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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हिन्दी पत्रकारिता: मिशन से व्यवसाय तक, दम तोड़ती कलम

साकिब ज़िया।  वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ था। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 189 वर्ष हो गए हैं। इस बीच में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है। 
उदंत मार्तण्ड का का प्रकाशन मई, 1826 ई. में कोलकाता यानि कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। पंडित जुगलकिशोर सुकुल ने इसकी शुरुआत की। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकलते थे, लेकिन हिन्दी भाषा में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। पुस्तक के आकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका। 
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से ‍छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ ही रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। 

हिंदी पत्रकारिता ने जिस मुकाम को हासिल किया था, वह बात अब नहीं है। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है।

इसमें कोई दो मत नहीं कि हिंदी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) और प्रभाष जोशी दो ऐसे संपादक रहे हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि अंग्रेजी के नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी।आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने खूब नाम कमाया था । दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती हैं। 

एक सच यह भी है कि सालों से हिन्दी पत्रकारिता देश की आजादी से लेकर साधारण इंसान के अधि‍कारों की लड़ाई तक के लिए उसकी अपनी मातृभाषा की कलम से लड़ती आ रही है। वक्त बदलता रहा और पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य भी बदलते रहे, लेकिन नहीं बदली तो पाठकों की इसमें रुचि।  

हिन्दी पत्रकारिता ने समाज के अपने अक्स को ही तो खुद में उतारा और उभारा है आज तक। एक स्थान पर बैठे-बैठे ही संसार की सैर भी पत्रकारिता ने ही दुनिया को करवाई और देश-विदेश की उफनती नब्ज से लेकर दहकते मुद्दों और तमाम तरह की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों के सामने पेश भी किया। 

एक कलम और उसके पहरेदारों ने पत्रकारिता के अब तक के इस सफर में सबसे खास भूमिका निभाई...। आज के दौर में मीडिया, इंटरनेट के जरिए जो वैश्वीकरण हो रहा है नि‍श्चित रूप से पत्रकारिता को नया जीवन प्रदान कर रहा है। लेकिन अब उस कलम की जगह टाइपराइटर और की-बोर्ड ने ले ली है..।

अखबारों की जगह कम्प्यूटर और मोबाइल स्क्रीन ने ले ली है, भले ही कुछ न बदला हो... भले ही सब कुछ आगे बढ़ रहा हो... लेकिन इस दौड़ में अगर कुछ पीछे छूट गया है तो वह है... दम तोड़ती कलम...  जिसने कभी इसी पत्रकारिता को जन्म दिया था... लेखन को जन्म दिया था... मॉडर्न वैश्वीकरण के इस हाईटेक युग में वह कलम आज प्रौढ़ हो गई है और दम तोड़ रही है।हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर ‍निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है।

साकिब ज़िया मीडिया मोरचा के ब्यूरो प्रमुख हैं।

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सम्पादक

डॉ. लीना