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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मीडिया वालों को मीडिया से ही तकलीफ है !

क्या मीडिया की ताकत से मीडिया को ही कुचला जा सकता है ?

जगमोहन फुटेला / जब आदमी का वक्त बुरा आता है तो उस की ताकत भी एक दिन कमज़ोरी बन जाती है. विनोद शर्मा के साथ भी यही हुआ है. गोपाल कांडा के भी. दोनों मीडिया के माध्यम से अपनी ताकत बढ़ाने चले थे. दोनों की तकलीफें बढ़ी हैं. विनोद शर्मा के बेटे मनु शर्मा के खिलाफ पूरे देश में जन-अभियान भी मीडिया ने जगाया और पेरोल भी हर बार मनु का मीडिया की मेहरबानी से ही कैंसल हुआ है. गोपाल कांडा के खुद के साथ बुरी बीती. उन्होंने पांच लायसेंसों वाली एक चैनल कंपनी खरीदी. उस में से एक हरियाणा न्यूज़ चलाया. अख़बार भी ला रहे थे. संपादक तलाश ही रहे थे कि गीतिका कांड हो गया. अब उन्हें शिकायत है कि मीडिया हाथ धो के उनके पीछे पड़ा है.

क्या गोपाल कांडा के साथ कुछ ज़्यादा ही गलत हो गया है?... मीडिया में?... कम से कम कांडा परिवार को तो यही लगता है. उसे लगता है, ऐसी ऐसी खबरें उछाली जा रही हैं कि जिन का 'कोई सिर पैर' ही नहीं है. न कोई ताल्लुक असल घटना से. आरोप ये है कि ये सब कांडा की छवि खराब करने के लिए किया जा रहा है. इस लिए छ: टीवी चैनलों का नाम ले के एक याचिका भी डलवाई गई है उनकी पत्नी की तरफ से पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट में. इस अनुरोध के साथ कि चैनलों को 'मिथ्या दुष्प्रचार' से रोका जाए. माननीय अदालत ने इस मामले में जवाब तलब किये हैं. हरियाणा सरकार से भी.

अपन एक ऐसे मुद्दे की बात करेंगे कि जो सम्मानित हाईकोर्ट के विचाराधीन नहीं है. और वो ये है कि क्या मीडिया की ताकत से मीडिया को ही कुचला जा सकता है? क्या आप को सिर्फ इस लिए इम्युनिटी (छूट) मिल सकती है कि आप भी मीडिया वाले हैं?... मेरे जैसे बहुत बाद की पीढ़ी के पत्रकार के लिए मुश्किल हो जाएगा कोई 'फ़तवा' देना. बेहतर है इतिहास से पूछ लें. जहां तक खुद मीडिया वाला हो के हर अच्छे बुरे से निजात पाने की बात है तो वो तो टाइम्स आफ इंडिया के अशोक जैन को भी नहीं मिली थी. न उन अकालियों को पंजाब में जो एक अच्छी खासी सियासी ताकत थे और आज भी हैं. उन की 'अकाली पत्रिका' अब वे खुद भी नहीं पढ़ते. 'अकाली पत्रिका' के बावजूद अकालियों को पंजाब में धर्मयुद्धों, आतंकवाद और हिंसा से जोड़ कर देखा गया. इस के बावजूद 'अकाली पत्रिका' तो उनको उस छवि से निकाल कर सत्ता तक नहीं ला पाया था. न अशोक जैन को मुक्ति दिला सका टाइम्स आफ इंडिया जैसा इतना बड़ा ग्रुप उन के खिलाफ फेरा तक जैसे 'झूठे सच्चे' केसों से. इतना बड़ा सन टीवी चलने के बाद करूणानिधि की बेटी महीनों जेल में रह के आई है. जयललिता भी मीडिया महारानी होने के बाद अभी तक अदालतों के चक्कर काट ही रही हैं. 

