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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हाशिये पर हैं उर्दू अखबारों के पत्रकार

 “उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष”

संजय कुमार/ “उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष” विषय पर भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद्, नई दिल्ली के तत्वावधान में पटना में 19 और 20 दिसंबर 2015 को आयोजित सेमिनार में वक्ताओं ने उर्दू पत्रकारिता के इतिहास और देश में स्वतंत्रता संग्राम में उर्दू पत्रकारिता  की असाधारण और साहसिक भूमिका पर प्रकाश डाला। लेकिन उर्दू पत्रकारिता को अपने खून-पसीने से सींचने वाले पत्रकारों की दुर्दशा पर अफसोस तक जाहिर नहीं किया। हकीकत में वर्षो से उर्दू पत्र व पत्रकार हाशिये पर हैं। बिहार के प्रसंग में हो या देश के, अखबार का मालिक संपादक बना हुआ है जो मुनाफा तो बटोर रहा है लेकिन अपने प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों या अन्य कर्मियों के प्रति उसका नजरिया बिलकुल एक पूंजीपति सा है।

देश और प्रदेश के कई पत्रकार, लेखक और उर्दू भाषा से जुड़े मशहूर हस्तियों ने ’उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष’ पर अच्छे-अच्छे शब्दों से समां बांधा। कई ने अनछुए पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया। किसी ने इतिहास पर प्रकाश डाला तो किसी ने कंटेन्ट की बात की। परिषद् के निदेशक प्रो. इर्तजा करीम ने उर्दू पत्रकारिता के समक्ष वर्तमान चुनौतियों पर प्रकाश डाला और उर्दू समाचार पत्रों के पाठकों की संख्या नहीं बढने पर चिंता व्यक्त की। वहीं राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद्, नई दिल्ली के उपाध्यक्ष पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन ने उर्दू पत्रकारिता में कार्टून की कमी को सामने लाया। उर्दू पत्रकारिता से जुड़े पत्रकारों के बीच खुसुर –फुसुर भी हुई। बड़ी-बड़ी बातों को लेकर। लेकिन उनके हितों की रक्षा पर कोई सवाल- मुद्दा सामने नहीं आया। जाहिर सी बात थी कि मौके पर उर्दू अखबारों के कई संपादक-मालिक मौके पर मौजूद थे।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भले ही उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष हो गये हों और उर्दू पत्रकारिता ने भी हिन्दी-अगे्रंजी की तरह आधुनिकता और बाजार को अपना लिया है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इससे जुड़े पत्रकार व कर्मियों की भले ही सामाजिक स्थिति कुछ और हो लेकिन माली स्थिति बद से बदतर है। बिहार के एक बड़े उर्दू अखबार के संपादक रहे एक पत्रकार कहते हैं, मालिक ही संपादक है बाकि उनके नीचे सब हैं यानी सभी उपसंपादक/संवाददाता की भूमिका में। वे बताते हैं कि पहले उनका नाम प्रिंट लाइन में बतौर संपादक जाता था लेकिन एक आलेख लिखने के बाद मालिक के आदेश के बाद हटा दिया गया। आज उनकी हैसियत क्या है खुद पता नहीं, बस काम कर रहे  हैं । तनख्वाह की बात पर कहते हैं कि बताने में शर्म आती है, वैसे पांच से पंद्रह हजार में सभी हैं। चाहे वह संपादक(वैसे कोई संपादक नहीं है मालिक ही संपादक है) हो या कोई और।

वैसे तो उर्दू अखबार के संवाददाताओं को बिहार सरकार की ओर से प्रेस मान्यता कार्ड जारी है लेकिन अखबार के पास अपने पत्रकारों को लेकर कोई कागजी रिकार्ड नहीं है। जहां गिने-चुने राजधानी के रिपोर्टर को कुछ पैसे मिल भी जाते हैं। लेकिन ज्यादातर रिपोर्टरों को साफ कह दिया जाता है पैसे की व्यवस्था खुद कर लें या फिर विज्ञापन लाये , कमीशन पाये। और यही परिपाटी चल रही है। मजेदार बात यह है कि एक अखबार के दफ्तर में 40 से 50 कर्मी काम करते हैं। लेकिन न पीएफ है न कोई सुविधा। पत्रकार कहते हैं जब वेतन ही नहीं तो पीएफ की बात करना बेईमानी है। उर्दू पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार मानते हैं कि यहाँ धन का संकट नहीं है। सरकारी और निजी विज्ञापन उर्दू अखबारों को मिलते हैं। लेकिन अपने स्टाफ  को तनख्वाह देना उन्हें नागवार गुजरता है। हद तो यह है कि ये अपने यहाँ कॉलम लिखने वालों को एक पैसा भी नहीं देते हैं।

हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जहां उर्दू पत्रकारों की स्थिति थोड़ी अच्छी मानी जाती है। वैसे आरोप लगता रहा है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं और उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। और मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीप एंड बेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है।

एक कडवी  सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है और दुखी भी। इसकी दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

सचाई तो ये है की आज पूरे देश, विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व। जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है। हाल बेहाल उर्दू पत्रकारों को इंतजार है नये सवेरे की, हालांकि दूर दूर तक यह दिखायी नहीं पड़ रही है।

(लेखक इलैक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े हैं, पटना में निवास )।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना