हरि शंकर व्यास (साई फीचर्स)/ निःसंदेह, वेश्याओं का कोठा भारी जुमला है। पर 40 साल की पत्रकारिता के अनुभव में 2016 में सुने वाक्यों का निचोड़ यहीं बनता है। लोगों से बात करें, मीडिया पर चर्चा करें तो डायलॉग सुनाई देगा- मीडिया बिका हुआ है! जनता के सामान्य चेहरे भी मीडिया ग्रुप, टीवी चौनलों, एकंर चेहरों, पत्रकारों के नाम पर रिएक्ट हो कहते मिलेंगे- फलां मोदी का है, फलां केजरीवाल का। सब बिके हुए! ऐसा 2016 से पहले नहीं था। तब मीडिया को सेकुलर बनाम सांप्रदायिक सोचते थे। पत्रकार सेकुलर होता था, कांग्रेसी होता था तो कम्युनल व भाजपाई। कईयों में पत्रकार ब्लैकमेलर की पहचान लिए हुए थे। ये जुमले इस नाते ठीक थे कि सेलुकर या कम्युनल, कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट में विचार की जड़ थी। ऐसे ही ब्लैकमेलर के पीछे दबंगी, आजादी का भाव झलकता था। अपनी सोच रही है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा निडरता से डराए तो इससे लोकतंत्र के हित सध भी सकते हैं। मगर 2016 ने सब कुछ को बिकाऊ मीडिया में कन्वर्ट कर दिया तो कोठा न सोचें तो क्या सोचें?
मानों दिल्ली के जीबी रोड या मुंबई की शुक्लाजी स्ट्रीट के कोठे! कोठों की खिड़कियों से एंकर-पत्रकार चिल्लाते मिलेंगे- देखो, मोदीजी की मर्दानगी! सुनो केजरीवाल की ललकार! जितना बड़ा मीडिया समूह का आकार उतने सजे-धजे बड़े कोठे। इन कोठों के मालिकों ने बैलेंस बनवाते चेहरे रखे हैं। कोई मोदी का शो लिए हुए है। कोई सर्जिकल ऑपरेशन का कमांडो है! तो कोई केजरीवाल का भौंपू तो कोई अमित भाई की चौपाल लगाए हुए। कोठे के मालिकों ने नेताओं के पसंदीदा कॉलब्वाय, कॉलगर्ल रखी हुई है। हर पर नेता विशेष का अधिकार है। जो नरेंद्र मोदी व अमित शाह का है तो वह उसी का है। वह फिर राहुल गांधी को बोलता नहीं दिखाएगा। ऐसे ही जो केजरीवाल का है तो उसी का है। जो राहुल गांधी का है तो वह भी उसी का।
कोठे के पापी दलाल, खेले-खिलाए एकंर, राहगीरों को, जनता को गालियों, अभद्रता, फूहड़ता, मूर्खता, बेअक्ली की चिलपौं से रिझाते हैं, टीआरपी बनाते हैं। मतलब कोठों को ले कर जो सोचते थे उसमें भी जहीन तहजीब, मुजरे का सत्यानाश! मनोहर पर्रिकर ने किसी और प्रंसग में मीडिया वालों पर झल्लाते हुए गलत नहीं कहा दृ कपड़े उतारकर नंगे नाचो। पर यही तो, ऐसा ही तो वे कर रहे हैं! फूहड़ता, गालियों, मूर्खता और खम ठोक भंड़वागिरी की यह नंगाई ही तो है कि हां, वे मोदी के हैं या हां, वे केजरीवाल के हैं!
वैसे भोंपूओं की वफादारी यों कोठे मालिक के जरिए क्लाइंट से है लेकिन एंकरों, संपादकों, पत्रकारों ने अपनी विशिष्ट अदा से अपनी वह पहचान भी बनाई है, जिससे जनता में यह समझ साफ बनी है कि सब कुछ बिकाऊ है।
बहुत त्रासद है यह! मुझे 2016 में मीडिया इसलिए सदमा दे गया है क्योंकि अपन ने सपने में भी, रत्ती भर कल्पना नहीं की थी कि सेकुलर, वामपंथी, अपने आपको आजाद बताने वाले जो संपादक हैं वे इतनी जल्दी कोठे वाले बनेंगे। मैंने अपनी फितरत में पत्रकारिता करते हुए 40 साल गुजारे हैं। मैं वामपंथियों, समाजवादियों और नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया के 40 साला विमर्श के विपरीत लिखता रहा हूं। सत्तावानों के करीब हुआ तब भी अपने विचार में, अपनी गपशप में जो समझ आया उसे जरूर लिखा। 2011-12 में नरेंद्र मोदी की परिघटना होती समझ आने लगी तो कांग्रेस के राज में भी उसे बेबाकी से बताया। और जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो लखटकिया सूट की घटना से ले कर अब तक अपन नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली और सरकार की अच्छाईयों-मूर्खताओं पर जो समझ आया है उसे बेबाकी से लिख रहा हूं।
मतलब, अपनी पत्रकारिता में पत्रकारिता के धर्मदृकर्म में जो समझ आया वह किया। भला ऐसा वामपंथी, सेकुलर पत्रकारों-संपादकों को नरेंद्र मोदी के राज में क्यों नहीं करना चाहिए? क्यों यह अनुभव हुआ कि ये तमाम सेकुलर-लेफ्ट पत्रकार अरुण जेटली- नरेंद्र मोदी-अमित शाह की कृपा पाने में लपके हुए हैं या आईपैड से दिखाते फिरें कि वे तो ओरिजनल संघ स्कूल से निकले हुए हैं! सोचें, लेफ्ट-सेकुलर बौद्धिक विमर्श के हरकारे 65 साल से दिल्ली की सत्ता से ताकत पाते रहे लेकिन नरेंद्र मोदी-अमित शाह का राज आया तो इनकी दशा यह है कि खुद में लिखने की हिम्मत, बौद्धिकता नहीं और हरिशंकर व्यास व नया इंडिया में लिखे को यह कहते हुए शेयर कर रहे हैं कि देखिए, देखिए कभी मोदी के समर्थक बता रहे हैं आईना! और खुद कोठे पर बैठ कर मोदी, अमित शाह की तारीफ के कसीदे काड़ते हुए!
सचमुच, 2016 का यह अनुभव हैरानी वाला है कि मेरा लिखना इसलिए चर्चित है क्योंकि मैं हिम्मत दिखा रहा हूं! हिम्मत तो वामपंथियों-सेकुलरवादियों-कांग्रेसियों को दिखानी चाहिए थी। आखिर अभी ही तो इनकी परीक्षा का वक्त है। मैंने एक वक्त, उस वक्त के मेरे जनसत्ता के मंच पर स्वीडन रेडियो की पहली खबर से बोफर्स को ले कर सहजता से, बिना चिंता के कवर किया। वक्त के उस दौर में भ्रष्टाचार के मुद्दे के कारण वीपी सिंह को अपन ने चढ़ाया। उनकी सत्ता बनी और वे मूर्खताएं करने लगे तो उन्हें बेबाकी से सत्यानाशी बनने का आईना भी दिखाया।
मतलब, सत्ता का कोठा नहीं बनना और मान-सम्मान के साथ तथ्य-विचार-समझ अनुसार पत्रकारिता का वक्त तब भी था और आज भी होना चाहिए। तब आज किसने रोका हुआ है कि ऐसा न करो? यदि इंडियन एक्सप्रेस ने तब स्वीडन के रेडियो की खबर पर बोफोर्स को मुद्दा बनाया तो आज उसे किसने बिड़ला-सहारा से नेताओं को पैसे के मामले की तफसील से रोका हुआ है या इंडिया टुडे आदि क्यों नहीं उस वक्त जैसी पत्रकारिता कर रहे हैं?
इस पर जितना विचार करें उसका निचोड़ निकलेगा कि भारत के 70 सालों की सत्ताखोरी में पनपी लेफ्ट-सेकुलर जमात सचमुच न केवल कागजी शेर है, बल्कि कायर और बिना ईमान के है। मेरे लिए 2016 में वह दिन सदमे का था जब मैंने शेखर गुप्ता को भाजपा संगठन मंत्री रामलाल को आईपैड से अपना स्कूली फोटो दिखाते देखा।
सोचें शेखर गुप्ता, अरुण पुरी, प्रणय राय, सुभाष चंद्रा, समीर-विनित जैन, शोभना भारतीय, विवेक गोयनका और इनके तमाम संपादकों, पत्रकारों, एकंरों को सरकार की क्यों गरज होनी चाहिए? क्यों संपादक गिल्ड या आईएनएस जैसी मीडिया संस्थाएं मोदी सरकार की मनमानी वाली विज्ञापन नीति, छोटे-मझौले अखबारों को खत्म करने की साजिश, मीडिया को औकात दिखाने के तमाम नुस्खों पर स्टैंड नहीं ले सकती? इनमें इतना विवेक भी क्यों नहीं कि यदि छोटे-मझौले अखबार खत्म होंगे, पत्रकारों की सख्या घटेगी तो अंततः फिर उनका भविष्य गुलामी का है। सबसे बड़ी बात यह कि मन से जानते हैं कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है। वे वैसे आजाद नहीं हैं, जैसे मई 2014 से पहले थे तो ये क्यों न स्टैंड लें? क्यों नरेंद्र मोदी, अमित शाह से खौफ खाएं? क्यों ये अपने को जनता की निगाहों में बिकाऊ कोठा बनाएं?
सचमुच साख व क्रेडिबिलिटी में मीडिया का बिकाऊ बनना 2016 का निचोड़ है। तभी अपनी थीसिस है कि 2016 नरेंद्र मोदी के लिए बदला लेने का साल हुआ। उन्हें गुजरात के वक्त राष्ट्रीय मीडिया ने जैसे तंग किया था उसका बदला उन्होंने उस मीडिया को 2016 में नंगा बना, उसकी क्रेडिबिलिटी खत्म करवा कर लिया है! छोटे-मझौले मीडिया को खत्म और बड़ों के कोठे सजवा उनकी क्रेडिबिलिटी खत्म करा दी। उफ! जनता में बिके हुए होने की मीडिया की आज की इमेज। सोचें, यह देख कैसा सैडिसस्टीक सुख पाते होंगे मोदी और अमित शाह!