जनसंदेश के नाम से एक अखबार आया ओमप्रकाश चौटाला का और इसी नाम से एक चैनल मायावती के लोगों का. कहाँ हैं वो? मुलायम सिंह के मित्रों का 'डेली एक्टिविस्ट' कितना मददगार है रोज़ कभी शाहिद सिद्दीकी, कभी आज़म खान तो कभी शिवपाल यादव की बयानबाजी से निबट रही अखिलेश की छवि को बचाने में? कहाँ गया पंडित जवाहर लाल नेहरु का बोया हुआ नॅशनल हेराल्ड और राजीव गाँधी के वो दो 'कांग्रेस वीकली' और 'कांग्रेस साप्ताहिक', इस देश के तब सब से तुर्रमखां आर.के. मिश्र जिन के प्रधान संपादक हुआ करते थे और जिन अखबारों के लिए नीचे प्रदेश से लेकर ब्लाक स्तर तक के कांग्रेसियों को ये हिदायत थी कि इतनी इतनी कापियां उठानी ही हैं. 

दिक्कत क्या है?...दिक्कत ये है कि अखबार या चैनल जब पार्टियां लाती हैं तो सब से पहले वो पत्रकार नहीं अपने यहां भाडुओं की फ़ौज भरती करते हैं. ऐसे ऐसे लोग जो पत्रकार भी नहीं होते. मैनेजमेंट में हैं तो वहां भी मैनेजमेंट की कोई डिग्री छोड़ो, चार पन्ने के किसी अख़बार का भी अनुभव नहीं होता उन को. बल्कि मैंने तो हिंदी के बीस पेजी अखबार में ऐसे भी लोगों को संपादक होते देखा है जिन्होंने हिंदी कभी पढ़ी भी हो तो आती नहीं है और जो संपादक की कुर्सी पे बैठ के बड़ी शान से आज भी कहते आ रहे हैं कि पंजाबी हो कर मैं अपनी मां-बोली की जगह हिंदी क्यों बोलूँ? इस पर तुर्रा ये है कि ऐसे लोगों को रिपोर्ट भी करना पड़ रहा उन मालिकों को कि जिन्हें खुद या तो पत्रकारिता नहीं आती या वो भाषा जिस में कि उनका अखबार छपता है. 

बिल्डर जब से आये और सी.एल.यू. (चेंज आफ लैंड यूज़) लेने के लिए जब सरकार पे दबाव की ज़रूरत तो प्रेस वाले कार्ड तो मार्केटिंग एक्ज़ीक्यूटिवों तक को इश्यू हो गए. और फिर नाम भी वैसे वैसे कि बस माशाल्ला. अपने फ़्लैट बेचने के लिए कंपनी के नाम से ही अखबार निकाल लिया. ये प्रोफेशन, ये बिजनेस जब प्राथमिकता है ही नहीं उन की तो अपनी प्रेस तक लगाने की ज़हमत नहीं उठाई. बाहर से दस पांच हज़ार अखबार छपवाओ. जिन दफ्तरों में काम है वहां भिजवाओ और जब सी.एल.यू. से लेकर सीवरेज की परमीशन तक अपने संपादक को दफ्तरों तक रपटाते रहो. रिपोर्टर छोड़ो, संपादक होने तक का क्राईटेरिया आज ये हो गया है कि कौन किस से क्या काम ले के दे सकता है. मेरे खुद के कुछ मित्र ऐसी पीड़ा के साथ जी रहे हैं. मैंने पूछा एक दिन एक से...देश में बवाल मचाने वाली वाशिंगटन पोस्ट की खबर पढ़ी?...बोला, अभी तो मालिक की चिट्ठी पढ़ रहा हूँ जो म्यूनिसिपल कारपोरेशन को जानी है. 

