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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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यौन अपराध पर चुप रहने की सलाह देने वालों के मुंह पर करारा तमाचा है #MeToo

 कैलाश दहिया /आजकल #MeToo कैंपेन की चर्चा मीडिया में जोरों शोरों पर है। यह कैंपेन हॉलीवुड से शुरू होकर भारत में भी फैल रहा है।

#MeToo में स्त्री पर कार्यस्थल पर किए गए यौन शोषण का खुलासा उन स्त्रियों द्वारा किया जा रहा है जिनके साथ यौन शोषण का अपराध किया। फिर चाहें यह अपराध सालों पहले किया गया हो। यह बेहद साहस की बात है। इस की प्रशंसा की जानी चाहिए .

असल में, #MeToo का अर्थ होता है "मेरे साथ जबरदस्ती अर्थात बलात्कार/बलात्कार का प्रयास किया गया है।" पुरुष अपने पद, पैसे और प्रभाव के चलते स्त्री का यौन शोषण अर्थात बलात्कार करने को उद्धृत रहता है, जिस पर उसे सजा मिलनी ही चाहिए। बुधिया का केस ऐसा ही है। यह अलग बात है कि बुधिया बाद में जमींदार के लौंडे से मिल जाती है।

ध्यान रहे #MeToo में जिस अपराध को अंजाम दिया गया है वह बलात्कार/बलात्कार का प्रयास होता है, जिसके लिए आजीवक चिंतन में सख्त से सख्त सजा की मांग की जा रही है। इसमें अगली बात यह कहनी है इस देश में बलात्कारों की संख्या की गिनती करना ही संभव नहीं। दलित की बहू - बेटियों पर तो प्लान बनाकर बलात्कार को अंजाम दिया जाता है। इस में जानने की बात यह है कि बलात्कारी द्विज और सवर्ण जातियों के होते हैं। वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी ने इस तथ्य को पहचाना है। रवीश कुमार से एक बातचीत में उन्होंने इस की तरफ इशारा भी किया है। पूछना यह है कि क्या बलात्कारी को सजा मिल रही है? ऐसे में #MeToo में सजा की संभावना का अंदाजा लगाया जा सकता है।

 यह भी बताने योग्य बात है कि #MeToo में जिनके साथ अपराध को अंजाम दिया गया है और जिन्होंने अपराध किया है दोनों उच्च जातियों से संबंधित हैं। पूछना यह है कि क्या अब भी यौन अपराधी को क्षमा करने की बात की जाएगी? एक अन्य बात है भी बताई जा रही है कि पीड़ित स्त्रियों के पक्ष में उन की तरफ से उन के कितने पुरुष सामने आए हैं? एक प्रिया रमानी के पति को छोड़ कर किसी का नाम सुनाई नहीं पड़ रहा। अपराधियों की तरफ से तो कभी भी इन की पत्नियां सामने आ सकती हैं। पिछले दिनों एक बलात्कारी एमएलए की पत्नी अपने पति को बचाने के लिए सामने आ गई थी। यही द्विज जार परंपरा है। 

देखने में आया है कि #MeToo अभियान में कुछ लोग पीड़ित स्त्रियों पर ही दोषारोपण करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसों का सबसे बड़ा तर्क है कि इन स्त्रियों ने सालों बाद इस बात को क्यों उठाई, अब से पहले क्यों नहीं? असल में यह वही लोग हैं जो यौन अपराधों पर चुप्पी साधने की सलाह देते हैं। इन की अगली बात यह आ रही है कि ये स्त्रियां जान- बूझकर किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की इज्जत खराब करने के लिए यह सब कर रही हैं। इसी कड़ी में इनका अगला तर्क आने वाला है कि यह सब ये ब्लैक मेलिंग के लिए कर रही हैं।

