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नहीं रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि

चर्चित लेखिका अनीता भारती ने अपने फेसबुक वाल पर खबर दी है कि ..अभी अभी देहरादून से संदेश आया है कि प्रसिद्ध साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का आज सुबह परिनिर्वाण हो गया है। उनके निधन पर मीडियामोरचा श्रद्धांजलि अर्पित करता है। ओमप्रकाश बाल्मीकि पर हाल ही में लिखा कँवल भारती का आलेख.....

कँवल भारती / कवि-कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन में अग्रणीय प्रतिष्ठापकों में लिया जाता है. वे सिर्फ एक लेखक भर नहीं हैं, बल्कि दलित साहित्य का एक जीवंत इतिहास है. वे हमारे दलित आन्दोलन के शुरूआती दौर के सक्रिय और जुझारू साथी हैं. हम दोनों ने लगभग एक ही समय 1970 के आसपास दलित साहित्य लिखना शुरू किया था. कानपूर के आर. कमल के ‘निर्णायक भीम’ में हम दोनों ही छपते थे, इसलिए हम एक-दूसरे के नामों से तो परिचित थे, पर मुलाकात नहीं थी. हमारी पहली मुलाकात एक नाटकीय घटनाक्रम में 1990 में दिल्ली में हुई थी. वह 6 दिसम्बर का दिन था. संसद भवन के सामने दलित साहित्य के कुछ स्टाल लगे थे. स्टाल क्या, जमीन पर कपड़ा बिछाकर उसपर किताबें सजाकर लोग बेच रहे थे. उन्हीं में एक स्टाल पर एक ही किताब की बहुत सारी प्रतियाँ रखी हुई थीं. वह किताब थी—ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का संग्रह ‘सदियों का संताप’. किताब उठाकर देखी, सात रूपये दाम था, मैंने खरीद ली. जो व्यक्ति किताब बेच रहा था, मैंने उससे पूछा- ‘क्या वाल्मीकि जी भी आये हैं?’ उसने कहा- ‘मैं ही ओमप्रकाश वाल्मीकि हूँ’. मुझे बिलकुल भी आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि दलित साहित्य का आन्दोलन इसी तरह खुद लेखकों द्वारा अपनी किताबें बेचकर चलाया गया है. मैंने स्वयं भी बहुत से शहरों में आंबेडकर-जयंतियों और बामसेफ के कार्यक्रमों में जाकर इसी तरह जमीन पर किताबे बिछाकर बेची हैं. दलित आन्दोलन इसी त्याग और संघर्ष से आगे बढ़ा है. जब प्रसन्न होकर मैंने अपना नाम बताया, तो बड़े खुश हुए. बोले- क्या अजीब मुलाकात है! हमारे मिलने का वह आकस्मिक पल इतना आत्मीय था कि उसे हम दोनों ने ही गले मिलकर साझा किया. उन दिनों अगर ‘निर्णायक भीम’ में फोटो छपते होते, तो अवश्य ही हम एक-दूसरे को देखते ही पहचान लेते. इसके बाद कितनी ही बार हम मिले, कितने ही सेमिनारों में हम साथ-साथ रहे और कितनी ही आत्मीय मुलाकातों के क्षण हमारी यादों में बन्द हैं, उसकी गिनती नहीं है. सबसे यादगार संस्मरण जबलपुर का है, जिसका उल्लेख वाल्मीकि जी ने भी किसी जगह किया है. उस यात्रा में मेरी पत्नी विमला भी साथ थी और उनकी पत्नी चंदा भी. हमारी भेंडा घाट देखने और नौका विहार की सारी व्यवस्थाएं उन्होंने बड़ी कुशलता से की थीं. खूब आनन्द आया था. चंदा को पानी से डर लगता है, इसलिए नौका में वह हमारे साथ नहीं थीं. खैर ऐसी बहुत सी यादें हैं, यहाँ उनका जिक्र सम्भव भी नहीं है. सबसे अहम काबिलेजिक्र तो उनका रचनाकर्म है, जिसके बगैर हिन्दी दलित साहित्य कोई मायने नहीं रखता.

शुरुआत उनके उसी पहले कविता-संग्रह से करता हूँ, जो हमारी पहली मुलाकात का कारण बना. इस संग्रह की पहली कविता है- ‘ठाकुर का कुंआ’. इस कविता ने हिन्दी साहित्य के भद्रलोक को, जो हिन्दुत्व के तहत शीर्षासन कर रहा था, पैरों के बल खड़ा कर दिया था. इस कविता में ‘ठाकुर का कुंआ’ जातिव्यवस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि सामन्तवादी और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है. कुंआ का अर्थ है पानी, जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. और जीवन के ये सारे संसाधन इसी सामन्ती और पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों में हैं. उत्पादन करने वाली जातियां और मेहनतकश लोग सब-के सब इसी व्यवस्था के गुलाम हैं. इसी यथार्थ को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता में व्यक्त किया हैचूल्हा मिट्टी का/ मिट्टी तालाब की/ तालाब ठाकुर का. भूख रोटी की/ रोटी बाजरे की/ बाजरा खेत का/ खेत ठाकुर का/ बैल ठाकुर का/ हल ठाकुर का/ हल की मूठ पर हथेली अपनी/ फसल ठाकुर की/ कुंआ ठाकुर का/ पानी ठाकुर का/ खेत-खलिहान ठाकुर के/ गली-मुहल्ले ठाकुर के/ फिर अपना क्या? गाँव? शहर? देश? इस कविता में सबसे विचारोत्तेजक पंक्ति यही है- ‘फिर अपना क्या?’ यह सवाल उस जन का है, जो इस तंत्र में धर्मतंत्र और जातितंत्र के नाम पर सबसे ज्यादा शोषित है, और उसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं है. यही जन जब मुट्ठी तानकर सड़क पर उतरता है, व्यवस्था को ललकारता हैकिन्तु इतना याद रखो/ जिस रोज इन्कार कर दिया/ दीया बनने से मेरे जिस्म ने/ अँधेरे में खो जायोगे/ हमेशा-हमेशा के लिए. (दीया) तो यह तंत्र उसे कुचलने के लिए नृशंसता की हर हद से गुजर जाता है. लेकिन ‘सदियों का संताप’ कविता में वाल्मीकि कहते हैं कि दुश्मन के खिलाफ इस चीख को जिन्दा रखना है, क्योंकि भयानक त्रासदी के युग का खात्मा होने के इन्तजार में हमने हजारों वर्ष बिता दिये, अब और नहीं—दोस्तों, इस चीख को जगाकर पूछो/ कि अभी और कितने दिन/ इसी तरह गुमसुम रहकर/ सदियों का संताप सहना है?

