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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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ज़मीर फ़रोश पत्रकारिता पर एक और प्रहार

निर्मल रानी/ स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताने वाला मीडिया विशेषकर टेलीवीज़न मीडिया जहाँ गत कुछ वर्षों से सत्ता के समक्ष 'शाष्टांग दंडवत' की मुद्रा में आकर भारतीय इतिहास के सबसे शर्मनाक दौर से गुज़र रहा है वहीं अभी भी कुछ चरित्रवान तथा पत्रकारिता के कर्तव्यों  व सिद्धांतों का ईमानदारी से निर्वहन करने वाले ऐसे लोग बाक़ी हैं जो सही मायने में पत्रकारिता की लाज रखे हुए हैं। इस समय साफ़ तौर पर भारतीय मीडिया को दो हिस्सों में बंटा हुआ देखा जा सकता है। एक तरफ़ सत्ता का चापलूस मीडिया है जो तय शुदा सरकारी एजेंडे के अनुसार अपने कार्यक्रम बनाता व प्रसारित करता है। भले ही इस चापलूसी,चाटुकारिता व कर्तव्यों से भटकने की क़ीमत भारतीय समाज व देश को कुछ भी चुकानी पड़े। तो दूसरी तरफ़ पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की रक्षा करने वाले कुछ ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार हैं जो वास्तव में सच्ची व ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता करने वाले सच्चे पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सिद्धांतों पर चलने वाले अनेक वरिष्ठ पत्रकार जहां एक एक कर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त किये या होते जा रहे हैं वहीं भोंपू मीडिया के पत्रकार सरकारी संरक्षण में सत्ता की दलाली करके ही स्वयं  संतुष्ट महसूस कर रहे हैं।

पिछले दिनों एक और युवा टी वी पत्रकार ने अपने ज़मीर की आवाज़ सुनते हुए सार्वजनिक रूप से अपने ए बी पी न्यूज़ चैनल से नाता तोड़ने की घोषणा कर दलाल मीडिया जगत में हड़कंप पैदा कर दिया। अपने त्यागपत्र की घोषणा के साथ पत्रकार रक्षित सिंह ने एक संक्षिप्त संबोधन भी किया जो न केवल मार्मिक था बल्कि भारतीय मीडिया को बेनक़ाब भी कर रहा था। गत 15 वर्षों से विभिन्न मीडिया ग्रुप में अपनी सेवाएं देने वाले रक्षित पिछले सात वर्षों से  ए बी पी न्यूज़ चैनल से जुड़े हुए थे। उन्होंने मेरठ के भैसा गांव  में आयोजित किसान महापंचायत के मंच से अपने त्यागपत्र की घोषणा करते हुए गोदी मीडिया के चाल चरित्र और चेहरे पर कई गंभीर सवाल खड़े किये। उनके संबोधन में दो बातें बेहद महत्वपूर्ण थीं। उन्होंने कहा कि,’ मैं पिछले 15 सालों से पत्रकारिता कर रहा हूं और मैंने पत्रकारिता के पेशे को इसलिए चुना था ताकि सच दिखा सकूं लेकिन मुझे सच नहीं दिखाने दिया जा रहा इसलिए मैं ऐसी नौकरी को छोड़ता हूं’। रक्षित ने दूसरी बात यह कही कि - जब मेरा बच्चा बड़ा होकर मुझसे पूछेगा कि बापू जब देश में अघोषित इमरजेंसी लगी थी तब आप कहां थे तो मैं सीना ठोक के कहूंगा कि मैं किसानों के साथ खड़ा था’।

रक्षित द्वारा कही गयी यह दोनों ही बातें किसी भी चरित्रवान, कर्तव्यनिष्ठ और बाज़मीर पत्रकार के लिए तो निश्चित रूप से न केवल महत्वपूर्ण बल्कि उसकी नींदें उड़ाने वाली हैं। परन्तु जिन्होंने सत्ता की ख़ुशामदपरस्ती और धन दौलत को ही अपने जीवन का सरमाया समझ रखा हो ऐसे 'पत्थरकारों ' लिए तो यह महज़ चंद शब्द मात्र ही हैं। रक्षित ने यह भी कहा कि वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं और उन्होंने  पत्रकारिता के पेशे को इसलिए चुना था ताकि सच दिखा सके परन्तु उन्हें सच नहीं दिखाने दिया जा रहा इसलिए उन्हीं के शब्दों में -'मैं ऐसी नौकरी को लात मारता हूं'। बारह लाख साठ हज़ार वार्षिक पैकेज पर कार्यरत इस बाज़मीर पत्रकार की घुटन की तुलना उन ज़मीरफ़रोश तथाकथित पत्रकारों से की जाए तो एक बार तो यह पूरा पेशा ही ऐसा नज़र आएगा जैसे पूरे कुएं में ही भांग घोल दी गयी हो।

यदि स्वयं को मुख्य धारा का पत्रकार या टी वी चैनल कहने वाले गोदी मीडिया के इन पत्रकारों द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो हमें इनकी पूर्वाग्रही व विस्फ़ोटक पत्रकारिता के ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जो पत्रकारिता के पेशे को तो कलंकित करते ही हैं साथ साथ इस क्षेत्र में क़दम रखने वाली नई पीढ़ी के लिए भी संशय पैदा करते हैं।

याद कीजिये गत वर्ष कोरोना विस्तार के शुरूआती दौर में इन्हीं दलाल चैनल्स ने किस तरह तब्लीग़ी जमाअत के लोगों को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया था जैसे भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कोरोना के प्रसार की साज़िश इन्हीं जमाअतियों ने ही रची हो। इसे 'कोरोना जिहाद' का नाम भी दे दिया गया था। यहां तक कि भारत सरकार का स्वाथ्य मंत्रालय भी इसी गोदी मीडिया से सुर मिलाते हुए जमाअतियों के कोरोना संक्रमित होने के आंकड़े अलग से जारी करने लगा था। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ था कि हर दाढ़ी धारी सब्ज़ी-रेहड़ी वाला मेहनतकश लोगों को जमाअती नज़र आने लगा था और उस समय उनके साथ मारपीट की भी सैकड़ों घटनाएं सामने आई थीं। इसी तरह के ग़ैर ज़िम्मेदार टी वी चैनल देखकर लोग हर ग़रीब मज़दूर व मेहनतकश मुसलमान को 'कोरोना जेहादी' समझने लगे थे। अब धीरे धीरे जमाअत से संबंधित लगभग सभी मामले बंद हो चुके हैं। न ही किसी जमाअती पर किसी साज़िश का आरोप सिद्ध हुआ न ही तथाकथित  'कोरोना जिहाद' प्रमाणित हो सका। परन्तु उस समय महामारी के दौर में समाज में नफ़रत फैलाने में जुटे इस दलाल मीडिया के पास अब उन जमाअतियों के अदालत से क्लीन चिट मिलने या उन्हें बाइज़्ज़त बरी किये जाने संबंधी कोई समाचार नहीं हैं।

स्वयं कभी टी आर पी स्कैम में फंसने वाले तो कभी दूसरों का पैसा हड़प कर किसी मेहनतकश को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले यहां तक कि रिश्वतख़ोरी के आरोप में तिहाड़ जेल तक का सफ़र तय करने वाले इन्हीं कथित पत्रकारों ने सुशांत सिंह राजपूत मामले में रिया चक्रवर्ती को किस तरह कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की और उसका पूरा कैरियर चौपट कर डाला ? यहां तक की पूरे फ़िल्म जगत को नशे की गिरफ़्त में बताने व बदनाम करने की कोशिश की। परन्तु जब पिछले दिनों कोलकता में भाजपा युवा मोर्चा की नेत्री पामेला गोस्वामी को पुलिस ने 100 ग्राम कोकीन के साथ गिरफ़्तार किया और उसके साथ प्रबीर डे नामक एक भाजपा नेता को भी हिरासत में लिया गया और पामेला गोस्वामी ने और भी कई भाजपा नेताओं की ओर इशारा किया उस समय सत्ता के इन दलाल पत्रकारों को शायद सांप सूंघ गया ?

रक्षित ने अपने त्याग पत्र की घोषणा के समय यह भी कहा था कि सच को छुपाना भी झूठ जैसा ही है। निश्चित रूप से जब कभी भारतीय इतिहास में चौथे स्तंभ का ज़िक्र होगा तो जहां सत्ता से सवाल पूछने वाले चंद भारतीय पत्रकारों का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा वहीं चौथे स्तंभ को कलंकित करने वालों के ज़िक्र के बिना भी चौथे स्तंभ का इतिहास अधूरा रहेगा। अपनी नौकरी को लात मार,ज़मीर फ़रोश पत्रकारिता पर एक और प्रहार कर रक्षित सिंह तो अपने बच्चे के समक्ष सुर्ख़रू ज़रूर हो गये परन्तु चौथे स्तंभ को कलंकित करने वाले सुविधा भोगी पत्रकार अपनी औलादों को आगे चलकर क्या जवाब देंगे यह वही बेहतर समझ सकते हैं।

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सम्पादक

डॉ. लीना