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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सांप्रदायिकता का नया नाम है राष्ट्रवाद

मीडिया की दुकान में सांप्रदायिकता बेचने के लिए राष्ट्रवाद का कवर चढ़ाया जा रहा है

रवीश कुमार/ मीडिया के ज़रिये आपके साथ एक खेल खेला जा रहा है। किसी व्यक्ति की राजनीतिक महत्वकांक्षा के लिए बहुत सारे लोग राष्ट्रवाद की गौ रक्षा में लगा दिये गए हैं।गुजरात के दलितों ने गौ रक्षा का उपाय कर दिया तो अब गौ रक्षकों ने राष्ट्रवाद को गाय बता कर उत्पात मचाना शुरू कर दिया है।  आम आवाम को यह बात देर से समझ आएगी लेकिन तब तक वह सियासी खेमों की बेड़ियों में इस कदर जकड़ दिया जाएगा कि निकलना मुश्किल हो जाएगा। शिकंजों के ज़ोर से उसके पाँव लहूलुहान होंगे मगर वो आज़ाद नहीं हो पाएगा।

इस दौर में सांप्रदायिकता अलग अलग ब्रांड रुप में आ रही है। लव जिहाद, आबादी का ख़ौफ़, गौ माँस, धार्मिक झंडे को पाकिस्तानी बताना, पलायन, गौ रक्षा। ये सब उस ब्रांड के अलग अलग वर्जन हैं। जैसे टूथपेस्ट के अलग अलग ब्रांड हो सकते हैं। पातंजलि, कोलगेट, मिस्वाक, पेप्सोडेंट। टूथपेस्ट है सांप्रदायिकता। इसे बनाने वाला कोई कारपोरेशन भी होगा। उस कारपोरेशन का नाम है राष्ट्रवाद। यह अलग अलग नाम से उसी एक टूथपेस्ट को बेच रहा है। गौ रक्षा तो कभी राष्ट्रवाद।

अब इसे बेचने के लिए उसे किराना स्टोर भी चाहिए और सुपर मॉल भी। जिसका नाम है मीडिया। जब वह टूथपेस्ट का ब्रांड अलग अलग लाँच कर सकता है तो मीडिया का भी लाँच कर सकता है। वहाँ भी आका एक ही है मगर उनके चैनल कई हैं। अब हो यह रहा है कि मीडिया की दुकान में सांप्रदायिकता बेचने के लिए राष्ट्रवाद का कवर चढ़ाया जा रहा है। इतने सारे टूथपेस्ट हैं, कोई कौन सा वाला ख़रीदेगा,इसका भी इलाज है। एक ही बात कहने वाले भाँति भाँति के एंकर या भाँति भाँति के एंकरों को एक ही बात कहने का प्रशिक्षण।

आप कभी तो सोचिये कि मीडिया राष्ट्रवाद को लेकर इतना उग्र क्यों हो रहा है? क्यों हर बार सेना और सीमा के नाम पर ये राष्ट्रवाद उभारा जाता है? क्यों जब ये ठंडा पड़ता है तो गौ रक्षा आ जाता है? गौ रक्षा पिट जाता है तो राष्ट्रवाद आ जाता है? इस लड़ाई को आप भले ही चंद एंकरों के बीच का मामला समझें लेकिन ऐसा है नहीं। कोई है जो यह खेल खेल रहा है। कोई है जिसकी राजनीतिक महत्वकांक्षा के लिए यह खेल खेला जा रहा है उसका चेहरा आप कभी नहीं देख पाएँगे क्योंकि महाकारपोरेशन किसके इशारे पर चलता है, उसका चेहरा कोई नहीं देख पाता है। सिर्फ लोग गिने जाते हैं और लाशें दफ़नाई जाती हैं। पूरी दुनिया में ऐसा ही चलन है।

राष्ट्रवाद जिनमें भरपूर है यानी जिनके ट्यूब में पेस्ट भरा है उन्होंने क्या कर लिया? इसका एक सबसे बड़ा अभियान लाँच हुआ था जो आज भी लाँच अवस्था में ही है। स्वच्छ भारत अभियान। दो साल पूर्व बहुत से नेता,कार्यकर्ता, अभिनेता झाड़ू लेकर खूब ट्वीट करते थे। ट्वीटर पर नौ रत्न नियुक्त करते थे कि ये भी सफाई करेंगे तभी देश साफ होगा। कहा गया कि अकेले सरकार से कुछ नहीं होगा। सबको आगे आना होगा। आज वो लोग कहाँ है? ट्वीटर के नौ रत्न कहाँ हैं? स्वच्छता अभियान कहाँ है? वो राष्ट्रवादी भावना कहाँ है जिसे लेकर ये लोग चरणामृत छिड़क रहे थे कि अब हम साफ सुथरा होने वाले हैं। जो लोग आए थे उनका राष्ट्रवाद क्यों ठंडा पड़ गया? दो साल में तो वो अपनी पूरी कालोनी साफ कर देते। क्या उन्होंने उन एंकरों को देखना छोड़ दिया जिन्हें राष्ट्रवाद का टोल टैक्स वसूलने का काम दिया गया है?

स्वच्छ भारत अभियान के तहत नई दिल्ली के बाल्मीकि मंदिर के पास अनोखा शौचालय बना। क्या दिल्ली में वैसा शौचालय और भी कहीं रखा गया? ऐसा है तो दो साल में दिल्ली में कम से कम सौ पचास ऐसे शौचालय तो रखे ही गए होंगे? क्या आपको दिखते हैं? क्या आपको दिल्ली के मोहल्लों में या अपने किसी शहर में ऐसे शोचालय, कूड़ेदान दिखते हैं जो इस अभियान के तहत रखे गए हों? उनकी साफ सफाई होती है? एक या दो कूड़ेदान रख खानापूर्ति की बात नहीं कर रहा। अगर कहीं ये सफल भी होगा तो इन्हीं सब व्यवस्थाओं के दुरुस्त होने की वजह से न कि ट्वीटर पर छाये गाली गुंडों के राष्ट्रवाद से।

इस कहानी का मतलब यह हुआ कि आपकी समस्या की वजह राष्ट्रवाद में कमी नहीं है। स्वच्छता अभियान इसलिए फ़ेल हुआ क्योंकि दिल्ली को साफ करने के लिए कई हजार सफाई कर्मचारी की ज़रूरत थी। क्या भर्ती हुई? जो मौजूदा कर्मचारी हैं उन्हीं का वेतन न मिलने की ख़बरें आती रहती हैं। उन्होंने अपनी सैलरी के लिए दिल्ली की सड़कों पर कचरा तक फेंक दिया। अब आप इस तरह के सवाल न पूछ बैठें इसलिए आपका इंतज़ाम किया गया है। लगातार ऐसे मुद्दे पेश किये जा रहे हैं जिनका संबंध कभी सीधे सांप्रदायिकता से हो या राष्ट्रवाद से। ये इसलिए हो रहा है कि आप हमेशा काल्पनिक दुनिया में रहने लगे, वैसे रहते भी हैं। कोई है जो आपको ख़ूब समझ रहा है। यही कि आप सर नीचा किये स्मार्ट फोन पर बिजी हैं। इन्हीं स्मार्ट फोन पर एक गेम आ गया है। पोकेमौन। खेलते खेलते इसी बहाने अपने मोहल्ले में स्वच्छता खोज आइयेगा। आपकी ट्रेनिंग ऐसी कर दी गई है कि आप लोगों को ही कोसने लगेंगे। सरकार को नहीं। यह हुआ ही इसलिए है कि कोई आपको अलग-अलग नामी -बेनामी संस्थाओं की मदद से राष्ट्रवाद के ट्रेड मिल पर दौड़ाए रखे हुए है।

हमारा सैनिक क्यों अठारह हज़ार मासिक पाता है? क्या सांसद विधायक का वेतन एक सैनिक से ज़्यादा होना चाहिए? सैनिकों पर तो कम से कम सीमा पर खड़े खड़े देश लूटने का इल्ज़ाम नहीं है। वे तो जान दे देते हैं। विधायकों सांसदों में से कितने जेल गए और कितने और जा सकते हैं मगर इनसे सरकारें बनतीं हैं और चलती हैं। इनके अपार फंड की गंगोत्री किधर है? राष्ट्रवाद की चिन्ता करनी है तो यह बोलो कि सीमा से छुट्टी पर लौटने वाला जवान जनरल बोगी या सेकेंड क्लास में लदा कर क्यों जाता है? उसके लिए एसी ट्रेन क्यों नहीं बुक होती? उसका बच्चा ऐसे स्कूल में क्यों पढ़ता जिसका मास्टर जनगणना करने गया है। उसकी सैलरी पचास हज़ार क्यों नहीं है?

आप जो टीवी पर एंकरों के मार्फ़त उस अज्ञात व्यक्ति की महत्वकांक्षा के लिए रचे जा रहे तमाशे को पत्रकारिता समझ रहे हैं वो दरअसल कुछ और हैं। आपको रोज़ खींच खींच कर राष्ट्रवाद के नाम पर अपने पाले में रखा जा रहा है ताकि आप इसके नाम पर सवाल ही न करें। दाल की कीमत पर बात न करें या महँगी फीस की चर्चा न करें। इसीलिए मीडिया में राष्ट्रवाद के खेमे बनाए जा रहे हैं।एंकर सरकार से कह रहा है कि वो पत्रकारों पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाये। जिस दिन  पत्रकार सरकार की तरफ हो गया, समझ लीजियेगा वो सरकार जनता के ख़िलाफ़ हो गई है। पत्रकार जब पत्रकारों पर निशाना साधने लगे तो वो किसी भी सरकार के लिए स्वर्णिम पल होता है। बुनियादी सवाल उठने बंद हो जाते हैं।जब भविष्य निधि फंड के मामले में चैनलों ने ग़रीब महिला मज़दूरों का साथ नहीं दिया तो वो बंगलुरू की सड़कों पर हज़ारों की संख्या में निकल आईं। कपड़ा मज़दूरों ने सरकार को दुरुस्त कर दिया। इसलिए लोग देख समझ रहे हैं। जे एन यू के मामले में यही लोग राष्ट्रवाद की आड़ लेकर लोगों का ध्यान भटका रहे थे। फ़ेल हो गए। अब कश्मीर के बहाने इसे फिर से लांच किया गया है!

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा है कि बुरहान वानी को छोड़ दिया जाता अगर सेना को पता होता कि वह बुरहान है। बीजेपी की सहयोगी महबूबा ने बुरहान को आतंकवादी भी नहीं कहा और अगर वो है तो उसके देखते ही मार देने की बात क्यों नहीं करती हैं जैसे राष्ट्रवादी करते हैं। महबूबा मुफ्ती ने तो सेना से एक बड़ी कामयाबी का श्रेय भी ले लिया कि उसने अनजाने में मार दिया। अब तो सेना की शान में भी गुस्ताख़ी हो गई। क्या महबूबा मुफ्ती को गिरफ़्तार कर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाए? क्या एंकर लोग ये भी मांग करेंगे ? किस हक से पत्रकारों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की बात कर रहे हैं? जिस सरकार के दम पर वो कूद रहे हैं क्या वो सरकार ऐसा करेगी कि महबूबा को बर्खास्त कर दे? क्या उस सरकार का कोई बड़ा नेता महबूबा से यह बयान वापस करवा लेगा?

इसलिए राजनीति को राजनीति की तरह देखिये। इसमें अगर राष्ट्रवाद का इस्तमाल होगा तो एक दिन राष्ट्रवाद की हालत भी ये नेता देश सेवा जैसी कर देंगे।जब भी वे देश सेवा का नाम ज़ुबान पर लाते हैं,लगता है कि झूठ बोल रहे हैं। बल्कि उनके मुँह से राष्ट्रवाद खोखला ही लगता है। हम सब राष्ट्रवादी हैं। इसे पता करने के लिए रोज़ रात को नौ बजे टीवी देखने की नौबत आ जाए तो आपको राष्ट्रवाद नहीं दाद खाज खुजली है। नीम हकीम जिसकी दवा ज़ालिम लोशन बताते हैं।

मैं आपको मुफ़्त में एक सलाह देता हूँ।चैनलों को देखने के लिए केबल पर हर महीने तीन से पाँच सौ रुपया खर्च हो ही जाता होगा।जब पाँच सौ रुपया देकर राष्ट्रवाद की आड़ में हिन्दू- मुस्लिम के बीच नफ़रत की गोली ही लेनी है तो आप केबल कटवा दीजिये। जब आपने नफरत ठान ही ली है तो कीजिये नफ़रत। इसके लिए केबल के पाँच सौ और रद्दी अख़बारों के पांच सौ क्यों दे रहे हैं? अपना एक हज़ार तो बचा लीजिये!

तो आप से गुज़ारिश है कि राजनीति और राष्ट्रवाद में फर्क कीजिये। यह वो राष्ट्रवाद नहीं है जो आप समझ रहे हैं। यह राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिकता है जो आप देखना ही नहीं चाहते। सांप्रदायिकता का नया नाम है राष्ट्रवाद। ज़रूरत है राष्ट्रवाद को सांप्रदायिकता से बचाने की और टीवी कम देखने की।

( रवीश कुमार जी के ब्लॉग क़स्बा से साभार )

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सम्पादक

डॉ. लीना