अखबारों में तो पत्रकारों का सत्यानास हुआ ही था, ऐसे ऐसे चैनलों ने आ के तो और भी कबाड़ा कर दिया. सोच ही और थी तो प्राथमिकताएं भी अलग थीं. अपने मकसद के लिए लाये थे चैनल तो अपनी ही खबरें बनवाते, चलवाते रह गए. कांडा की ही बात करें. निर्दलीय विधायक होने के बावजूद हरियाणा की कांग्रेसी सरकार में थे तो कुल चौदह ख़बरों में से बारह कांग्रेस की या अपनी होती थीं उन के बुलेटिनों में. यहां तक कि डीपीआर दफ्तर से बन के आया पांच सात ख़बरों का वो कैप्स्यूल भी इसी में जिस में कभी सड़क और नाली से नीचे तक की खबरें भी होती थीं. बीच में ब्रेक होता था तो उसमे भी विदाउट फेल मुख्यमंत्री वाला विज्ञापन. वो भी हर ब्रेक में दो बार. किसी ने कभी बताया, समझा ही नहीं कि जब आप अपनी पार्टी का गुणगान करते रहते हो तो दूसरी पार्टी से जुड़े दर्शक तो उसी दिन छोड़ जाते हैं आपको. अपने वाले आप को यूं नहीं देखते कि उनके मस्खे के अलावा आप और दिखा ही क्या रहे होगे? उलटे उन से तो फोन कर के खुद पूछना पड़ता है- हमारी खबर देखी? बल्कि न देखी हो तो तीन दिन पुरानी खबर फिर डलवानी पड़ती है तीन दिन बाद वाले बुलेटिन में. जुलूस निकलता ही रहता है. किश्त दर किश्त. हर रोज़.

भर्तियाँ भी सिफारिशी हैं. प्रदेश, देश, दुनिया, मुद्दों की समझ आप के स्टाफ को नहीं है. चैनल पे किसी विषय का कोई विशेषग्य आप की इस दिमाग से पैदल फौज के साथ माथा फोड़ेगा नहीं. आप ने जैसे लोग रखे हैं वैसे ही दर्शकों तक सीमित हो के रह जाओगे. इंटेलेक्चुअल, पालिटिकल और कारपोरेट क्लास तक पंहुच कभी होती नहीं. प्रोफेशनल तरीके से जब आमदनी होती नहीं तो विज्ञापन लाने का काम भी आ पड़ता है स्ट्रिंगरों के ज़िम्मे. बची खुची पत्रकारिता उस दिन सरकारी सीवरेज में बह जाती है. इसी विज्ञापन की कमीशन और जी.एम. के नज़दीक होने के लालच में स्ट्रिंगर जब संपादक की सुनना बंद करता है तो जैसी भी हैं वो खबरें मरनी शुरू होती हैं. खबरें पूरी न होने से बुलेटिन जब रिपीट ख़बरों से चलने लगता है तो टकराव शुरू होता है जी.एम. और संपादक में. ऐसे में एक की बलि दूसरा और दूसरे की फिर एक दिन मालिक लेता है. ऐसे चैनलों की यही नियति है.

कांडा के किसी भी और गुनाह के सच झूठ का फैसला तो अदालत करेगी. उसी को करना चाहिए. अब मामला अदालत में है तो उनके निशाने पे आये चैनलों का व्यवहार भी अदालत ही देखे. लेकिन सवाल है कि अपने खुद के मीडिया को वो मीडिया की तरह चला रहे हैं क्या? सच तो ये है कि मकसद अगर उनका अगर राजनीतिक है तो वो भी तो पूरा नहीं हो रहा! कांग्रेस ने टिकट जब देना ही नहीं उन्हें तो कांग्रेस-कांग्रेस कर ही क्यों रहे हैं वो? इस से तो अपने बनियों का माउथ पीस ही बना लेते वो तो भी आज कुलदीप बिश्नोई से ज़्यादा लोगों के लीडर होते हरियाणा में. जो समझौता भाजपा ने किया कुल
दीप के साथ वो कांडा के साथ भी तो हो ही सकता था.
मान के चलिए कि मीडिया से मीडिया को मार आप नहीं सकते. हाँ, वो प्रतिष्ठा अर्जित करने और लोगों को अपने साथ जोड़ के अपनी ओपिनियन मेकिंग (या ब्रेकिंग) ताकत बढ़ाने का साधन तो हो सकता है. अगर वो हो मीडिया की तरह....!
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार और www.journalistcommunity.com के संपादक हैं )

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सम्पादक

डॉ. लीना