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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हेडलाइन्स के ज़रिये काले धन से लड़ाई

बुरी ख़बर या साधारण ख़बर को भी अच्छी ख़बर के रूप में पेश किया जा रहा है ताकि लगे कि बहुत कुछ हो रहा है

रवीश कुमार/ राजनीतिक पटल से आर्थिक मसले ग़ायब होते जा रहे हैं। सुधार-सुधार बड़बड़ाने वाले उद्योगपति कहीं गुम हो गए हैं। जी एस टी के बाद भी राजनीति में आर्थिक मसले कहीं नहीं हैं। सारी बहस उन मुद्दों को लेकर हो रही है जिनसे धारणा बनती है। नेता नैतिक शिक्षा दे रहे हैं। बाल छोटा रखना चाहिए, प्रतिदिन नहाना चाहिए, कम खाना चाहिए टाइप। इन सब बातों को सुनकर अच्छा ही लगता है और यह भी महसूस होता है कि कितना कुछ हो रहा है। हम भूलते जा रहे हैं कि यह सरकार का काम नहीं हैं। सरकार के मूल काम पर न तो समीक्षा है न आलोचना। सारे सवाल राजनीतिक परिणामों से तौले जा रहे हैं।

बैंक अपना धंधा कर्ज़ देकर चलाते हैं। कर्ज़ देने की रफ़्तार बढ़ती है तो बैंकों की वाहवाही होती है। टाइम्स आफ इंडिया के बिजनेस पेज पर एक ख़बर है। वैसे तो बैंकों की कोई भी ख़बर पहले पन्ने पर पा जाती है लेकिन इस ख़बर को क्यों जगह नहीं मिली, वही बेहतर जानते होंगे। साठ साल में बैंकों से कर्ज़े का उठान इतना कम कभी नहीं हुआ था। इतनी धीमी रफ़्तार से बैंकों से कभी कर्ज़े का उठान नहीं हुआ। 1953-54 में ऐसा हुआ था। रिज़र्व बैंक ने ये आंकड़े जारी करते हुए कहा कि पिछले महीने के पखवाड़े में ही सबसे अधिक कर्ज़े का उठान हुआ। सवा तीन लाख करोड़। लेकिन इसके बाद भी साल भर का औसत कम ही रहा है। बैंकों के पास पैसे लबालब हैं क्योंकि सबको मजबूर किया गया कि वे बैंकों में पैसे जमा करें। मगर उनसे कर्ज़ लेने वाला कोई नहीं है। बैंक की कमाई कर्ज़ से होती है। इसीलिए बैंक आपसे बहाने बनाकर पैसे ले रहे हैं। सर्विस चार्ज के नाम पर बैंकों ने भयानक उगाही शुरू कर दी है। बैंक कमा नहीं रहे हैं, हम उन्हें चला रहे हैं। बैंकों में जमा करने की दर में 11.8 प्रतिशत की वृद्धि है।

इससे पता चलता है कि नया निवेश नहीं हो रहा है। कंपनियां विस्तार नहीं कर रही हैं। उल्टा जिन्होंने कर्ज़ लिये हैं वो कर्ज़ चुका नहीं पा रही हैं। इस कारण बैंकों का नॉन प्रोफिट एसेट बढ़ता ही जा रहा है। होम लोन और सर्विस सेक्टर के लोन से ही बैंक चल रहे हैं। बैंकों के लिए क्रेडिट ग्रोथ में ही सब कुछ है। मगर अखबार ने लिखा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंक सपाट कर्ज़ वृद्धि दर्ज करने वाले हैं। अख़बारों ने हेडलाइन इस तरह से देना शुरू कर दिया है कि कुछ हुआ नहीं है। जैसे टाइम्स आफ इंडिया में एक ख़बर है कि नोटबंदी के बाद मार्च महीने में डिजिटल ट्रांसेक्शन 23 गुना बढ़ गया है। लेकिन इसकी कुल राशि देखेंगे तो कुछ भी नहीं है। अखबार ने ये हेडलाइन नहीं बनाया है कि मात्र 2,425 करोड़ के ही डिजिटल ट्रांसेक्शन हुए हैं। 64 लाख ट्रांसेक्शन बताये जा रहे हैं मगर इससे लेने देन तो ढाई हज़ार करोड़ का भी नहीं हो रहा है। इसका मतलब आदमी छोटी मोटी ख़रीदारी ही कर रहा है और सरकार के दो लाख से अधिक कैश में लेन देन न करने के कानून के बाद भी सारा कुछ कैश में ही हो रहा होगा। कितने का ट्रांसेक्शन हो रहा है इस पर ज़ोर नहीं है, कितनी बार हो रहा है, इस पर ज़ोर है।

तय किया जा रहा है कि आप क्या जानेंगे। बुरी ख़बर या साधारण ख़बर को भी अच्छी ख़बर के रूप में पेश किया जा रहा है ताकि लगे कि बहुत कुछ हो रहा है। नोटबंदी के बाद आयकर विभाग के छापों की ख़बरें ख़ूब छप रही हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत कोई खासकर खुलासे नहीं हुए हैं। उम्मीद थी कि अधिकतम जुर्माना देकर लोग अपने काले धन को बचाने का प्रयास करेंगे। अब कहा जा रहा है कि पांच हज़ार करोड़ तक का भी खुलासा नहीं हुआ है। सरकार को इस योजना से दो ढाई हज़ार करोड़ ही मिलेंगे। अब आयकर विभाग ने साठ हज़ार लोगों पर अपनी निगाह टेढ़ी की है। इन लोगों पर शक है कि नोटबंदी के बाद ज़रुरत से ज़्यादा लेनदेन की है। साठ हज़ार में से तेरह हज़ार को हाई रिस्क में रखा गया है। इन सबकी जांच की जाएगी। नोटबंदी के दौरान अधिक मूल्यों की ख़रीदारी के छह हज़ार मामले की भी जांच होगी। इन तमाम लोगों में सरकारी अधिकारी, सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी, हैं जिन्होंने बड़ी मात्रा में नगदी जमा कराई थी। इन खातों की जांच में एक साल का वक्त लग जाएगा।

कुलमिलाकर इस कार्रवाई से कुछ न कुछ काला धन तो पकड़ा ही जाएगा। मगर ढाई तीन साल की कवायद के बाद काला धन उस मात्रा में नहीं पकड़ा गया है जिसका दावा किया जा रहा था कि देश में कई लाख करोड़ काला धन है। न तो विदेश से आया न ही देश में पकड़ाया। काला धन अभी भी है और बनना जारी है। अभी तक जहां तहां से सूत्रों के हवाले से ही ख़बरें छप रही हैं। कम से कम सरकार को एक बार में बताना चाहिए कि कितना पैसा उसे काले धन के रूप में मिल गया है, कितने पैसे की जांच हो रही है और सही पाया गया तो आने वाले समय में कितना मिलेगा। जिससे पता तो चले कि कितना मिला है। कितने पर शक है वो राशि बताई जा रही है। अभी आप यही जान रहे हैं कि कितने लाख नोटिस गए। कितने हज़ार ने जवाब दिया। रिजल्ट क्या निकला, आधिकारिक रूप से मालूम नहीं है। जांच और नोटिस की ही ख़बर आ रही है। हेडलाइन्स से काले धन की लड़ाई लड़ी जा रही है।

(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार )

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना