घटने वाली घटनाओं की सुर्खियां पहले पन्नों पर सभी अखबारों में एक सी रहती थीं, वर्तमान में यह बात लागू नहीं होती

अरविंद दास पूंजीवादी व्यापार के तौर-तरीकों और लाभ की प्रवृत्ति भूमंडलीकरण के बाद हिंदी अखबारों में तेजी से फैली है। विज्ञापनों पर अखबारों की निर्भरता बढ़ी है, फलतः उनकी नीतियों में बदलाव आया है। वर्तमान में विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने की मुहिम में हिंदी के अखबार ‘खबर’ और ‘मनोरंजन’ के बीच फर्क नहीं करते हैं। ऐसा नहीं कि 80 के दशक में हिंदी अखबारों में खेल या मनोरंजन की खबरें नहीं छपती थीं या उनके लिए अलग से पृष्ठ नहीं होता था। लेकिन वर्ष 1986 में खेल, विशेषकर क्रिकेट की खबरें पहले पन्ने की सुर्खियां बमुश्किल बना करती थीं। वर्तमान में क्रिकेट की खबरें धड़ल्ले से सुर्खियां बनायी जा रही हैं क्योंकि क्रिकेट के खेल में मनोरंजन के साथ-साथ ग्लैमर और काफी धन है। उदारीकरण के बाद बढ़ी उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते हिंदी के अखबार पाठकों को हल्की-फुल्की, मनोरंजन जगत की ज्यादा खबरों को देकर उनकी ‘जिज्ञासाएं’ शांत कर रहे हैं। खबरों का मतलब आज ऐसी खबर है, जो सबेरे-सबेरे लोगों को आहत करने वाली या परेशान करने वाली न हों, यानी ‘खुशखबरी’। जाहिर है ऐसे में अखबारों में खबरों की परिभाषा बदल गयी है। इसलिए हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री रानी मुखर्जी या अभिनेता अमिताभ बच्चन या क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर के जीवन से जुड़ी हुई खबरें पहले पन्ने की सुर्खियां बनती हैं और देश में कर्ज से मरने वाले किसान या उत्पीड़न के शिकार दलित-आदिवासी कभी-कभार ही पहले पन्ने पर जगह पाते हैं। आम तौर पर पहले किसी भी दिन घटने वाली घटनाओं की सुर्खियां पहले पन्नों पर सभी अखबारों में एक सी रहती थीं, वर्तमान में यह बात लागू नहीं होती।

वर्ष 1986 में ही नवभारत टाइम्स ने इस बात को नोट किया था, “आज के पाठकों की रुचि व्यापार-वाणिज्य की खबरों में बढ़ने लगी है। वे जानना चाहते हैं कि शेयरों का हिसाब-किताब क्या चल रहा है और चीजों की कीमत किस तरह घट-बढ़ रही है। पूरे देश की मंडियों और व्यापारिक गतिविधियों की जानकारी एकत्र करने के बाद हम प्रस्तुत कर रहे है – अर्थसार।”

स्पष्टतः 1986 में अखबार मे शुरू किया गया ‘अर्थसार’ जो अंदर के पृष्ठ पर थोड़ी सी जगह में सिमटा पड़ा था, वह अब फैलते हुए पहले पन्ने की सुर्खियों मे छाने लगा है।

भूमंडलीकरण का केंद्रीय घटक अर्थतंत्र होने के कारण व्यापार जगत की खबरों, व्‍यावसायिक प्रतिष्ठानों के ‘कलहों’ के साथ, शेयर बाजार की उतार-चढ़ाव की खबरें, बाजार भाव आदि की खबरों को अखबार अपने पाठकों को प्रमुखता से परोस रहे हैं। जिसका विस्तृत विश्लेषण हम आगे ‘अर्थतंत्र’ से संबंधित सामग्री विश्लेषण के प्रसंग में करेंगे। इसी तरह ‘खेल’ से संबंधित सामग्री विश्लेषण के प्रसंग में हम क्रिकेट से संबंधित खबरों को अन्य खेलों के मुकाबले तरजीह देने और भूमंडलीकरण के दौर में ‘क्रिकेटीय राष्ट्रवाद’ के प्रसार और उसके कारणों की भी विस्तृत चर्चा करेंगे।

