आखिर ऐसा क्यों है कि मुहैया करायी गई खबरों से वह बाहर नहीं निकल पा रहा है ?
लीना/ खबरिया चैनलों पर मनोरंजन चैनलों की खबरें (धारावाहिकों के अंश), हास्य शो के अंश, किसी नेता, धर्मनेता या ऐरे गैरे नत्थू खैरे द्वारा दिए गए बयान पर घंटों की बेकार बहस, (बेकार इसलिए कि इसमें कोई तथ्य, निष्कर्ष, सहमति -असहमति तो निकलकर सामने नहीं ही आते, आने भी नहीं दिए जाते।), अपराध जगत की खबरों को दिखाने के लिए सनसनीखेज नाट्य रूपान्तरण, किसी सेलेब्रिटी के ऐसे पुराने रिश्ते, जिन्हें भूलकर-आगे कदम बढ़ाकर अब वे खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं और इन पुरानी बातों को शायद याद करना, दोहराना भी अब पसंद ना करें- उनके जख्मों को कुरेदते, नमक मिर्च लगाते कार्यक्रम। इन सबसे पहले दिनभर खबर के नाम पर किसी व्यक्ति, संगठन, एजेंसी द्वारा जारी कोई वकतव्य- बयान या आरोप-प्रत्यारोपनुमा खबरें बारंबार दिखाना।
कहां है इन न्यूज चैनलों पर पत्रकारों की अपनी कोई वास्तविक खबर, कोई नई खास बात, कोई रीयल स्टोरी ? एक्सक्लूसिव के नाम पर खबरिया चैनलों पर होता है घटना- दुर्घटना की कोई फुटेज, जो एक्सक्लूसिव सिर्फ इसलिए है कि वह फुटेज अन्य चैनलों की अपेक्षा कुछ मिनटों पहले फिल्माए - दिखाये गए हैं।
यह हाल सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया का नहीं है, बल्कि प्रिंट मीडिया में भी खास खबरों का अभाव है। यहां मेरी राय में बाइलाइन होना ही खबरों का खास हो जाना नहीं है। बाइलाइन खबर की एक बानगी देखिए- ‘‘ होल्डिंग टैक्स तो जान ही ले लेगा’’... खबर में है कि वार्षिक किराया मूल्य दोगुना हो जाने से, (जो कि आधिकारिक तौर पर घोषित किया जा चुका है ) होल्डिंग टैक्स दोगुना हो गया है।...... ऐसे ऐसे रोज कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।
अखबारों में या तो चोरी, डकैती, दुव्र्यवहार और इन जैसी अपराध की घटनाएं हैं या फिर सरकारी घोषणाओं-कार्यक्रमों की खबरें, न्यायालय के आदेश, विभिन्न दलों के नेताओं के बयान, शहर में आयोजित कार्यक्रमों की खबरें। कुल मिलाकर कहें तो वे घटनाएं जो आस पास हो रहीं हैं, नियमित रूप से सभी मीडिया में समान रूप से मौजूद हैं। निश्चिय ही ये सभी खबरें जरूरी हैं ओर उनका सामने लाया जाना भी। लेकिन सवाल है कि इन सबके बीच कहां है कोई रीयल स्टोरी, कोई वास्तविक रूप से खोजबीन कर लाई गई खास पड़ताल ?