असल में, इस अभियान में इन साहसी महिलाओं के खिलाफ बोलने वाले जार होते हैं। इन्हें पता है कि अगला नंबर इन्हीं का आने वाला है। ऐसे में ये इन महिलाओं पर ही आरोप गढ़ने में लग गए हैं। ऐसा नहीं है कि इसमें जार पुरुष ही शामिल हैं, इनकी स्त्रियां भी इनकी भाषा में बोलते हुए कह रही है कि '#MeToo की स्त्रियों ने तब शिकायत क्यों नहीं कि जब इनके साथ यौन अपराध किया गया?' ऐसे बोलो का मतलब ही यह होता है कि शिकायत क्यों की जा रही है। दरअसल, ऐसी स्त्रियां अपने जार पुरुषों को बचाने के लिए सामने आ गई हैं। लेकिन जार बचने वाले नहीं हैं और यही जारिणी की समस्या है। बताया जा सकता है, दलित और स्त्री विमर्श की वजह से यौन अपराधों के खिलाफ जो माहौल बना है, स्त्री और दलित को जो ताकत मिली है उससे जारों में भय व्याप्त हो गया है। इसकी लपेट में ऐसे बोल बोलने वाली स्त्रियों को आने में देर नहीं लगनी।

#MeToo में यह भी कहा जा रहा है कि आरोप लगाने वाली स्त्रियां आरोप लगाने की तारीख के बाद भी उसी जगह काम करती रही। इसका मतलब है कि वे झूठ बोल रही हैं। कोई भी इस बात से सहमत हो सकता है, लेकिन क्या इस बात को मान लिया जाए? नहीं इस बात को नहीं माना जा सकता। इसे कुछ यूं समझा जा सकता है, गांव - देहात में भूमिहीन दलित की स्त्री से कार्यस्थल यानी खेत में बलात्कार किया जाता है।  थक - हार कर उसे फिर उसी  खेत में कटाई के लिए जाना पड़ता है। उसके पास कोई विकल्प नहीं होता। दलित स्त्रियां कैसे #MeToo लिखें?  एकाध कोई बोलने की कोशिश भी करे तो उस की हत्या निश्चित है। फिर, द्विजों द्वारा बार-बार कहा ही जा रहा है 'यौन अपराध पर चुप्पी साधे रहने में ही भलाई है।' अब जिन द्विज स्त्रियों ने अपनी बात रखी है उन के खतरे को आसानी से समझा जा सकता है। असल में, बुधिया के साथ भी ऐसी ही जबरदस्ती की गई थी। हालात की शिकार दलित स्त्री क्या करे? ऐसे हालातों में दलित क्या कर सकते हैं, वह पहले से ही गुलाम हैं। 

यहां देखने वाली बात यह भी है कि #MeToo में कितनी स्त्रियों के पुरुष उन के सामने आए हैं? एकाध ही - उसे भी अपवाद मानना चाहिए। इससे आप सामंत की ताकत को समझ सकते हैं। अभी  जिन पर आरोप हैं वे शहरों - महानगरों के सामंत  हैं। यह अलग बात है कि इन के चंगुल में उच्च जातियों की स्त्रियां ही फंसी हैं। इससे लड़ाई सामंत पुरुष और इनकी स्त्री के बीच ठन गई है। बुधिया को तो कब का मार कर फेंक दिया जाता। इससे आप गांव देहात की हालात का अच्छे से अंदाजा लगा सकते हैं। कुछ समय पहले राजस्थान में भंवरी देवी की हत्या ऐसे ही कर दी गई थी। 

वैसे #MeToo में कल को आरोपी प्रमाण मांगने लगेगा तो यह स्त्रियां क्या करेंगी? यह आज से दस -बीस साल पहले किए गए बलात्कार और बलात्कार के प्रयास पर प्रमाण कैसे दे पाएंगी? कोर्ट में इनका केस पहली नजर में ही खारिज हो सकता है, जिसे ठीक नहीं कहा जा सकता। वैसे भी क्या बलात्कार की रिकॉर्डिंग करके प्रमाण रखे जाएंगे? क्या बलात्कारी को दंड नहीं दिया जाएगा? ऐसे ही, जारकर्म में संलिप्त स्त्री के पति से प्रमाण मांगने का क्या औचित्य? दरअसल यौन अपराध में प्रमाण की मांग जारकर्मियों द्वारा ही की जाती है। कौन स्त्री झूठ कहेगी कि उसके साथ बलात्कार किया गया? ऐसे ही कौन पुरुष अपने साथ बरते गए जारकर्म पर झूठ बोलेगा? यह आजीवक दृष्टि ही है कि बलात्कारी और जारिणी स्पष्ट पहचान में आ रहे हैं।