ठीक इसी तरह सवाल यह भी है कि भूमंडलीकरण के दौर में अंतरराष्ट्रीय खबरों की जगह पहले पन्ने पर स्थानीय खबरें क्यों ज्यादा छपने लगी हैं? असल में, खबरों के चयन में किसी घटना के साथ लक्षित पाठक वर्ग का जुड़ाव काफी मायने रखता है। यदि कोई घटना ऐसी है, जो पाठकों की देश-दुनिया से जुड़ी हुई है, तो वह अंतरराष्ट्रीय खबरों के मुकाबले उसे ज्यादा आकर्षित करती है। मीडिया विशेषज्ञ विलबर श्रराम (1973 : 110-111) ने लिखा है कि पूरी दुनिया में जो लोग अखबार जगत से जुड़े हुए हैं, वे जानते है कि स्थानीय खबरें अखबारों की बिक्री को बढ़ाती है। लेकिन भारतीय अखबारों में स्थानीय खबरों को ज्यादा तरजीह नहीं दिया जाता था और उसके बदले अंतरराष्ट्रीय खबरों को प्रमुखता दी जाती थी। बहुत से भारतीय संपादक और कुछ मालिक मानते थे कि स्थानीय खबरों के छापना गंभीर किस्म की पत्रकारिता के खिलाफ है। ऐसा नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय खबरें नवभारत टाइम्स में नहीं छपती हैं। अंदर के पन्नों पर अंतरराष्ट्रीय खबरों के लिए देश-विदेश शीर्षक से पन्ना विशेष तौर पर निर्धारित है। लेकिन चूंकि स्थानीय खबरों के पाठक किसी भी समय में अंतरराष्ट्रीय खबरों से ज्यादा होते हैं, अखबारों का जोर स्थानीय खबरों पर बढ़ा है। प्रसंगवश यहां पर नोट करना उचित होगा कि हिंदी अखबारों में अंतरराष्ट्रीय खबरों का चयन और विश्लेषण अमूमन भारतीय राज्य और सत्ता के नजरिए से ही होता आया है। पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश के मामले में यह ज्यादा सच है।

90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए। जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आयी नयी तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया। साथ ही इन दशकों में ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजार में नयी वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई। हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरा है। साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है। इससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। मीडिया विशेषज्ञ सेवंती निनान (2007 : 26) ने इसे ‘हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार’ कहा है। वे लिखती हैं, “प्रिंट मीडिया ने स्थानीय घटनाओं के कवरेज द्वारा जिला स्तर पर हिंदी की मौजूद सार्वजनिक दुनिया का विस्तार किया है और साथ ही अखबारों के स्थानीय संस्करणों के द्वारा अनजाने में इसका पुनर्विष्कार किया है।” निस्संदेह दूर-दराज के क्षेत्रों से अखबारों का प्रकाशन समाज में हाशिये पर रहने वाले दलित और पिछड़े तबकों के लिए सत्ता में हिस्सेदारी का एक माध्यम बन कर उभरा है। इसी दौरान हिंदी क्षेत्र में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए और सत्ता में सदियों से वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। पर इन बदलावों को पूंजीवाद जनित ‘देशज आधुनिकता (vernacular modernity) के प्रिज्म से विश्लेषित करना (नियाजी : 2010)  दूर की कौड़ी लाना है। भूमंडलीकरण के साथ-साथ ‘समाचार पत्र क्रांति’ के मार्फत उभरी इस ‘देशज आधुनिकता’ की पहली शर्त यदि आलोचना और स्वातंत्र्य चिंतन है, तो फिर इस पुनर्विष्कृत सावर्जनिक दुनिया में हम विरले ही भूमंडलीकरण या उसके द्वारा लाए गए अवारा पूंजी की आलोचना देखते हैं। साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक ‘पेड न्यूज़’ की ‘देशी परिघटना’ को इस आधुनिकता के साथ जोड़ कर देखना रोचक होगा!

मीडिया विमर्श के इन पश्चिमी मॉडलों के सहारे हम न ही देशज आधुनिकता के सिद्धांत को बहुत दूर तक लागू कर सकते हैं और न ही समाचार पत्र क्रांति के पीछे छिपी राजनीति को विश्लेषित कर सकते हैं, जिसने हिंदी अखबारों को अराजनीतिक बनाया है।....... 

अंतिका प्रकाशन से छपी अरविंद दास की पुस्‍तक हिंदी में समाचार का एक हिस्‍सा

अरविंद दास देश के उभरते हुए सामाजिक चिंतक । भूमंडलीकरण के बाद की हिंदी पत्रकारिता पर "हिंदी में समाचार" नाम की पुस्‍तक प्रकाशित

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना