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2043 में छपेगा अंतिम अखबार !

अखबारों का पटाक्षेप, संभावित या निश्चित ?
रवि दत्त बाजपेयी/ पटना (साई)।
वैश्विक अर्थ-संकट के इस दौर में अमेरिका-यूरोप में अखबार अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। समाचार उद्योग के विश्लेषक और नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फिलिप मायर की पुस्तक ‘द वैनिशिंग न्यूजपेपर रू सेविंग जर्नलिज्म इन द इन्फार्मेशन एज’ के अनुसार अक्तूबर 2043 में कागज पर अखबार की अंतिम प्रति छपेगी।

क्या दशकों से अखबारी कागज की कमी से जूझते भारतीय समाचार पत्र उद्योग को अंतत:‘अलादीन का चिराग’ हाथ लग गया है? विश्व बाजार में अब ‘न्यूज प्रिंट’ का प्रयोग लगभग समाप्त होने वाला है। इसके बाद भारतीय समाचार पत्रों को यह प्रचुर ‘न्यूज प्रिंट’ कौड़ियों के मोल मिलेगा। वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिका व यूरोप में समाचार पत्रों पर अस्तित्व का संकट गहरा हो गया है, जब समाचार पत्रों के बंदी के समाचार ही सबसे नियमित समाचार हैं। अटकलें हैं कि ऐसा समय भी आयेगा कि समाचार पत्र की तालाबंदी का समाचार छापने को कोई और समाचार पत्र ही नहीं बचेगा।

समाचार उद्योग विश्लेषक और नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फिलिप मायर की पुस्तक ‘द वैनिशिंग न्यूजपेपररू सेविंग जर्नलिजम इन द इन्फार्मेशन एज’ के अनुसार अक्तूबर 2043 में अखबारी कागज पर समाचार पत्र की अंतिम प्रति छापी जायेगी। संभवतः यह अनुमान एक अतिशयोक्ति है, किंतु यह पुस्तक हाल के वर्षाे में समाचार पत्र उद्योग में आये भूचाल और उसके कारणों की पड़ताल का एक प्रयास अवश्य है।

‘द इकोनामिस्ट’ ने अगस्त 2006 के अपने अंक में समाचार पत्रों को ‘लुप्तप्रायरू प्रजाति’ की उपाधि प्रदान करते हुए कहा कि ‘‘समाचार पत्रों का शब्दों को पाठकों को बेचना फिर पाठकों को विज्ञापनदाताओं को बेचने का व्यापार अब और चलने वाला नहीं है’’। वर्ष 2007 से अब तक अमेरिका में 13 बड़े दैनिक समाचार पत्र बंद हो गये हैं, जबकि 10 अन्य बड़े दैनिक अब सप्ताह में केवल दो या तीन दिन ही प्रकाशित हो रहे हैं। मई 2012 में न्यू आर्लियंस शहर के वर्ष 1837 में स्थापित दैनिक अखबार ‘न्यू आर्लियंस टाइम्स पिकायून’ को बंद कर इसे सप्ताह में केवल तीन दिन प्रकाशित करने का निर्णय लिया है।

आधे से अधिक संपादकीय कर्मचारियों की छंटनी कर दी और अब इसका मुख्य उद्देश्य इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति रखना मात्र रह गया है। 10 लाख से ज्यादा की जनसंख्या वाले न्यू आर्लियंस शहर में अब एक भी दैनिक अखबार नहीं बचा है। नवंबर 2011 में कैलिफोर्निया प्रांत का ऑकलैंड भी ऐसा ही शहर बना, जहां से एक भी दैनिक अखबार नहीं निकलता।
19वीं सदी के अंत में अमेरिका के 689 शहरों में एक से ज्यादा समाचार पत्र प्रकाशित होते थे। आज ऐसे शहरों की संख्या 100 से भी कम रह गयी है। एक आकलन के अनुसार अमेरिका के छोटे-मझोले शहरों, जिनकी जनसंख्या 10 लाख से कम है, में समाचार पत्रों को लाभ के साथ चला पाना बेहद कठिन है।

पाठकों के लिए विकल्प के तौर पर केवल एक मात्र समाचार पत्र मौजूद है और उस समाचार पत्र की स्थिति डावांडोल है। अमेरिका की ही तरह यूरोप में भी समाचार पत्र उद्योग पर संकट की बदली छायी हुई है।
वर्ष 2007-09 के बीच जहां अमेरिका का समाचार पत्र उद्योग में 30 प्रतिशत की गिरावट हुई, वहीं यूनाइटेड किंगडम में 21 प्रतिशत, जर्मनी में 10 प्रतिशत व फ्रांस में 4 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी थी। यूनाइटेड किंगडम में 2005-09 के बीच 242 क्षेत्रीय समाचार पत्र बंद हुए, जबकि केवल 70 नये क्षेत्रीय समाचार पत्र बाजार में उतारे गये अर्थात कहीं बहुत बड़ी संख्या में समाचार पत्रों की बंदी हुई।
पाठकों की बदलती हुई आदतों के चलते ही दुनिया के सबसे नामी ब्रिटिश अखबार ‘द टाइम्स’ वर्ष 2006 से ब्रॉडशीट नहीं बल्कि टेबलॉयड संस्करण में बदल गया है। वर्ष 2011-12 में यूनाइटेड किंगडम के सभी बड़े समाचार पत्रों की ग्राहक संख्या में लगभग 10 प्रतिशत की कमी आंकी गयी थी, केवल दो इतवारी अखबारों की प्रसार संख्या में वृद्धि दर्ज हुई लेकिन वह भी विवादास्पद टेबलायड ‘द न्यूज आफ द वल्घर््ड’ के बंद होने के कारण जब उसके पाठक किसी भी अन्य समाचार पत्र को पढ़ने को विवश हुए।
ऑस्ट्रेलिया के सबसे पुराने समाचार प्रकाशन संस्थान ‘फेयरफैक्स’, जो सिडनी से ‘सिडनी मार्निग हेराल्ड’ तथा मेलबोर्न से ‘द एज’ समाचार पत्र का प्रकाशन करता है ने जून 2012 में अपने कर्मचारियों की संख्या में 20 प्रतिशत की कमी करने की घोषणा की।
इस घोषणा से करीब 1900 लोग काम से बाहर किये जायेंगे, दोनों ब्रॉडशीट समाचार पत्र टेबलॉयड संस्करण में बदल दिए जायेंगे तथा वेब पर उपलब्ध समाचार पत्र पढ़ने के लिए भुगतान करना आवश्यक होगा। ऑस्ट्रेलिया के ही दूसरे बड़े समाचार पत्र प्रकाशन समूह रुपर्ट मर्डाक के ‘द न्यूज लिमिटेड’ ने भी अपने कर्मचारियों की संख्या घटाने और कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्रों को बंद करने की घोषणा की है।

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सम्पादक

डॉ. लीना