दरअसल #MeToo उन लोगों के मुंह पर करारा तमाचा है जो यौन अपराध पर चुप रहने की सलाह देते हैं और जो यौन अपराध को क्षम्य बताते हैं। यह उस सोच के मुंह पर भी झन्नाटेदार थप्पड़ है जो जारकर्म की पैदाइश को मुंह बंद कर पालने की सलाह देते हैं। यौन अपराध पर चुप रहने की सलाह को भारतीय मूल की अमेरिकी मॉडल पद्मा लक्ष्मी के बयान से जाना जा सकता है, उन्होने बताया है कि 'सात साल की उम्र में इनका यौन शोषण हुआ था। इन्होंने इस बारे में जब अपने माता - पिता को बताया तो उन्होंने इन्हें कुछ सालों के लिए भारत भेज दिया।' अब इस से होता क्या है कि अपराधी साफ बच कर निकल जाता है। जिस के प्रति अपराध किया गया है उस की आगे की जिंदगी नरक बन कर रह जाती है। कोई भूलना भी चाहे तो अपने प्रति किए गए इस अपराध को सारी जिंदगी भूल नहीं सकता। यही वजह है कि इस अभियान में ऐसे केस सामने आने लगे हैं।

#MeToo में कहां हैं स्त्री विमर्श की झंडाबरदार? वह क्यों नहीं आगे आ रहीं? इस मूवमेंट में स्त्री विमर्श के नाम पर राजनीति करने वाली रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका आदि की  पक्ष - विपक्ष में आवाज तक नहीं सुनाई पड़ रही। इन जैसों के बहकावे में आ कर डॉ. धर्मवीर पर जूते- चप्पल चलाने वाली दलित स्त्रियों के होंठ सिले पड़े हैं- क्यों?

असल में #MeToo जारकर्म के विरुद्ध आवाज है। बुधिया जमींदार के लौंडे के खिलाफ बोल रही है। इसमें जिन पुरुषों के खिलाफ आरोप लगे हैं वह जमींदार के लौंडे से कम ताकतवर नहीं। सोचा जा सकता है कि जमींदार का लौड़ा कितना ताकतवर होता है। गांव में आज भी कोई जमींदार और उस के लौंडे के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता। इधर इन संभ्रांत और शहरी जमींदार के लौंडो और इनके आकाओं की ताकत का अंदाजा सभी को है ही।

इस आंदोलन को असमय मरने से बचाने के लिए शिकार बनाई गई स्त्रियों के पुरुषों को अपनी स्त्रियों के समर्थन में आगे आना चाहिए। बलात्कारियों की औरतों तो कभी भी अपने बलात्कारी पति के पक्ष में मुंह निकाल सकती हैं। यूं समझ लीजिए, बुरे आदमी और बुरी स्त्री के खिलाफ लड़ाई में अच्छे पुरुष और अच्छी स्त्री को आगे आना ही पड़ेगा अन्यथा यह अच्छी स्त्री मारी जाएगी।

#MeToo मूवमेंट की स्त्रियों को यह भी समझना पड़ेगा कि इन की सबसे बड़ी दुश्मन वे स्त्रियां हैं जो इन संभ्रांत जमींदार के लौंडो की अंकशायिनी बनी रहना चाहती हैं। जमींदार का लौंडा कभी भी इन्हें इन के सामने ला सकता है। यह उसका आखिरी हथियार होगा। तब रमणिका गुप्ता - मैत्रेयी पुष्पा इन जमींदार के लौंडो के पक्ष में खड़ी मिलेंगी।