आज मीडिया में मौजूद है तो बस मुहैया करायी गई खबरें। चाहे वह विज्ञापनदाता मुहैया कराये, कोई सूचनाधिकार कार्यकर्ता (आम या खास, जैसे अन्ना या केजरीवाल ), या कोई व्यक्ति विशेष द्वारा किया गया स्टिंग (जिंदल- जी न्यूज प्रकरण)। पत्र- पत्रिकाओं में इनके अलावा इम्पैक्ट फीचर, एडभर्टोंरियल जैसे नाम देकर छापे जाते ही हैं पन्ने भर भर के, खबरों के रूप में मुहैया कराये गये विज्ञापन। और पत्रिकाओं में मुहैया कराये गए सर्वे, खास के नाम पर आवरण कथा के तौर पर हैं ही। इलेक्ट्रानिक मीडिया भी इन्हीं मुहैया करायी गई खबरों की बदौलत 24 घंटे चलता रहता है। बड़े बड़े मीडिया हाउस के पत्रों का भी यही हाल है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट कमोवेश दोनों की स्थिति एक सी है। आज पाठक या दर्शक जो पढ़ या देख रहा है, वह वो ही सतही खबरें हैं जो एक आम आदमी की हैसियत से किसी को भी दिखाई दे सकती है। खास केवल यही है कि एक जगह की खबरें-सूचनाएं दूसरे जगहों तक मीडिया के माध्यम से पहुंच जा रहीं हैं, बस।
जो थोड़ा कुछ बचा है वह छोटी पत्रिकाओं में नजर आता है। इनमें कई सुदूर क्षेत्रों से भी खास खबरें, चाहे विकास की हो या कुव्यवस्था की, ढूंढ कर लाये जाते हैं, लेकिन संसाधनों के अभाव में इन रीयल स्टोरीज की पहुंच सर्वाधिकों तक नहीं हो पाने से, ये भी जल्दी ही दम तोड़ देती हैं।
अस्सी के दशक की स्वच्छ खोजी पत्रकारिता तो आज सिरे से गायब ही हैं। एक समय था जब तहलका और इस जैसे कई स्टिंग आपरेशनों ने देश के बड़े बड़े घोटाले उजागर किये थे। आज भी स्टिंग होते हैं, खोजी पत्रकारिता की जाती है, लेकिन इनके नाम पर जो कुछ है तो वह ज्यादातर खबरें प्लांट होती हैं या वह ब्लैकमेलिंग का जरिया बनायी जा रही हैं।
खोजी पत्रकारिता जरूरी नहीं कि हमेशा नकारात्मक हो। विकास, स्वास्थ्य और समाज से जुड़े कई विषयों पर शोध के साथ लिखा जा सकता है। लेकिन अखबार का संपादकीय विभाग या पत्रकार इतनी मेहनत नहीं करता। ग्रामीण भारत पर कोई नहीं लिखता। पत्रकारिता का मकसद पब्लिक और देश का कल्याण माना जाता रहा है। पत्रकारों की कोशिश होनी चाहिए कि कैसे वह पूरी ईमानदारी से अच्छी खबरों की खोज करें। कहा जाता है कि हालांकि देश और दुनिया को हिलाने वाली खबरें रोज नहीं मिलतीं, लेकिन पत्रकार नॉर्मल कवरेज ढंग से करते रहेंगे तो ब्रेकिंग न्यूज जरूर हाथ में आएंगी।
मीडिया में आज रीयल स्टोरीज का अभाव क्यों है? आखिर ऐसा क्यों है कि मुहैया करायी गई खबरों से वह बाहर नहीं निकल पा रहा है। यह एक बड़ा सवाल है। ऐसा भी नहीं है कि आज अच्छे पत्रकार नहीं हैं। लेकिन दशकों पहले जो पत्रकार मीडिया में काम कर रहे थे वे आमजनों से, सामाजिक सरोकारों से जुड़े थे। उन्हें देष-समाज की व्यवहारिक समझ थी, जिससे वे देख पाते थे कि समाज में राजनीतिक-आर्थिक या सामाजिक तौर पर क्या हो रहा है, क्या होना चाहिये? यही वजह थी कि उनकी पत्रकारिता वास्तविकता के अधिक करीब थी, जनसरोकारों से जुड़ी हुई।
दिनों दिन अनुभवी होती जाती मीडिया में आज पत्रकारिता की धार कुंद पड़ रही है। इसकी कुछ वजहें जो और दिखती है उनमें एक यह भी है कि वरिष्ठ पत्रकारों का मठाधीश बन जाना या बना दिया जाना और देशभर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों से केवल डिग्री लेकर आये हुए नये पत्रकारों का अनुभवहीन और जनसरोकारों से न जुड़ा होना। पत्रकारों की पदोन्नति हो, पद और धन, दोनों से ही उनकी तरक्की हो- यह उनका अधिकार है, होना ही चाहिये। लेकिन वरिष्ठों को पदोन्नति देकर मीडिया हाउस उन्हें पत्रकारिता से विलग ही कर दे रहा है। उनका जो अनुभव और खोजी नजर, खबरों को देखने का एक अलग नजरिया देता और नये कोणो से खबरें पाठकों के सामने आ पाती वो नहीं हो पा रहा है। होता यह है कि उन्हें संपादक बना कर ‘‘बैठा’’ दिया जाता है।