‘तब तुम क्या करोगे?’ इस संग्रह की सबसे चर्चित कविता है, जिसमे कवि ने दर्द और आक्रोश को व्यक्त करने की अपनी अलग ही प्रश्नात्मक शैली ईजाद की है. यह शैली इतनी लोकप्रिय हुई कि इससे प्रभावित होकर कितनी ही दलित कविताएँ लिखी गयीं. मेरी कविता ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ की शैली भी इसी कविता से ली गयी है. वाल्मीकि ने इस कविता में उन लोगों की चेतना को झकझोरा है, जो दलितों के प्रति पूरी तरह संवेदना-विहीन हैं. ऐसे ही लोगों से वे सवाल करते हैंयदि तुम्हें, मरे जानवर को खींचकर/ ले जाने के लिए कहा जाये/ और, कहा जाय ढोने को/ पूरे परिवार का मैला/ पहनने को दी जाय उतरन/ तब तुम क्या करोगे?/ यदि तुम्हें/ रहने को दिया जाय/ फूंस का कच्चा घर/ वक्त-बे-वक्त फूंककर जिसे/ स्वाह कर दिया जाय/ बरसात की रातों में/ घुटने-घुटने पानी में/ सोने को कहा जाय,/ तब तुम क्या करोगे?/ यह लम्बी कविता है, जिसमे दलित जीवन का वह यथार्थ भद्र वर्ग के सामने रखा गया है, जिसे वह देखना तक पसंद नहीं करता. इसलिए अंत में कवि कहता हैसाफ-सुथरा रंग तुम्हारा/ झुलसकर सांवला पड़ जायेगा/ खो जायेगा आँखों का सलोनापन/ तब तुम कागज पर/ नहीं लिख पाओगे/ सत्यम, शिवम, सुन्दरम/

 ‘सदियों का संताप’ ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसे उन्होंने 1989 में अपने पैसों से छपवाया था. इस संग्रह की सभी कविताएँ पीड़ा, विद्रोह और आन्दोलन को विचारोत्तेजक शब्द देती हैं, जिनके अर्थ चेतना में उतरते चले जाते हैं. इसके बाद भी उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हुए, पर उनमे अभिव्यक्ति की जटिलता है, जो मुख्यधारा की आधुनिक कविता से प्रभावित जान पड़ती है. इसलिए मैं उनके ‘सदियों का संताप’ कविता संग्रह को ही दलित आन्दोलन का घोषणापत्र मानता हूँ.

हालांकि ओमप्रकाश वाल्मीकि को सबसे ज्यादा सफलता उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ से मिली, पर सच यह है कि उनकी अनुभूतियों का सर्वाधिक विस्तार उनकी कहानियों में हुआ है. उन्होंने नयी कहानी के दौर में दलित कहानी की रचना करके नयी कहानी के अलमबरदारों को यह बताया कि नयी कहानी में व्यक्ति की अपेक्षा समाज तो अस्तित्व में है, पर दलित समाज उसमें भी मौजूद नहीं है. सलाम, पच्चीस चौका डेढ़ सौ, रिहाई, सपना, बैल की खाल, गो-हत्या, ग्रहण, जिनावर, अम्मा, खानाबदोश, कुचक्र, घुसपैठिये, प्रोमोशन, हत्यारे, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ और कूड़ाघर जैसी कहानियों ने यह बताया कि यथार्थ में नयी कहानी वह नहीं है, जिसे राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर लिख रहे थे, बल्कि वह है जिसमे हाशिये का समाज अपने सवालों के साथ मौजूद है.

वाल्मीकि की जिस एक कहानी पर सबसे ज्यादा विवाद हुआ, वह ‘शवयात्रा’ है. यह विवाद वाल्मीकि-जाटव-विवाद बन गया था. पर यह विवाद जिन्होंने भी खड़ा किया, उन्होंने वाल्मीकि को ही सही साबित किया.

आज वाल्मीकि कैंसर से पीड़ित हैं और देहरादून के मैक्स अस्पताल में भर्ती हैं. मैं कामना करता हूँ कि वे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करेंगे और अपने उस अधूरे काम को अवश्य पूरा करेंगे, जिसे वे शिमला में रहकर कर रहे थे.

(8 नवम्बर 2013 ) 

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना