रामलीला खेलने की परंपरा थी तो, गांवों में नहीं था उग्रवाद की पौध का नामोंनिशान
कमल किशोर। आधुनिकता की मार और टीवी चैनल के जरिए फैलती अपसंस्कृति के बीच बिहार के गांवों से दशहरा के मौके पर रामलीला की परंपरा लुप्त होने लगी है।
गांव में आपसी भाईचारा, सद्भाव, संस्कृति और सहिष्णुता बढावा देने वाले रामलीला के आयोजन की जगह अब वीडियो और सीडी प्लेयर पर चलने वाले फूहड़ किस्म के सिनेमा तथा कार्यक्रमों ने ले ली है। अब तो स्थिति ऐसी हो गयी है कि दशहरा के मौके पर बिहार के इक्के दुक्के गांव में ही रामलीला देखने को मिलती है और रामलीला के माध्यम से शांति, सद्भाव और बंधुत्व का संदेश शायद ही ग्रामीणों तक पहुंच पाता है।
बिहार के गांव में दशहरा के मौके पर करीब दस दिनों तक चलनेवाले रामलीला को देखने के लिए देश के विभिन्न प्रान्तों से ही नहीं बल्कि पड़ोसी देश नेपाल से भी काफी लोग यहाँ आते थे लेकिन अब न तो वैसी रामलीला रही और न ही उसे दूर-दूर तक जाकर देखने-समझने तथा इससे आनंद उठाने वाले लोग। आलम यह है कि गांवों में आजकल की नई पीढी यह भी नहीं जानती कि रामलीला किस बला का नाम है।
टीवी के माध्यम से आती आधुनिकता, अपसंस्कृति और कलाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिलना बिहार के गांवों की दशहरा संस्कृति में रची-बसी ‘रामलीला’ की परंपरा के विलुप्त होने के कारणों में प्रमुख है। पहले जहां शहरों की दुर्गापूजा आधुनिकता के रंग में रंगी होती थी, आज भी है, वहीं गांव की सादगी भरी रामलीलायुक्त दशहरा देखते ही बनती थी लेकिन अब गांव में दुर्गापूजा के वक्त आयोजित होनेवाली रामलीला गुजरे जमाने की बात बनती जा रही है। एक समय था जब गांव-गांव में दशहरा के आगमन के कई माह पूर्व ही रामलीला के खेल के लिए रामलीला कमिटियां गठित होने लगती थी, वहीं अब ऐसी कमिटियां अब गांव में बिरले ही नजर आती है।
रामलीला में भाग लेने वाले कलाकार रह चुके प्रख्यात इतिहासकार प्र. तारकेश्वर प्रसाद सिंह बताते हैं कि पहले गांव में दशहरा पर रामलीला खेलने के लिए लोग दो दो महीने तक रिहर्सल किया करते थे और इस दौरान न केवल आपस में प्रेम-मुहब्बत बढता था बल्कि रामलीला के प्रेरक प्रसंगों को देख-सुनकर लोगों में भी मर्यादित आचरण अपनाने का आंतरिक संदेश जाया करता था। इनका कहना है कि जब तक गांवों में रामलीला खेलने की परंपरा विद्यमान थी तब तक गांवों में उग्रवाद की पौधा का नामोंनिशान नहीं था और दशहराके पर्व पर लोग मिल-जुलकर खुशी बांटा करते थे ।
हालांकि दशहरा के मौके पर गांव की रामलीला कमिटयों द्वारा देश के बनारस, मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या,कोलकाता, दिल्ली आदि स्थानों की मशहूर रामलीला मंडलियां के रामलीला की प्रस्तुति के लिए बुलाने का रिवाज था, जो अब प्रायः समाप्त हो गया है। जाने-माने नाटककार लाला शंभू नाथ का कहना है कि पहले जहां रामलीला के कलाकारों को गांव में इज्जत दी जाती थी, वहीं ग्रामीण समाज के भी शहरीकरण के रंग में रंग जाने के कारण उन्हें अब रामलीला में भी प्रदर्शनों के लिए मजबूर किया जाता है जिससे उनके आत्मसम्मान व रामलीला की भावना को ठेस पहुँचती है।
रामलीला के ख्यातनाम कलाकारों का कहना है कि अब रामलीला के कद्रदानों में भी कमी आयी है। इनका कहना है कि पहले जहां गुलाम भारत में गोरे अंग्रेज भी दशहरा के दिनों में रामलीला के प्रसंगों को घंटों बैठकर देखा करते थे और इतना ही नहीं इनके द्वारा कलाकारों की कला को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें इनाम से भी नवाजा जाता था लेकिन अब तो भोंड़े प्रदर्शन करने पर ही कलाकारों पर पैसे की बौछार की जाती है।
रामलीला कलाकार बताते हैं कि पहले सिर्फ दशहरा ही नहीं बल्कि अन्य तीज त्योहारों भी गांव में रामलीला मंडलियों की प्रस्तुति के लिए बुलाया जाता था, वहीं अब ऐसी बात नहीं रह गयी है। इस स्थिति में रामलीला कलाकार इस कला से विमुख होकर अन्य रोजगार अथवा धंधों की ओर उन्मुख हो चले हैं। यही कारण है कि अब देश भर में चंद रामलीला कंपनियां ही शेष रह गई है, जिनके द्वारा जैसे-तैसे रामलीला की परंपरा को संजोये रखते हुए इसे एक तरह से घसीट कर चलाया जा रहा है।
रामलीला की गहरी समझ रखने वाले गांव के बुजुर्ग ने बताया कि अब तो दशहरा में रामलीला की जगह पर वीडियो पर रामानंद सागर के धारावाकि रामायण को दिखाये जाने की भी पंरपरा चल रही है लेकिन जो बात मंच पर खेले जाने वाली रामलीला में है, वह बात धारावाहिक में कहां है। ऐसे लोगों का कहना है कि गांव में रामलीला नहीं खेले जाने की मजबूरी में वे रामायण धारावाहिक ही देखकर संतोष कर लेते हैं लेकिन इससे उन्हें पूर्ण संतोष की आंतरिक अनुभूति नहीं हो पाती है।
बहरहाल, गांव स्तर पर हो रही शहरों की नकल, आधुनिकता की नित्य दिन पड़ रही छाप, उग्रवादियों की बढती पैठ एवं सामाजिक संरचना में आते बदलावों के बीच दशहरा की ग्रामीण संस्कृति की पहचान रामलीला अब विलुप्तप्राय होती जा रही है। दुखद बात यह है कि सरकार का कला एवं संस्कृति मंत्रालय भी रामलीला के आयोजन और इसके कलाकारों को प्रोत्साहन के प्रति बिल्कुल उदासीन है। ऐसे में यदि समय रहते समाज के प्रबुद्ध लोगों ने ध्यान नहीं दया तो रामलीला भी गुजरे जमाने की चीज हो जायेगी।
कमल किशोर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और औरंगाबाद ,बिहार से प्रकाशित "नवबिहार टाइम्स" के संपादक है