उदाहरण के तौर पर देखें तो पटना से प्रकाशित होने वाले प्रमुख दैनिकों में आज एक प्रंबध संपादक है, राज्यभर के संस्करणों का मिला जुला वरिष्ठ संपादक है, एक स्थानीय संपादक है, दो-तीन कनीय संपादक हैं, एक राजनीतिक संपादक है, समय समय पर अपने-अपने खास को लाने के लिए कुछ पद और भी गढ़े जाते रहते हैं। इस सबके अलावा उपसंपादकों की फौज तो है ही। हर पेज के लिए प्रभारी संपादक तो होना ही है, जो आज संपादक से अधिक पेज मेकर बना दिये गये है। इन सबका प्रकाशित खबरों पर कोई छाप नजर नहीं आती है। जबकि खास खबरों के प्रकाशन में किसी संपादक की भी अहम् भूमिका होती है। वह संवाददाताओं से ऐसी खबरें करने को कहता है या प्रमुखता से छाप कर पाठकों के सामने लाता है।
जो संवाददाता के तौर पर सीनियर या जूनियर, काम कर रहे है वे ‘‘बीट की खबरें छूटने न पाये’’..... की धमकी से डरे नियमित खबरों में ही लगे रहते हैं। इनमें से कुछ को मुहैया करायी गयी प्रेस रिलीज से खबरें बनाने में या विज्ञापन के एहसान तले उससे जुड़ी सकारात्मक खबरें बनाने में लगा दिया जाता है। संपादक या संपादकों की भूमिका यहां महज इतनी है कि ‘‘इनसे’’ जुड़ी विरोधी खबरें न छप जाये।
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि खास खबर या पूरी पड़ताल कर लायी खबरें नकारात्मक ही हो, लेकिन यह भी सच है कि आज शीघ्र-अतिशीघ्र की आपाधापी में पत्रकार इतनी खोजबीन करने की कोशिश नहीं करते या उनमें धैर्य नहीं रहता।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया की बात करे तो रियल स्टोरी के मामले में स्थिति यहां और खराब है। यह महज खबर प्रसारित करते का चैनल बन गया है। उनका यह काम तो कैमरामैन बखूबी कर सकता है और न्यूज एंकर दृश्यों को देख कर बोल भर देती/देता है, बस!
आज पत्रकारिता का इतना विस्तार होने के बावजूद अच्छी खबरें सामने क्यों नहीं आती? जिला स्तर पर पत्रकारों की बात करें तो सुदूर क्षेत्र से भी कितनी ही खास खबरें निकाल के या निकलवा के लाईं जा सकती हैं। जिलास्तरीय पत्रकारों, प्रतिनिधियों को मेहनताना- दिखने में छोटी, पर इसकी बड़ी वजह है। उन्हें आज भी प्रति स्टोरी या इंच के हिसाब से भुगतान किया जाता है। ऐसे में वे ढेर सारी छोटी छोटी खबरों पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखे रहते हैं, ताकि अधिक से अधिक भुगतान मिल पाये। अगर वे किसी खबर में अपना अधिक समय लगाएंगे तो इसका विशेष लाभ भुगतान के रूप में उनको नहीं मिल पाता है। ऐसे में कोई खुद से ढूंढ कर लाई गई वास्तविक खबरों के पीछे क्यों भागेगा ?
पिछले दशकों की अपेक्षा आज मीडिया में रीयल स्टोरीज का अभाव की एक प्रमुख या कहें कि सबसे बड़ी वजह तो वह बाजार है। और इस बाजार में संपादकों का प्रंबंधक बन जाना या इनके दबाव में आना। आज बाजार व विज्ञापन, चाहे वह सरकारी हो या गैर सरकारी, उसके दबाव में आकर खबरों की दशा-दिशा तय की जा रही है। इसके कारण भी अगर कोई खास खबरें आती भी है और वह अगर विरोधी स्वरूप के हुए तो मीडिया में उन्हें जगह नहीं मिल पाती है।
(मीडिया विमर्श के सितम्बर अंक में प्रकाशित)
लीना
सम्पादक - मीडियामोरचा