कँवल भारती / नामवर सिंह ने गत दिनों दस किताबों का विमोचन किया। उनमें एक किताब दलित लेखक अजय नावरिया की थी। दसों किताबें सवर्णों की होनी चाहिए थीं। उनमें एक दलित कैसे घुस गया? प्रकाशक की यह मजाल कि वह सवर्णों की जमात में दलित को खड़ा कर दे! बस नामवर सिंह का पारा चढ़ गया। वह जितना गरिया सकते थे, उन्होंने दलित को गरियाया। फिर उन्होंने फतवा दिया कि अगर साहित्य में लेखकों को आरक्षण मिलने लगे तो वह राजनीति की तरह गंदा हो जाएगा।
कोई दलित के नाम पर पागल हो चुके इस छद्म वामपंथी से यह पूछे कि अगर सवर्ण इतने ही साफ़ सुथरे थे, तो भारत दो हजार वर्षों तक गुलाम क्यों बना? आज जब दलित लेखक तुम्हारे साहित्य, धर्म और संस्कृति की बखिया उधेड़ रहे हैं, तो तुम्हे यह गन्दा लग रहा है। आज दलित के मुहं में जुबान आ गयी है, अपनी बात कहने के लिए, तो नामवर सिंह को यह गंदगी दिखाई दे रही है। सामन्तवाद की जुगाली करने वाला यह छद्म प्रगतिशील कह रहा है कि साहित्य में आरक्षण देने से राजनीति की तरह साहित्य भी गन्दा हो जायेगा। यह घोर दलित विरोधी बयान ही नहीं है, लोकतंत्र विरोधी बयान भी है। यह राजशाही का समर्थन करने वाला बयान है, जिसमें शूद्रों और दलितों के लिए गुलामी के सिवा कोई अधिकार नहीं थे। ऐसा लगता है कि नामवर सिंह ने इतिहास नहीं पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो उन्हें मालूम होता कि भारत की राजनैतिक सत्ता ब्रिटिश ने कांग्रेस को सौपी थी, न कि दलितों को। चार दशकों तक भारत पर कांग्रेस ने राज किया, जो ब्राह्मणों, सामन्तों और पूंजीपतियों की पार्टी थी। फिर नामवर सिंह बताएं कि राजनीति को किसने गन्दा किया? क्या कांग्रेस में दलितों की चलती थी? दलित तो कांग्रेस में यश मैन थे। वे न नीति निर्माता थे और न फैसला लेने वाले। तब जाहिर है कि राजनीति को गन्दा करने वाले लोग ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया हैं। पिछले दस सालों में भ्रष्टाचार के जितने भी घोटाले हुए हैं, उनके करने वाले सब के सब सवर्ण हैं। हाँ, कुछ दलित भी जरूर भ्रष्ट हुए हैं, पर उन्होंने सिर्फ भ्रष्ट व्यवस्था का लाभ उठाया है। दलित नेता चाहे मायावती हों, चाहे मुलायम सिंह, वे व्यवस्था के निर्माता नहीं हैं, सिर्फ लाभार्थी हैं।
नामवर सिंह किस आरक्षण की बात कर रहे हैं? ऐसा लगता है कि उन्हें आरक्षण फोबिया हो गया है। क्या वह कोई उदाहरण दे सकते हैं कि कब दलित लेखकों ने साहित्य में आरक्षण की मांग की है? दलितों ने नौकरियों में आरक्षण की मांग की है, जो उनका संवैधानिक अधिकार है। इस अधिकार के तहत कुछ दलित विश्वविद्यालयों में नौकरी पा गये हैं। संयोग से वे लेखक भी हैं। अजय नावरिया भी जामिया मिलिया में प्रोफेसर हैं। नामवर सिंह को यही आरक्षण हजम नहीं हो रहा है। साहित्य तो सिर्फ बहाना है। जिन विश्वविद्यालयों में द्विजों का राज था, उनमें दलित उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है। कल्पना कीजिये, जब विश्वविद्यालयों में मुट्ठी भर दलितों का यह प्रताप है कि देश के सारे विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य पढ़ाया जाने लगा है, तो पचास-साठ साल बाद क्या हाल होगा, जब विश्वविद्यालयों में दलितों का भरपूर प्रतिनिधित्व होगा? दरअसल नामवर सिंह इसीको गंदगी कह रहे हैं। इन सामंतों को कैसे समझाया जाए कि जिसे वो आरक्षण कह रहे हैं, वो प्रतिनिधित्व है। दलित आरक्षण नहीं, अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। साहित्य में भी दलित लेखक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं। अगर नामवर सिंह चाहते हैं कि साहित्य में द्विजों का ही प्रतिनिधित्व बना रहे, तो ऐसा साहित्य अलोकतांत्रिक और वर्णवादी ही होगा। और ऐसा साहित्य आज नहीं तो कल, कूड़ा घर में ही पड़ा होगा।
कँवल भारती
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