इधर, मैत्रेयी पुष्पा ने तो 13 अक्टूबर, 2018 को अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा है, 'हमारे गांव की औरतें अपने प्रति यौनिक हिंसा के अपमान का खुलासा करने के लिए महीनों या वर्षों का इंतजार नहीं करतीं। (अनुभव)' अब इस बात का क्या अर्थ लगाया जाए? इस बात का सबसे पहला अर्थ निकलता है कि #MeToo में जो स्त्रियां सामने आई हैं वे झूठी हैं, क्योंकि इन्होंने दशक दो दशक बाद आरोप लगाए हैं। इसका अगला वाक्य यह  बनता है कि इन स्त्रियों को चुप रहना चाहिए। असल में ये  आरोपियों को बचाने की तिकड़म कर रही हैं। इनसे पूछा जा सकता है, इन्होंने  अपने गांव की उन औरतों के पक्ष में कभी कुछ लिखा है जिन के प्रति यौन अपराध किया गया है? ज्यादा न कह कर ये अपने गांव की औरतों के प्रति  यौनिक हिंसा बरतने वालों की जाति ही बता दें तो काफी होगा। जिनके प्रति यौन अपराध किया गया है उनकी जाति हम जानते हैं। जिन जातियों की स्त्रियों के प्रति गांव - देहात में यौनिक हिंसा की जाती है उन्हें दलित कहते हैं। इस यौनिक हिंसा का गांव भर में ढिंढोरा पीटा रहता है। अगर कोई इस यौनिक हिंसा की शिकायत भर करता है तो उसकी हत्या तय मानिए। बुधिया के प्रति यौनिक हिंसा ही की गई थी। 'घीसू - माधव' भला क्या कर सकते थे जमींदार और उस के लौंडे का? यौनिक हिंसा के साथ - साथ सवर्ण सामंतों की सर्द धमकी भी छुपी रहती है, शिकायत की तो गर्दन अलग।

असल में, मैत्रेयी पुष्पा के ऊपर लिखे कथन में यह धमकी ही छुपी हुई है। ये #MeToo की शिकार बनाई स्त्रियों को अपरोक्ष रूप से चेता रही हैं। इन्हें अच्छे से पता है कि इस मूवमेंट की आंच गांव - देहात तक पहुंच सकती है। जिसके लपेट में इनके पुरुष ही आएंगे। यह अपने सामंतों को बचाने की जुगत में बढ़ गई हैं। दरअसल ये कहना चाह रहे हैं कि अगर इन स्त्रियों के प्रति यौन अपराध बरता गया है तो क्या हो गया। यह तो चलता ही रहता हैं। जिस यौनिक हिंसा की बात ये स्त्रियां कह रही हैं वह इस देश में हजारों सालों से चली आ रही है। इसे 'वैदिक हिंसा' भी कहते हैं। खुलासा करने वालों को यह कहकर चुप कराया जाता है कि बोलने पर आपकी ही इज्जत जाएगी। मैत्रेयी पुष्पा उसी विचार की प्रतिनिधि लेखिका हैं। सोचा जा सकता है कि इनकी सोच का नाला कहां गिरता है। वैसे भी आजीवक चिंतन में इनकी पहचान  जारकर्म की समर्थक के रूप में की गई है। जो यौन अपराध होता है। इनका कथन इस बात का खुलासा कर रहा है।

उधर कोई रमणिका गुप्ता से #MeToo पर जानना चाहेगा तो वह क्या जवाब देंगी? इस बात पर शर्त लगाई जा सकती है कि वह एक लाइन भी इस पर लिख कर नहीं देने वाली। बल्कि वह तो इस अभियान को उलझाने की ही कोशिश करेंगी।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस अभियान में बोलने वाली साहसी स्त्रियां पत्रकारिता और फिल्म जैसे पेशों में काम करने वाली हैं। इन्हें दलित स्त्री की तरह कमजोर नहीं माना जा सकता। जारकर्म के सवाल पर तो स्त्री बेहद क्रूर और ताकतवर रूप में सामने आई है। वह अपने जार से मिलकर अपने पति की हत्या तक करवा देती है‌। उम्मीद यही है कि #MeToo में आवाज उठाने वाली स्त्रियां जारिणी बनी स्त्री का भी डटकर विरोध करेंगी?

उधर, पूर्व अभिनेत्री सोनी राजदान के #MeToo  को सही नहीं माना जा सकता। उन्होंने कहा है कि उनके साथ बलात्कार का प्रयास किया गया था। उन्होंने इसलिए मुंह नहीं खोला था कि वह व्यक्ति बाल- बच्चेदार था। इससे उसका परिवार तबाह हो सकता था। इन्होंने अब भी उसका नाम नहीं खोला है। सोनी राजदान जी को बताया जा सकता है कि उस कथित व्यक्ति ने क्या किसी अन्य स्त्री के साथ यौन शोषण के अपराध को अंजाम नहीं दिया होगा?

अगली बात पुरुष के #MeToo की  है, जिस में स्त्री जारिणी बन कर पुरुष को फंसाती है। अब तो जारकर्म अर्थात एडल्ट्री को अपराध भी नहीं माना जा रहा। अब जारिणी को सजा की संभावना तक खत्म हो गई है, तब बलात्कारी पुरुष खुद को कैसे सजा होने देगा? अब जब  जारिणी को सजा नहीं मिलेगी तब तक कोई नाना पाटेकर या आलोक नाथ खुद को सजा कैसे होने देंगे? क्योंकि, बलात्कार और जारकर्म एक ही प्रवृति के अपराध हैं। पुरुष का#MeToo डॉ. धर्मवीर और सूरजपाल चौहान की तरफ से आ चुका है।

असल में #MeToo अभियान उस दिन सार्थक होगा जिस दिन कोई स्त्री अपने पति के जार संबंधों की पोल खोलेगी। उसके अपने प्रति बरते गए यौन अपराध पर तलाक की मांग रखेगी। वह दिन स्त्री स्वतंत्रता का सबसे बड़ा दिन होगा, जिसमें एक मोरल स्त्री जारिणी स्त्री से युद्ध करेगी। क्या अभी चल रहे इस अभियान के अपराधियों नाना पाटेकर, आलोक नाथ से लेकर एम.जे अकबर तक की पत्नियों ने अपने पतियों के यौन अपराध के खिलाफ कुछ बोला है? जबकि #MeToo बलात्कार और बलात्कार के प्रयास का मामला है।

#MeToo का अर्थ होता है 'जैसा मेरे साथ बर्ताव किया गया।' इस मेरे साथ किए गए अमानवीय और अशोभनीय व्यवहार को बताने के लिए अच्छी - खासी हिम्मत चाहिए। इसमें एक स्त्री अपने साथ किए दुर्व्यवहार अर्थात बलात्कार/ बलात्कार के प्रयास के बारे में बता रही है। इस से सारा समाज अचंभित है। दरअसल #MeToo  दलित आत्मकथाओं से प्रेरित हो कर बढ़ा है। असल में #MeToo के माध्यम से स्त्री विशेष के प्रति किया गया अपराध सामने आया है, जबकि दलित आत्मकथाएं तो पूरी व्यवस्था के अपराध को सामने ले आई हैं। यह अपराध हर दलित के प्रति बरता गया है। यूं, दलित आत्मकथाएं द्विज जार व्यवस्था में दलित के प्रति बरते गए अपराध की सच्ची गाथाएं हैं। इन आत्मकथाओं में गांव का ठाकुर  सूरजपाल चौहान की मां से बलात्कार करने की कोशिश करता है। उधर, डॉ. धर्मवीर की घरकथा बताती है कि  द्विज कानूनों के तहत कैसे उन के प्रति यौन अपराध किया गया। कैसे एक व्यक्ति को तिल - तिल मरने पर मजबूर कर दिया गया। यूं, #MeToo को दलित आत्मकथाओं के रास्ते बढ़ने की जरूरत है, अन्यथा यह आंदोलन बीच में ही दम तोड़ देगा।(www.sadinama.in से साभार ) ।

लेखक -चर्चित आलोचक हैं .

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डॉ. लीना