Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

मीडिया से अब उत्तराखंड नदारद

सोशल मीडिया में भी यह मुद्दा हाशिये पर

जबकि जन जागरूकता की वास्तविक जरूरत अब

राजीव लोचन शाह/ दो सप्ताह से अधिक समय तक मीडिया में छाया रहने वाला उत्तराखंड अब वहाँ से नदारद हो गया है। क्षेत्रीय दैनिकों में भी आपदाओं की खबरें सिर्फ जिलों तक तक ही सीमित रह गयी हैं, यानी धारचूला निवासियों के दुःख-दर्द सिर्फ पिथौरागढ़ संस्करण पढ़ने वाले ही जान पायेंगे और अगस्त्यमुनि वालों की दिक्कतें चमोली-रुद्रप्रयाग संस्करण पढ़ने वाले। इतना तो स्वाभाविक था।

मगर ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि सोशल मीडिया में भी यह मुद्दा हाशिये पर चला गया है। जबकि जन जागरूकता की वास्तविक जरूरत अब है। चार धाम यात्रा से जो लोग घर नहीं पहुँचे, उनके परिजन अब उनके बगैर रहना सीख चुके होंगे। लापता स्थानीय लोगों के परिवारों ने भी अपनी किस्मत के साथ समझौता कर लिया होगा। मगर पहाड़ की किस्मत तो वही है। वह न बदली है और न उसके इतनी आसानी से बदलने की उम्मीद है। ऐसी आपदाओं से दो-चार होना तो पहाड़ की नियति है। किस साल बाढ़-भूस्खलन नहीं आते और किस साल तबाही नहीं होती ? इस बार उसका परिमाण और भूगोल अवश्य थोड़ा बड़ा था। चार धाम में देश भर के लोगों के फँसने, काल कवलित होने से उसका प्रचार दुनिया भर में हो गया।

लेकिन अब आगे ? करुणाविगलित होकर न सिर्फ केन्द्र और प्रदेश सरकारों ने खुल कर आर्थिक मदद दी, बल्कि विदेशों से तक मदद आई। अनेक संगठन और संस्थायें अभी भी राहत कार्यों में निःस्वार्थ भाव से जुटी हुए हैं। मगर जहाँ से वास्तविक राहत मिलनी है, वह सरकारी मशीनरी क्या इतनी सक्षम, ईमानदार और संवेदनशील है कि दुखियारों के आँसू पोंछ सके ? आज तक के अनुभव तो ऐसा विश्वास नहीं दिलाते। मुख्यमंत्री स्तर से पटवारी स्तर तक कफनखोरों का ही बोलबाला है।

इसके बाद पुनर्वास का मामला है। जिन गाँवों को पुनर्वासित किया जाना है, उनकी संख्या 262 ही है कि चार सौ, इतना भी हम नहीं जानते। राज्य के बारह साल के इतिहास में यह सबसे जरूरी मुद्दा भूमि घोटाले करने और जल विद्युत परियोजनाओं की रेवड़ी बाँटने वाली हमारी दलाल सरकारों के लिये कभी भी प्राथमिकता में नहीं रहा। इसके लिये वन संरक्षण अधिनियम का बहाना बनाना आँखों में धूल झोंकना है, क्योंकि जल विद्युत परियोजनायें बनाना हो या संरक्षित क्षेत्रों में रिजार्ट खोलना, वहाँ यह अधिनियम कभी आड़े नहीं आता।

जिस बात को हम अभी ही भूलने लगे हैं और बहुत जल्दी पूरी तरह भूल जायेंगे कि क्या विकास के इसी रास्ते पर हम आगे भी चलते रहेंगे ? क्या तथाकथित धार्मिक पर्यटन इसी तरह भेडि़याधँसान बना रहेगा ? क्या सड़कें, रिजार्ट, परियोजनायें इसी तरह बगैर सोचे-समझे बनती रहेंगी और आगे चल कर विनाश का सबब बनेंगी ? क्या ऐसी आपदाओं के बाद पहाड़ों से भगदड़ तेज नहीं होगी और सीमान्त का यह हिस्सा जनशून्य नहीं हो जायेगा ? क्या हम इन समस्याओं का समाधान जल, जंगल, जमीन पर जनता के अधिकार और पूरी तरह स्वावलम्बी स्थानीय स्वशासन के रूप में नहीं ढूँढेंगे ? हमें इन सवालों से लगातार टकराना है।

भाजपा, कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दलों को संचालित करने वाले ठेकेदार प्रजाति के लोग तो इस आपदा से खुश हैं। बाहर से भले ही शोकाकुल होने का स्वाँग रच रहे हों। राहत के नाम पर आने वाली विशाल ‘मेगा राशि’ में वे अपना हिस्सा तलाश रहे हैं। सड़कें, पुल, मकान बनाने के ढेर सारे ठेके उन्हें मिलने हैं। हिमालय के दर्द से उन्हें कोई सरोकार नहीं। मुझ जैसे पत्रकार-आन्दोलनकारी, जिसने 37 साल पहले ‘‘प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध हिमालय ने युद्ध छेड़ दिया है’’ शीर्षक लेख के साथ अपनी पत्रकारिता का आगाज किया था और मेरे जैसे मुठ्ठी भर लोग ही इन हालातों से परेशान हैं और भरसक इन्हें बदलने की कोशिश कर रहे हैं। इस हालिया आपदा ने जिन असंख्य लोगों को इन सवालों के घेरे में ला दिया था, अब वे पुनः बेपरवाह होते दिखाई दे रहे हैं।

सोशल मीडिया, जो इस मामले में बड़ा योगदान दे सकता था, इन दिनों और अधिक भटका हुआ दिखाई देता है। उसमें नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के अंध भक्त, कांग्रेस-भाजपा के पैरोकार और साम्प्रदायिक उन्मादी न जाने कहाँ-कहाँ से घुस आये हैं। खैर यह उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का मामला होगा। मगर उनके दुष्प्रचार के बीच हम हिमालय को तो न भूलें।

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना