हालात के लिए मीडिया अधिक जिम्मेवार है : खैरनार
1980 से हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक सरोकर से जूड़ कर काम करने वाले बिहार के वरीय पत्रकार डा. देवाशीष बोस इन दिनों कैंसर से पीड़ित होकर मुम्बई में अपना इलाज करा रहें हैं। इसकी जानकारी पाने के बाद तत्कालिक मनपा आयुक्त जीआर खैरनार डा. बोस से मिले और उन्हें जल्द स्वस्थ्य होने की शुभकामनायें दी। इस अवसर पर खैरनार से हुई विभिन्न मुद्दों पर की गयी बातचीत को प्रस्तुत कर रहे हैं स्वयं डा. देवाशीष बोस-
भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ विरोध कर लोकप्रिय होने वाले मनपा के तत्कालिक आयुक्त जीआर खैरनार मीडिया को सामाजिक सरोकारों से दूर जाते हुए मान रहे हैं। जिसकी न केवल उन्हें पीड़ा और वेदना है बल्कि बेहद छटपटाहट भी महसूस कर रहे हैं। इससे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इन परिस्थितियों के लिए खैरनार सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।
तंगहाली से जूझ रहे खैरनार सम्प्रति एक संस्थान में सलाहकार के रुप में कार्यरत होकर अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। खैरनार कहते हैं खरा सच काफी कड़वा होता है जिसे पचा पाना सबके लिए आसान नहीं होता है। इसी वजह से राजनीतिक दल कोई भी हो लेकिन नेता उनसे नाराज रहे हैं। शासक, राजनीतिक नेता और आपराधिक सांठ गांठ उन्हें बेवाक बोलने से तत्काल रोकता रहा है और खैरनार बेहद संजीदगी और साफगोई से कहते हैं कि उनने कभी गलत तरीके से धन नहीं कमाया और तनख्वाह से अधिक बचत भी नहीं कर पाये हैं। लिहाजा भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम पैसे के अभाव में थम गयी और उसके बाद कुछ दिनों तक जब वे मुहिम को जबरन आगे बढ़ाये तो मित्रों की कतार छोटी होती चली गयी। ऐसी स्थिति में वे थक हार कर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को तत्काल स्थगित रखा है।
पुराने दिनों को याद करते हुए खैरनार कहते हैं कि उन दिनों महाराष्ट्र में कांग्रेस पार्टी के बसंत दादा पाटिल मुख्यमंत्री थे और मुम्बई में ड्रग कारोबारिये अपना पांव फैला चुके थे। ड्रग माफिया सड़क के किनारे अतिक्रमण करते हुए दीवार खड़ी कर देते थे और धार्मिक स्थल के स्वरुप की संरचना कर उसके नेपथ्य में अपना कारोवार चला रहे थे। इससे आमजन खास कर युवा वर्ग अधिक प्रभावित हो रहे थे। ड्रग माफियाओं को ध्वस्त करने के लिए उन अतिक्रमित स्थलों को जब उनके नेतृत्व में जमिंदोज किया जाने लगा तो मुख्य मंत्री बसंत दादा पाटिल ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। लेकिन वे नहीं माने। अन्ततः शिवसेना प्रधान बाला साहब ठाकरे ने उन्हें बुलाकर उनके अभियान को रोकने को कहा। अन्यथा कहा कि कांग्रेसी बसंत दादा उनसे उनकी (खैरनार की) हत्या करवा देने की बात कही है। खैरनार से ठाकरे ने पूछे जाने पर कहा कि अगर वे बसंत दादा की बात नहीं मानेंगे तो पुलिस के सहारे वे उनकी शिवसेना को तहस नहस करवा देंगे।
दाउद इब्राहिम के अवैध निर्माण को जब वे तोड़ने का दुस्साहस किया तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार ने उन पर दबाव देने लगे। शरद पवार चाहते थे कि दाउद इब्राहिम का अवैध निर्माण नहीं टूटे और उसकी क्षति न हो। खैरनार कहते हैं कि पार्टी कोई भी हो नेता आपस में मिले हुए हैं और समाजिक सरोकारों से दूर अपने हित में काम करते हैं। पूछे जाने पर खैरनार कहते हैं कि वे नहीं मानते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। बल्कि समाज के लोगों के सोच और नजरीया का अपराधीकरण हो गया है। वे पूछते हैं कि अपराधियों को विधायी निकायों में चुनकर भेजता कौन है? जनता अगर ऐसे लोगों को न चुने तो संसद और विधानसभा तथा अन्य निकायों में अपराधी कैसे पहुंचेंगे? फिर राजनीति का अपराधीकरण कैसे हो पायेगा? इसके लिए वे जनता को अधिक दोशी मानते हैं। वे कहते हैं कि अन्ना हजारे के आन्दोलन की प्रासांगिकता तो समझ में आती है, उसे अपार जनसमर्थन मिला लेकिन अरबिन्द केजरीवाल के आन्दोलन से अब्यबस्था फैलने की संभावना अधिक है।
खैरनार बेबाक होकर कहते हैं कि आज पत्रकारिता बदलाव के दौर में है। यह पहले मुहिम था आज पेशा बन गया है। कभी जनहित की खबरें परोसी जाती थी अब ऐसी खबरें दरकिनार कर दी जाती है। पूंजीपति और अतिसंपन्न लोगों से जुड़ी खबरों केा सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और अंतिम कतार में खड़े लोगों की खबरें गायब हो रही है। पत्रकारिता का क्षेत्रीयकरण पूंजीपतियों के राजस्व को बढ़ा रहा है और रचनात्मक जनान्दोलन के धार को कुन्द किया है। अतीत को निहारते हुए खैरनार ने कहा कि पत्रकारों की प्रखर लेखनी समाजिक वर्जनाओं के खिलाफ जहां लोक जागृति का कार्य किया वहीं सत्ता को भी हिलाते रहेे। यह पत्रकारों ने अपने वर्ग स्वार्थ को भुलाकर किया और स्वयं दमन के शिकार होते रहे। लेकिन आज सत्ता सम्पोशित चाटुकार पत्रकारिता अपना स्थान बना ली है। बहरहाल आज भी चंद अच्छे पत्रकार संजीदगी के साथ लिख रहे हैं।
पत्रकारिता को खैरनार जनता के दुख दर्द में भागीदार रहने के बजाय स्वार्थपरक बताते हैं। पत्रकारिता जगत को अब यह भरोसा नहीं है कि पढ़ने, सुनने, देखने लायक सामग्री, समाचार या विचार के बल पर वह ग्राहक पा सकेगी। राजनीति ने भी मान लिया है कि वह आदर्श या सिद्धान्त के भरोसे सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। राजनीति के पास जातियता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषावाद, गठबन्धन और मोर्चाबन्दी विकल्प है वहीं मीडिया के पास जनता को भरमाने के साथ राजस्व उगाही का विकल्प रह गया है। ऐसे युग में शुद्ध राजनीति और स्वस्थ्य पत्रकारिता की चर्चा करना बेमानी ही होगी। इसके लिए जनता अधिक दोषी है। लेकिन सरकारें निरक्षरों को साक्षर और साक्षरों को शिक्षित बनाने में अभिरुची नहीं ले रही है तथा ऐसी स्थिति बरकरार रख कर वह अपना हित साध रही है। ऐसी स्थिति में जनता को गोलबंद होकर अपना नेतृत्व करना चाहिए।
खैरनार शून्य को निहारते हुए कहते हैं कि आजके हालात में फिर एक बार जयप्रकाश की आवश्यकता है। वे जयप्रकाश तो नहीं बन सकते हैं लेकिन जल्द ही अन्य सूबों के साथ साथ बिहार आयेंगे और समविचार वाले साथियों को एकत्रित कर ब्यापक आन्दोलन की संभावना तलाषेंगे। ताकि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ और मजबूत लोकशाही के लिए जनजागरण हो सके।